अरुणाकर पाण्डेय
यदि आज यह जानने की कोशिश की जाए कि मीडिया से सम्बन्धित सबसे बड़ी या प्रमुख समस्याएं कौन सी हैं तो उनमें निश्चित ही फेक न्यूज़ और फेक रील्स या विडियो की बात की जाएगी | बल्कि आज की मीडिया प्रवृत्ति में वीडियो वार एक कारगर मीडिया औजार के रूप में अपनी जगह बना चुका है | इसका लक्ष्य यह होता है कि वह सत्य और यथार्थ को बहुत संश्लिष्ट और कठिन बना देता है | इसलिए यह समझ अपने आप बनती चली जाती है कि सच और झूठ के इस संजाल में यदि किसी को बहुत फायदा होता है तो वो तमाम मीडिया हाउस हैं जो इसका व्यापार कर लेते हैं | समाज,जनता और उपभोक्ता को नियंत्रित करने के कई प्रयोग दिखते हैं और इसीलिए मीडिया अध्ययन जैसे विषयों की जरुरत भी लगातार बनी रहती है |
इस विषय से संबंधित एक महत्वपूर्ण समाचार यह आया है कि भारत के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने एक परामर्श निजी मीडिया संस्थानों के लिए विगत दिनों में जारी किया है | परामर्श यह है कि अब से वे जब भी प्राकृतिक आपदाओं और बड़े हादसों की रिपोर्टिंग का प्रसारण करें तो उस दृश्य के साथ उस घटना की तिथि और समय का भी उल्लेख करें | मंत्रालय ने यह समझा कि टीवी चैनल जन प्राकृतिक आपदाओं और बड़े हादसों की कई दिनों तक लगातार कवरेज करते हैं लेकिन वे उस दौरान उसी फुटेज को ही दोहराते रहते हैं जो उन्होंने हादसे के समय प्रस्तुत की होती है | मंत्रालय का यह तर्क है कि जो फुटेज दिखाए जाते हैं यह आवश्यक नहीं के वे प्रसारण के समय के ही हों,जिससे दर्शकों में अनावश्यक भ्रम और दहशत पैदा होते हैं| अतः दर्शकों को ग़लतफ़हमी से बचाने के लिए, सभी निजी सेटलाइट चैनलों को यह सलाह दी गई है कि वे आश्वस्त करें कि प्राकृतिक प्रकोप,आपदाओं और हादसों के दृश्यों में प्रमुखता के साथ सही तारीख और समय फुटेज के ऊपर प्रदर्शित करेंगे | यह तथ्य फुटेज में जोड़ने से दर्शकों को यह सुनिश्चित हो जाएगा कि उन्हें सही और पूरी सूचना दी जा रही है | मंत्रालय के इस कदम का स्वागत होना चाहिए और इस डेटटाइम स्टाम्प की प्रक्रिया को तत्काल प्रभाव से लागू भी करना चाहिए |बल्कि ऐसी सलाह तो बहुत पहले से ही लागू की जानी चाहिए थी | यह विचार का विषय है कि इसमें इतनी देर क्यों कर दी गई |
इसके अलावा यहाँ दो प्रश्न और विचारणीय है | एक तो यह कि यह डेटटाइम स्टाम्प आपदा और हादसों के अतिरिक्त यदि अन्य दृश्यों पर भी लगा दिया जाए तो इसमें कोई नुक्सान तो नहीं होना चाहिए | इससे किसी भी प्रकार के दृश्य की सूचना और सशक्त ही दिखेगी | विशेषकर हिंसा से जुड़े हुए दृश्यों में यह लागू करना चाहिए जिससे दर्शक किसी भी प्रकार से उत्तेजित न हों | बहुत बाद में जाकर यह निर्णय भी कभी लिया गया था कि नशा,स्टंट आदि के सीन में चेतावनी लिख दी जाती थी | उसी क्रम में आज के निर्माण (प्रोडक्शन) को देखते हुए इस पर विचार करना चाहिए |
दूसरी बात यह है कि ऐसी सलाह को सिर्फ निजी चैनलों तक ही सीमित नहीं करना चाहिए,बल्कि सोशल मीडिया पर भी लागू करना चाहिए | इसका कारण यह है कि समकालीन मीडिया में सोशल मीडिया का प्रभाव टीवी से लोहा लेता हुआ दिखता है और लोग बिना किसी सेंसर के या विवेक के ऐसी वीडियो और रील प्रस्तुत कर देते हैं जिससे समाज पर बुरा प्रभाव पड़ता है | कभी कभार कोई पोस्ट या वीडियो रोक दी जाती है लेकिन फिर भी यह एक कड़े नियम की तरह होना चाहिए जिससे सूचना की कुछ प्रामाणिकता बची रहे | अभी हाल ही में एक फोटो सोशल मीडिया पर बहुत वायरल हुई जिसमें यह दिखाया गया था कि बांग्लादेश हिंसा के दौरान रवीन्द्रनाथ टैगोर की एक मूर्ति से उनके सर का हिस्सा तोड़ कर कहीं जमीन पर फेंक दिया गया| इसे सत्य मानकर लोगों ने इसकी निंदा शुरू कर दी | यहाँ तक कि साहित्यकारों ने भी इस तस्वीर को बंगलादेश की हिंसा से जोड़कर इस पर लिखना और इसे साझा करना शुरू कर दिया | यह निश्चित ही दुखी होने का प्रसंग है | लेकिन इस तस्वीर की सत्यता की जाँच करने या उस पर सही जानकारी जुटाने की कोशिश नहीं की गई और लोगों ने इसे सच मानकर धड़ल्ले से वायरल करना शुरू कर दिया |
लोकप्रिय मीडिया कंपनी ‘लल्लनटॉप’ ने इस चित्र की पड़ताल की तो यह पता चला कि यह 18 फरवरी 2023 को बांग्लादेश में आयोजित किये गए एक पुस्तक मेले की है जिसके बारे में विस्तार से खबरें भी बांग्लादेशी मीडिया की वेबसाइट पर हैं | इससे यह स्पष्ट हो गया कि यह अगस्त 2024 में बंग्लादेश में हुई हिंसा से जुड़ी हुई तस्वीर नहीं है |लेकिन इस झूठी खबर से बिना मतलब के कितने लोग आहत हुए होंगे और उन्होंने न जाने कैसी अनर्गल धारणाएं अपने मन में बनाई और फिर उसका प्रचार भी किया, यह सोशल मीडिया कि पोस्ट से जाहिर हो जाता है | कल्पना कीजिए कि सूचना और प्रसारण मंत्रालय वाली सलाह अगर सोशल मीडिया पर भी प्रभावी हो जाती और टैगोर जी की इस मूर्ति वाली फोटो के साथ कहीं उसमें भी डेटटाइम स्टाम्प वाली व्यवस्था हो जाती तो सूचना की प्रामाणिकता भी स्वयम सिद्ध होती |
अतः इस विषय पर सरकार, मीडियकर्मियों और दर्शकों का ध्यान जाना बहुत जरुरी है क्योंकि सोशल मीडिया को सिर्फ पैसा कमाने के माध्यम में सीमित कर दिया गया तो यह निश्चित है कि आगे इसकी बहुत बड़ी कीमत सबको चुकानी पड़ेगी | मंत्रालय का यह कदम स्वागतयोग्य है लेकिन अभी इस पर बहुत अधिक और समय से काम करने की आवश्यकता है |
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं।