पुस्तकों के लिएImage source Meta AI

अरुणाकर पाण्डेय

अरुणाकर पाण्डेय

लगभग एक दशक पहले अमरीका की अलाबामा स्थित एथेंस लाइमस्टोन पब्लिक लाइब्रेरी की एक अनूठी और विचारणीय खबर सामने आई थी | इस पुस्तकालय में लगभग दो लाख डॉलर राशि की पुस्तकों की प्राप्ति नहीं हुई थी, यानी लोग वहाँ से किताबें लेकर जाते रहे पर सही समय पर उन्हें पुस्तकालय में जमा नहीं कराया |धीरे-धीरे जब इन पुस्तकों की राशि लगभग दो लाख डॉलर तक पहुँच गयी, तब जाकर वहाँ के अधिकारियों को जागृति आई और उन्होंने एक बेमिसाल निर्णय लिया था | अलाबामा के इस पुस्तकालय ने लोगों को यह चेतावनी दी है की यदि उन्होंने देय पुस्तकें समय पर वापस नहीं की तो अब इसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ सकता था | पुस्तकालय की तत्कालीन निदेशिका पौला लौरिटा ने एक समाचार पत्र को यह कहा था कि वे जनता के कर से खरीदे जाने वाली इन सामग्री को एक बेहतरीन निवेश की तरह देखती हैं और यह मानती हैं कि उन करदाताओं की यह अपेक्षा है कि इस निवेश की रक्षा की जाए |इसलिए वे हर एक प्रयास करेंगी जिससे जनता के इस राशि की निगरानी हो सके | उन्होंने यह भी बताया था कि वे इस दंड को प्रभावकारी बनाने के लिए एक स्थानीय अध्यादेश का आधार लेंगी जो न केवल दंड राशि पर जोर देती है बल्कि कारावास की सजा को भी संभव करती है | 

इस सजा को लागू करने के लिए उस  समय एक प्रक्रिया अपनाई गई |सर्वप्रथम पुस्तकालय पुस्तक धारकों को ईमेल से नोटिस भेजेगा | यदि पुस्तक धारक ने इस ईमेल की उपेक्षा की तो उसे पुस्तकालय से एक पत्र जारी होगा जिसमें उसे दस दिन का समय पुस्तक लौटाने और दंड राशि भरने के लिए दिया जाएगा | यदि पुस्तक धारक ने इस पत्र को भी कोई महत्व नहीं दिया तो दस दिन के बाद उसे अदालत से समन जारी होगा और उस सुनवाई के बाद उसे अतिरिक्त जुर्माना तो देना पड़ ही सकता है पर साथ ही साथ जेल की सजा भी दी जा सकती है |उक्त अध्यादेश को ‘सिटी आर्डिनेंस 93-1157’ के नाम से जाना जाता है और इसके अंतर्गत जो पुस्तक धारक पुस्तक लौटाने में विफल होते हैं या लौटाने से मना कर देते हैं उन्हें सौ डॉलर की दंड राशि के साथ तीस दिन के जेल की सजा न्यायधीश के विवेकानुसार दी जा सकती हैं | साथ ही पौला लौरिटा ने इस मामले में ऐसे लोगों को यह संदेश भी दिया था कि यदि हम किसी को अपना क्रेडिट कार्ड नहीं देते तो अपना पुस्तकालय का कार्ड भी परिचित लोगों को नहीं देना चाहिए | इसका  स्पष्ट अर्थ यह होता है कि उनके यहाँ यह बड़ी समस्या पाई गई है की लोग अपने कार्ड पर दूसरों को पुस्तकें लेने देते हैं और फिर उसे आसानी से भूल जाते हैं |   

