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आपको बताते हुए हमें हर्ष हो रहा है कि हम आपके बीच सोशलमीडिया प्लेटफार्म पर “कहानी तक”(www.kahanitak.com) का शुभारंभ कर रहे हैं. कहानी तक एक पहल है उस सांस्कृतिक और मानसिक प्रदूषण के खिलाफ जिसने मनुष्य और उसके जीवन से मनुष्यता सोख ली है… एक छोटा सा उपहार जिसका प्रयास होगा कि इस दौर में कुछ जरूरी बचा ले जाएं. यदि आप देश समाज और मानवता के बारे में गहरी सोच रखते हैं और किसी भी विधा में लिखते हैं ,बोलते हैं तो हम आपको आमंत्रित करते हैं कि कहानी तक पर आप – अपनी रचना /लेख/ वीडियो अवश्य भेजें कहानी तक आपकी रचना की प्रतीक्षा में रहेगी.

सृष्टि के आदि काल से अनेकानेक सभ्यताएं जन्मीं , उत्कर्ष को प्राप्त हुईं और नश्वरता के नियम के अनुसार अंततः काल के गाल में समा गयीं. प्रत्येक काल की अपनी – अपनी कहानी होती है. प्रत्येक घट जाने वाली घटना कहानी होती है. कहानी बीते कल की घटनाओं के साथ कल्पना का पुट लिए भविष्य के लिए अपने गर्भ में संदेश छुपाए रहती है. कहानियाँ हमें हमारे अतीत से जोड़ती हैं तो हमें भविष्य के लिए सचेत भी करती हैं. कहानियों के विषय राजमुकुट से लेकर दीन, हीन मजलूम तक हो सकते हैं. कहानी जीव से जीव तक का एक संदेश परक संवाद है. इसलिए भी हम आपको कहानी तक से जुड़ने की आग्रह करते हैं. सृजन सदैव संवेदना परक होता है जहाँ से मनुष्यता के अंकुर फूटते हैं. आइए मानवता के हित में दो स्वस्थ शब्द सृजित करें. मानवता आपकी ऋणी होगी.
“सृजन की पीड़ा का नवांकुर जब मानवीय संवेदनाओं के साथ घनीभूत होकर मानव मानस से शब्द रूप में प्रस्फुटित होकर चित्रात्मक बोध कराने लगती है तब जन्म लेती है कहानी जिसमें मानव मन अंतस्तल तक भीगकर रसात्मक अनुभूति में डूब जाता है.”
सौभाग्य की बात है कि आज जब हम “कहानी तक ” का शुभारंभ कर रहे हैं तब अभी कुछेक दिन पहले कथासम्राट मुंशी प्रेमचंद जी की जन्म जयंती है. 31 जुलाई को थी. 31 जुलाई (सन्1880-1936 )को वाराणसी के लम्ही गाँव में जन्में मुंशी प्रेमचंद जी का नाम धनपतराय था. उर्दू लेखन के समय तक उन्होंने नबाबराय के नाम से लेखन किया. उर्दू में लिखित “सोजे वतन” उपन्यास में स्वतंत्रता की आवाज़ बुलंद करने का पुट अधिक होने से अंग्रेजी सरकार को यह बात रास न आयी और इसकी प्रतियां प्रतिबंधित कर जला दी गयीं. तत्पश्चात प्रेमचंद जी ने प्रेमचंद के नाम से लेखन किया तो फिर क्या कहानी और क्या उपन्यास और क्या पत्रिका संपादन सब तरफ अपनी लेखनी की स्याही के आलोक में ऐसा लिखा कि केवल भारत देश ही नहीं अपितु पूरे विश्व को मानवीय संवेदना के सरोवर में स्नान करा दिया.
