रमेश कुमार मिश्र

हमने कब चाहा जीत हमीं को मिले , जीत में तेरे जीत छुपी है मेरी ।
हमने कब चाहा शोहरत हमीं को मिले , तेरी शोहरत में शोहरत छुपी है मेरी ।
हमने कब चाहा रूप हमीं को मिले, तेरी सूरत में सूरत छुपी है मेरी ।
हमने कब चाहा जीवन हमीं को मिले , तेरे जीने में जीना छुपा है मेरा ।
हमने कब चाहा तूं हमीं को मिले , तेरी खुशियों में खुशियां छुपी हैं मेरी ।
हमने कब चाहा दौलत हमीं को मिले , तेरी दौलत में दौलत छुपी है मेरी ।
कवि/लेखक- दिल्लीविश्वविद्यालय दिल्ली से हिंदी में परास्नातक व हिंदी पत्रकारिता परास्नातक डिप्लोमा हैं