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ठाकुर प्रसाद मिश्र

Thakur Prasad Mishra

कौन रही सहचरी जगत में, जिसने नहीं प्रिया पद पाया ?

मध्य मार्ग जो संग छोड़ दे, वह कैसे है अपनी छाया ?

कौन मूर्ति है इस दुनिया की, सब के उर अंतर को भाए ?

कौन प्रभा है इस पृथ्वी पर, जग का सारा तमस मिटाए ?

निर्गुण सगुण सत्य शास्वत हैं, चाहे जो जिसको अपनाए ।

निष्ठा से ही अलख निरंजन, पत्थर से ईश्वर बन जाए ।

जीवन की सरिता ही ऐसी, कहीं पे उथली कहीं पे गहरी ।

कहीं बाढ़ की विकट त्रासदी, कहीं कूल के मध्य छरहरी ।

एक अनंत चित्र बहुतेरे, गणक मूक संख्या अतिभार ।

खद्योतों को सूर्य मानकर, जग का चलता है व्यापार ।

पग- पग पर नग्न नृत्य कर सारे सुर बेरंग बनाती ।                                              

वह कैसी गरिमा है अपनी, वह कैसी संस्कृति की  थाती ।

सावन भादों मानव जोड़ी , कहीं पे काला कहीं उजाला।

कहीं पंथ में अमृत मिलता, कहीं हलाहल विष की ज्वाला।

केवल कलित कामना पालें, दूर खड़ा हो कर्म प्रभार।

इसी के बल पर चले जीतने, बाधा मय सारा संसार।

जहां यवनिका हो नैनों पर, मुख में काला नाग बसा हो।

वहां हो कैसे न्याय सुसंगत, मन में केवल स्वार्थ धँसा हो।

इंद्रधनुष के रंग की चुनरि, पहने बैठी प्रकृति चितेरी।

सतत बनाती सतत नशाती, इस जग की आकृति बहु तेरी।

शिव बनकर विषपान करो तो, हर घट अमृत धवल मिलेगा।

सुरभित जगत प्रफुल्लित कानन, पग- पग कोमल कमल खिलेगा।

जीवन की सत्ता क्षणभंगुर, किंतु साध्य तो है अमरासन।

निर्बल भुजा, क्षीण काया से, ब्योम जीतता है अपना मन।

सुख सरवर में अवगाहन हित, प्रेम समर्पण निष्ठा पालो।

निज जीवन के अभिन्दन से, प्रियतम सारा जगत सजा लो।

तृष्णा ही हर पल इस जग को, असंतोष का अमिय पिलाए।

कहीं हाथ में मोती आते, कहीं पे जीवन ही जल जाए‌।

जहां तांडव करती सत्ता, रक्षक स्वयं बधिक बन जाए।

मूक बधिर बन विश्व खड़ा हो, क्यों ना नंदन वन मुरझाए।

निष्ठा बिन संकल्प अधूरा,‌ नहीं समर्पण सम्बल पाए।

तीन शब्द जब त्यागे जग तो, खुद अपना अस्तित्व मिटाए।

कर्महीन बनकर जो जीवन, पर के आगे कर फैलाए।

कहां मिले सम्मान जगत में, किसके ऊर अंतर को भाए ।

जड़ के आगे आज चेतना, नतमस्तक हो हाथ जोड़ती।

अपने उपवन की कालिका को, बिन कारण निज हाथ तोड़ती।

दुरमति का भाई दुर्दिन है, युगल संग में जब भी आते।

पथबोधक वा नीति नियंता, स्वच्छ बसन मैले हो जाते।

अंबर का अनंत नीलापन, हरित धरा को गले लगाए।

दोनों की मिश्रित आभा ही,‌ प्रभु का श्याम वर्ण बन जाए।

प्रतिदिन मानव जिसे नीरखता, पर विचार का समय कहां है?

वह तो आकर्षित होता है, क्रूर ग्रहों का वलय जहां है।

कंचन मृग हो मृग कंचन हो, सदा स्वार्थ से ही अभिसार।

एक ही जीवन कवच है जिसका, सदा भागने का व्यापार।

कौन प्रपंच कल्पना के रच, बहुत दूर तक उड़ पाते हैं।

थके पंख जिस थल पर जाकर, औंधे मुख ही गिर जाते हैं।

जग मंगल कि नहीं कामना, अपना तो कुछ करना सीखो।

पितरों से जो कर्ज लिया है, उसको तो कुछ भरना सीखो।

दूध मुहों से पूछ के देखो, कौन है तेरा कौन है मेरा।

जिनके सिर से उजड़ गया है पितृछॉव ममता का डेरा।

कहीं नियम की है पग बेड़ी, कहीं कुपित है लोकाचार।

आज विमर्शों की दुनिया में, भटक रहा है यह संसार।

प्रेमदीप के उजियारे में, आंखों में संसार बसा लो।

स्वयं समर्पण कर कलिका को, उपवन के सब सुमन खिला लो।

रचनाकार -सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं, 

प्रकाशित हिंदी उपन्यास रद्दी के पन्ने.

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