प्रेमचंद हिंदी की अमूल्य विरासत हैं, जिन्होंने हिंदी की अहर्निश सेवा की है .सहज भाषा में तीखा लेखन प्रेमचंद जी के व्यक्तित्व की विशेषता थी. प्रेमचंद शोषित ,वंचित, कमजोर असहायों के मसीहा बनकर उभरे. अन्याय के खिलाफ प्रेमचंद जी की लेखनी ने भय महसूस नहीं किया. गुलामी की जंजीरों की जकड़न में रहते हुए भी प्रेमचंद जी की लेखनी का इतना तीखापन उनके अदम्य साहस को दर्शाता है .उस समय जब एक तरफ भारत देश में अंग्रेजों की प्रताड़ना से मानवता कराह रही थी तो दूसरी तरफ देश के साहूकार, मिल- मालिक व जमींदारों के संवेदनहीनता का जुल्म गरीब, असहाय ,मजदूर और कमजोरों पर गरम लोहे की छड़ी बनकर उन्हें त्रास दे रहा था , जहाँ दर्द को भी आंसू आ जाते थे. रही सही कसर जातिवाद और रूढियों की बेड़ियों में जकड़ा रहता था. जहाँ कई बार मानवता के मायने ही पाखंड की भेंट चढ़ जाया करते थे.
भारत एक कृषि प्रधान देश है , जहाँ अन्न ,फल, सब्जी आदि उगाए जाने के लिए पर्याप्त कृषि भूमि उपलब्ध है.और विडम्बना देखिए कि कृषि प्रधान देश में आज भी न जाने कितने बच्चे, बूढ़े ,जवान भूख की पीड़ा से तड़प रहे होंगे. कफन कहानी में घीसू और माधव की भूख केवल दो बाप बेटे की भूख नहीं है अपितु प्रेमचंद जी की अपने पेट की भूख है जो कि भूख से तड़पते समस्त भारतीयों की भूख से जुड़ जाती है.शोषक ताकतवर और हृदयहीन होता है.जो अपनी व्यवस्था का दास ढूंढता रहता है. जिसके शिकार न जाने कितने घीसू, माधव ,बुधिया दुखिया, होरी धनिया और गोबर होते रहते हैं. सद्गति कहानी का पात्र दुखी शोषण व धार्मिक पांखंड के चलते हृदयहीनता का शिकार होकर मर जाता है .धर्म में विनयशीलता के साथ सहानुभूति होती है.धर्म और पाखंड में अंतर होता है लेकिन सत्ता और अर्थ में बहुत ताकत होती है जो इसके बीच के भेद को आसानी से प्रकट नहीं होने देता है.
“कर्ज वह मेहमान है जो एक बार आने के बाद जाने का नाम नहीं लेता “ गोदान में प्रेमचंद का यह कथन तत्कालीन कर्ज लेने वाले किसानों की करुण दास्ताँ है. जो उन्हें चैन से न जीने देती है और न चैन से मरने ही देती है. संसाधन विहीन असहाय ,गरीब सवासेर गेंहू उधार क्या लेता है कि वह सवा सेर गेहूँ का कर्ज अगली से पीढ़ी तक से उतरता नहीं है. आजादी के इतने वर्ष के बाद आज भी कर्ज रूपी राक्षस के आगोश में न जाने कितने लोग रोज समाते जा रहे हैं. व्यवस्था की कलई तो कर्ज से परेशान होकर होने वाली मौतें खोलती ही हैं, यह अलग बात है कि भ्रष्टाचार के आगोश में अधिकांश रूप से लिप्त व्यवस्था के कानों में गरीब की मौत की आवाज सुनायी नहीं पड़ती है. साहूकारी व्यवस्था आज भी समाज में कुंडली मार फन फैलाये बैठी हुई है. जो भी इसकी जद में आया उसी की सांसें इसके विष से अवरुद्ध हो गयीं. ब्याज हमारे समाज का एक भद्दा मजाक है. सरकार की नाक के नीचे तमाम एन बी एफ सी, कोआपरेटिव सोसाइटी, बैंक के क्रेडिट कार्ड और इन सबमें जो सबसे अधिक ताकतवर है वह साहूकारों का ब्याज अनैतिक व मनमानी वाला ब्याज जिसका हिसाब सालाना नहीं साहब छ: सात आठ, नौ दस और कहीं कहीं तो बारह से पंद्रह प्रतिशत तक मासिक होता है .जिसकी जकड़न में न जाने कितनी मौतें होती हैं, जिसके आंकड़े सरकार के पास होंगे ही नहीं. तमाम कानून ,तमाम अधिकारी इस पर चुप क्यों लगा बैठे हैं कैसे कहा जा सकता है? यहीं
प्रेमचंद यह कहते हुए महत्वपूर्ण हो जाते हैं यह कि “कर्ज में लिए गए सवासेर गेहूँ को एक पीढ़ी तो चुका नहीं पाती है दूसरी चुका पाएगी इसमें संदेह है” न जाने कितने कर्ज न चुका पाने के कारण गुलामी में फंसे हुए रहते हैं जिनका शारीरिक,आर्थिक और मानसिक शोषण निम्न से निम्न स्तर तक होता रहता है.