for books
Image source meta AI

पुस्तकालय और दुर्लभ पुस्तकें अधिकतर हमारे अकादमिक या हिंदी जगत में चर्चा का विषय नहीं होते |पुस्तक समीक्षा और बिक्री से संबंधित पढ़ने-सुनने को मिलता है लेकिन किताबों की अपनी सामाजिकता की सामग्री या खबरें बहुधा चिंतन के विषय नहीं होते | यह कुल मिलाकर ज्ञान के एक बहुत बड़े और विश्वसनीय माध्यम से हमारे संबंधों को उजागर करता है | हालाँकि पुस्तकालयों को डिजिटल रूप से जोड़ने के अभियान और प्रयास दिखते हैं और औपचारिकता के साथ लागू किये जाते हैं लेकिन वास्तव में वे हमारी अपने जीवन का हिस्सा कितना बन पाए हैं यह कहना कठिन है | लेकिन सबसे बड़ी दिक्कत उन दुर्लभ या अप्राप्य पुस्तकों की होती है जिनके लिए पुस्तकालयों पर ही निर्भर हुआ जा सकता है | इसकी पीड़ा सबसे अधिक वे शोधार्थी ही जानते हैं जिन्हें अपने विषय को जानने-समझने के लिए इनकी नितांत आवश्यकता होती है | अपने पुस्तकालयों में हम अधिक से अधिक दंड राशि का प्रावधान ही रखते हैं लेकिन जेल की सजा तो स्वप्न में भी नहीं सोची होगी | लेकिन सच में यदि ऐसी सजा का प्रावधान हो जाए तो यह एक बेहतर कदम ही होगा क्योंकि इससे पुस्तक को भी जीवन की बुनियादी आवश्यकता के रूप में महत्व मिलेगा अन्यथा वह केवल बैठकी की शोभा बढ़ाने की वस्तु मात्र बनकर रह जाएगी | 

यदि अतीत के चिंतकों की ओर देखा जाए तो पता लगता है कि वे अपने लेखन में इन विषयों के प्रति उतने ही संवेदनशील रहे जितना की साहित्य, भाषा, शिक्षा, स्वतंत्रता और संस्कृति के !! डॉ. श्यामसुन्दरदास ने तो सरस्वती के संपादकीय में तत्कालीन राजाओं और धनिकों से मैक्समूलर के मरणोपरांत उनके निजी पुस्तकालय को खरीदने की अपनी अपेक्षा को जाहिर किया था और फिर टोकियो के राजकीय विश्वविद्यालय द्वारा उसे खरीद लेने पर यह खेद प्रकट किया था कि यह भारत का दुर्भाग्य है कि उसका एक भी सपूत ऐसा न निकला जो अपना धन उक्त कार्य के लिए अर्पित करता | उसके बाद ऐसी चिंताएँ समय-समय पर व्यक्त की जाती रहीं, लेकिन यह कभी स्थायी मुद्दा नहीं बना | अपने एक आलेख ‘किताब और नया हिसाब-किताब’ में मनोहर श्याम जोशी ने भी पुस्तक के साथ उपजे सामाजिक  रवैये का बेहतरीन विश्लेषण किया और उसे नई प्रौद्योगिकी की मानदंड पर देखते हुए मुक्त मंडी की आलोचना की |उन्होंने ध्यान दिलाया कि लोग किताबें मनोरंजन के लिए ही पढ़ेंगे तथा वे हवाई अड्डों आदि पर अब फेंकी हुई पाई जाने लगी हैं |   

यह भी सच है कि खबर के रूप में पुस्तकों का एक बड़ा इस्तेमाल चुनावी राजनीति के लिए होने लगा है और उसके अलावा किसी बड़ी खबर के रूप में उसकी चर्चा नहीं दिखती | लेकिन पौला के व्यक्तव्यों पर थोड़ा ध्यान दें तो यह एक सराहनीय प्रयास था और एक बड़ा बहाना है कि पुस्तक पर गंभीर चर्चा की जाए | हिंदी में तो दुर्लभ पुस्तकों को बचाने का सबसे बड़ा माध्यम उनका पुनर्प्रकाशन दिखता है जहाँ प्रकाशनाधिकार की अवधि समाप्त होने के बाद उन्हें संपादित कर छापा जाता है लेकिन उसका मूल्य पूरी तरह निजी प्रकाशकों के हाथ में ही होता है | वहाँ पर भी मूल्य निर्धारित करने की कोई निश्चित प्रक्रिया नहीं है, लेकिन निर्विवाद रूप से सामग्री तो प्राप्त हो जाती है |  कहना न होगा कि इस तरह के प्रकाशन की भी एक सीमा है |

अतः ऐसे में अमरीका की यह एक दशक पुरानी  खबर आज भी यह सोचने के लिए विवश करती है कि पुस्तकों के संरक्षण के लिए यह बहुत जरुरी हो जाता है कि स्थानीय पुस्तकालयों में नियम कानूनों की समीक्षा की जाए और उसे एक अनिवार्य विषय मानकर चिंतन किया जाए जिससे कुछ बेहतर सुझाव सामने आ सकें !!

लेखक -दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *