भीख मांगते हुए हाथImage Source Meta AI

अरुणाकर पाण्डेय

अरुणाकर पाण्डेय

मुझे याद है मैं पिछली बार भागा था भीख मांगते उसके हाथों से जब मैं शॉपिंग करना चाह रहा था जितनी स्थिरता उसकी आखों में थी हाथ में थी और कुछ न मिलने पर उसके आगे बढ़ जाने में थी उससे बहुत अधिक बेचैनी मेरे भीतर उसकी और न देखने में थी मैं उसके बारे में नही जानता था और न ही जानना चाहता थाउसे मेरे बारे में बहुत कुछ पता था जैसे की मैं फोन पर बहुत बाते करता हूँ मैं गाड़ी बहुत अच्छी चलाता हूँ मैं सिगरेट बहुत अदा से पीता हूँ मैं देश दुनिया और लोकैल्टी की पॉलिटिक्स अच्छे से समझता हूँ मैं अक्सर नाश्ता रास्ते में सफर तय करते हुए करता हूँ कि मैं आँख चुराकर महिलाओं या युवतियों का शारीरिक पान करता हूँ और जो अखबार मेरे साथ हमेशा होता है उसकी मुख्य खबर का मुझे कोई ठिकाना नहीं मिलता शायद उसे पता है कि इन सभी और इनके जैसी बहुत सी बातों के साथ मुझे अपनी कमजोरियों को प्रैक्टिस करने की तनख्वाह बराबर मिलती है जिसके सिस्टम में मैं वैसा ही बना रहूँगा जैसा कि अब तक मैं कविता में था और था के अंतहीन होने की एकरूपता सामाजिक स्तर पर एक ऐसी जैविक संरचना में तब्दील होती चली जा रही है इस वक़्त भी लगातार तब्दील होती चली जा रही है कि सारा पंचतत्व दरअसल एक न नापे जा सकने वाली गठरी हो गया है और उसकी अंतर्वस्तु न दिख सकने वाला मवाद है अफ़सोस कि जिसके लिए कोई केमिकल टेस्ट या लैब नहीं बल्कि उसे यूँ उपेक्षित किया जा रहा है कि जैसे वह एक नए ब्रैंड की गाड़ी टेस्ट ड्राईव करने पर फ्री में मिली टी-शर्ट हो जो दो-तीन बार इस्तेमाल करने के बाद किसी परिचित औए मेहनती लड़के को सौंप दी जाती है या फिर शीशे टेबुल इत्यादि पोंछने के काम आती होमेरे और मुझसे भीख मांगने वाले उन हाथों के बीच की जैविकता पर मैं जानता हूँ कि कविता तो क्या एक पूरी किताब लिखी जा सकती है जो लिखी गयीं उनसे हमने करियर और जीवन बना लिया और अब उनके पन्ने भी मिट्टी हवा या पेड़ बनने की प्रक्रिया में रत होंगे और कभी-कभार पंचतत्व की धार्मिकता के कारण हमसे छू जाते होंगे इसलिए मुझे बोध है कि आप के लिए यह मानवता-निर्माण गाड़ी चलाने नाश्ता करने या फिर किसी जगह किसी युवती या महिला के आने के इंतज़ार का समय होगा तो मैं भी यह फटाफट बता कर चल दूँ कि तमाम सिद्धांत व्यस्तता और इतियों के बावजूद हमसे भीख मांगते हुए वे हाथ इतिहास की यात्रा में कभी हमारे ही अपने हाथ रहे होंगे और पंचतत्व के अज्ञेय गड़बड़झाले ने कहीं-कहीं उसे हम बना दिया है जो कागज़ से मांगते हैं

लेखक – दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली में हिंदी के प्राध्यापक है

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