प्रेमचंद का किसान दो वर्गों में बंटा है.एक वह जिसके पास भूमि है, वह जमींदार है, एक वह जिसके पास भूमि का एक छोटा टुकड़ा मात्र है. बड़ा किसान छोटे किसान का शोषण करता है. वह हृदयहीन भी है. भूमिहीन मजदूरों की पेट की भूख का फायदा उठाता है और उसे दासत्व में रखता है.
छोटे किसान संसाधनों के अभाव में पेट की भूख के लिए मजदूरी करते हैं और जमींदार की कृपा पर कभी कभी भर पेट तो अधिकांश बिना पेट की भूख के साथ श्रम से थके रात्रि विश्राम हेतु सो जाया करते हैं. शोषण और पाखंड उन्हें यह समझने ही नहीं देता कि जो जमींदार है वह भी मानव है और जिसके पास जमीन कम है मजदूर है वह भी मानव है. क्या गांव क्या शहर सब जगह वह मजदूर और बेबस किसान ठगा का ठगा ही रहता है.
प्रेमचंद का पक्ष मानवीयता से पूर्ण है. सुधारवादी लेखन में यथार्थ और आदर्श का पुट लेकर प्रेमचंद जी उम्मीद का आइना गढ़ते हैं जिसमें शोषक -शोषित दोनों की सूरत साफ – साफ दिख सके जिससे एक में दया और सहानुभूति का उदय हो सके जिससे शोषित, वंचित लाभान्वित हो सकें.

प्रेमचंद जी की रचनाओं में भारत बसता है. भारत के गाँव बसते हैं,भारत के लोग बसते हैं, भारत के तीज त्योहार बसते हैं, भारत की खेती किसानी, खेत, खलिहान बसते हैं.जिसमें हर भारतीय को स्वतंत्रता पूर्वक जीवन जीने का अधिकार स्वयं सुरक्षित हो का भरसक प्रयास करते हुए प्रेमचंद जी पाए जाते हैं.शिक्षा और स्वास्थ्य जिस समाज में विशुद्ध व्यापार बनकर फल – फूल रही हो तब प्रेमचंद जैसे मानवीय संवेदना के संवाहक लेखक को पढ़ना- पढ़ाना आवश्यक हो जाता है. हमारे देश में एक पिता को अपने बच्चे पढ़ाना एक साहूकार से दस प्रतिशत पर ब्याज पर उधार पैसे लेने जैसा है जिसका ब्याज ,बच्चा पढ़ लिखकर ईमानदारी की कमाई से भरने में सक्षम नहीं हो पाता है.मूलधन तो दूर की कौड़ी है.
आज भारतीय शिक्षा अनेकानेक सरकारी अनदेखी से बदहाली का शिकार है. जिसके चलते कोचिंग संस्थानों की जकड़न में है. इसमें अधिकांश तो एक रैकेट की तरह काम कर रहे हैं, इनके फलने- फूलने का कारण वही व्यवस्था है ,जिसकी मानसिकता केवल पैसों की उगाही से जुड़कर सांस शीतल सासं लेती है और मुस्कुराती है. फैशन की दौड़ में कोचिंग का विस्तार अंतहीन जकड़न भरा है.कोचिंग अति महत्वाकांक्षा का भयावह रूप हैं. जहाँ सपनों का संसार गढ़ा जाता है.जिसके चलते न जाने कितने दूर दराज़ के बच्चे उच्च से उच्चतर नौकरियां पाने के लिए तैयारी करने अपने हेतु इनमें दाखिला लेते हैं और माता पिता पर माता -पिता पर अतिरिक्त भार बढ़ाने में संकोच नहीं करते हैं.
कोचिंग संस्थानों का दबाव न जाने कितने बच्चों की जिंदगी को समाप्त कर देता है. व्यवस्था की लापरवाही का आलम दिल्ली के राजेन्द्र नगर में तीन मासूम बच्चों की जिंदगी लील गया राजनीति करने वालों को चुनाव का मसाला मिल गया. हृदयहीनता का इससे बड़ा दूसरा उदाहरण क्या हो सकता है? घृणित राजनीति करके कोई किसी बच्चे व उसके अभिभावकों की जिंदगी के साथ कैसे खेल सकता है? . क्या जिंदगी इतनी सस्ती हो गयी है?
स्वास्थ्य सेवाएं की कहें ही क्या…? अधिकांश सरकारी अस्पतालों में लापरवाही गंदगी और भीड़ का आलम है, जहाँ डाक्टर उस अस्पताल से ज्यादा अपने निजी प्रैक्टिस को महत्व देते हैं. अधिकतर निजी अस्पतालों के चक्कर में वही साहूकारी सभ्यता की जकड़न है जहाँ इलाज के नाम पर गोरखधंधा फल-फूल रहा है. ऐसे में भी प्रेमचंद को प्रासंगिक हो जाते हैं गरीबों की आवाज़ बनकर और साहूकारी सभय्ता के समक्ष एक आंदोलनकारी बनकर .
प्रेमचंद का धार्मिक पाखंड पर प्रहार आज के समय में भी प्रासंगिक है. कैसे धार्मिक बाबाओं के चंगुल में फंसकर मनुष्य की जिंदगी राजनीतिक स्वार्थ से सस्ती हो गयी है ?, इसका एक ताजा उदाहरण हाथरस में एक के बाबा प्रवचन शिविर में भगदड़ से हुई अनेक मौतें हैं. जहाँ राजनीतिक स्वार्थ में सब तरफ खामोशी है. ऐसे समय में भी प्रेमचंद को पढ़ना आवश्यक हो जाता है.
प्रेमचंद एक कहानीकार के रूप में जब 300 कहानी लिखते हैं जिसमें सद्गति, कफन, पंचपरमेश्वर, सवासेर गेंहूँ, दो बैलों की कथा नमक का दरोगा आदि एक से बढ़कर एक कहानी हैं. जो गहरी मानवीय संवेदनाओं का जीता – जागता चित्र बनकर उभरती हैं. तो दूसरी तरफ एक बढ़कर एक उपन्यास सेवासदन, गबन, निर्मला मंगलसूत्र,गोदान आदि महाकाव्यात्मक रूप में पूरी की पूरी व्यवस्था पर प्रहार करते हुए व्यवस्था का नंगा चित्र उभार कर रख देते हैं.गरीब जिनकी कथा का बीज है, शोषित जिनकी कथा का पात्र है, व्यवस्था जिनके निशाने पर है. जिनकी समूची की समूची रचनाएँ मनुष्य से मनुष्यता की तरफ जाने की सीढ़ी तैयार करती हुई पायी जाती हैं. ऐसे में कुछ विमर्शों तक सीमित करके प्रेमचंद जी को नहीं देखा जाना चाहिए. उनकी रचनाओं का फलक बहुत विस्तृत है जिसमें जीवन के विविध रूप रूपायित हुए हैं. कलम के सिपाही सच्चे अर्थों में भारत रत्न के हकदार हैं लेकिन केवल प्रेमचंद ही क्या न जाने कितने विद्वान लेखकीय विधा से मानवता का कल्याण करने वाले लोग इस विभूति से वंचित रह गए.. हिंदी भाषी देश में हिंदी लेखकीय प्रतिभा को उभारने के लिए भारत में भारत रत्न किसी भी हिंदी लेखक को मिल पाएगा यह तो कहना मुश्किल है. लेकिन प्रेमचंद जी की लेखनी का आलोक किसी की अनुकम्पा का मोहताज नहीं.

कहानी तक के इस संपादकीय में बाढ़ , भूस्खलन कोचिंग व बाबा के प्रवचन में फंसकर जान गंवाने वालों के प्रति कहानी तक टीम गहरी संवेदनाएं प्रकट करती है. और कहानी तक इस तरह की अव्यवस्था व पक्षपात की घोर निंदा करता है .नियमों की अनदेखी असावधानी का कारक बनती है, और सावधानी हटते ही दुर्घटना होती है ध्यान रहे.

-रमेश कुमार मिश्र


                                
One thought on “संपादकीय”
  1. इस महनीय सारस्वत पटल को प्रारम्भ करने के लिए आपको बधाई और अनेकशः साधुवाद।

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