जलियाँवाला बाग की एक सैर
अरुणाकर पाण्डेय
देश की अघिकतर जनता सँकरी गलियों से गुजरती है वे उन्हें उनके घरों तक ले जाती हैं लेकिन फिर
भी वह उस गली से मिट रही है जो जलियाँवाला बाग तक जाती है और उन्हें यह आज भी बता
सकती है कि गली-गली में काल बदल जाता है इतिहास परिवर्तित हो जाता है शासन चुक जाते हैं
पीढ़ियाँ खत्म हो जाती हैं और यदि ध्यान से देखो वह गली वाला रास्ता जिससे जनरल डायर पहुँचा
था भीड़ के ठीक सामने तो तुम्हे उसी से होते हुए पहुँचना है दशकों पीछे और देखना है उस संबंध
को जो जनता और इतिहास के बीच बनता है अपने पूरे वर्तमान के साथ
इस आगमन में हम सबसे पहले पहुँचते हैं उस प्रदर्शनी-कक्ष में जिसमें तस्वीरों से देश पानी पीते
ठिठकता है और जानता है मदनलाल ढींगरा ऊधम सिंह इत्यादि को फिल्मों से इतर
देश ऊधम सिंह और अन्य तस्वीरों के साथ मुस्कुराते हुए फोटो खिंचवाता है और आगे बढ़ जाता है
बिना यह जाने कि हाल बाज़ार के जिस चौक से दरबार साहिब होते हुए वह जलियाँवाला बाग पहुँचा
है उस पर मूर्ति शहीद ऊधम सिंह की ही थी
देश अब उस कुँए पर पहुँच गया है जिसमें डायर की गोलियों से लड़ते हुए जनता कूदी थी वह उस
कुँए की गहरायी अनुमानित करता है और उन लाशों को देखने की कोशिश करता है जो वहाँ नहीं हैं
लेकिन वह फिर भी उन्हें देख ही लेता है जैसे क्राइम रिपोर्टिंग देख रहा हो और यह दिखने पर कि
उसमें श्रद्धापूर्वक अनगिनत सिक्के फेके गए हैं वह लजाते हुए पुण्य-स्मरण करने लगता है और
उसके हाथ उसकी जेब में पहुँच जाते हैं और चढ़ावे के बाद उसे समझ आता है कि इससे गहरे कुँए
तो उसके गली मोहल्लों और गाँवो में होते हैं और देश फिर यहाँ पर जलियाँवाला बाग की गहरायी को
भी पी जाता है
कुँए को पी जाने के बाद देश अब उस दीवार का सामना करता है जिस पर डायर की गोलियाँ जनता
से चुककर धँस गयी थीं और अब वह उसके निशान और धँसान को अपने मन में छिपे हुए गड्ढों से
चुका रहा है देश अपनी उंगली से उन गड्ढों को छू रहा है और उसके भीतर की खाली जगह को नाप
रहा है उसे फिर नहीं समझ आ रहा है कि वह उनका क्या करे तो वह फिर से उनके साथ स्नैप में
फँसता चला जा रहा है इसके बाद जब देश को दीवार के इर्द-गिर्द के घरों में सूखते कपड़े दिखायी देते
हैं तो वह उसकी कीमत अपने इलाके के घरों से कमतर मानता हुआ उस रास्ते पर वापस लौट जाता
है जो और कुछ नहीं बल्कि अन्य बागों की साफ़-सुथरी फोटोकॉपी मात्र है
आप भी कभी जाइये जब जलियाँवाला बाग तो चैन से वहीँ बैठकर लबालब भरे पंजाबी लस्सी का
गिलास लीजिए तब आपको भी वहाँ पहुँचने का यह अर्थ मिल सकता है
कि जलियाँवाला बाग पाकिस्तान नहीं बनने का पुराना चिह्न है
कि जलियाँवाला बाग हिन्दुस्तान नहीं बनने का पुराना चिह्न है
कि जलियाँवाला बाग नहीं बनने देगा खालिस्तान
वह उस दर्द की तरह है जो सबको सबसे बचा लेने का अर्थ व्यक्त करता है
आज जब मैं अपने शहर की गलियों पर ध्यान देता हूँ तो पता चलता है कि वे सब नदी पर समाप्त
होती हैं वो नदी समाप्त हो रही है उस नदी को बचाने के प्रयास समाप्त हो रहे हैं बस उसके किनारे
मजबूत होते चले जा रहे हैं और उसी से पूरी दुनिया में मेरे शहर की छवि बनती है और देश उससे
वैसे ही मिलने आता है जैसे कि वह इस वक्त मौजूद होगा जलियाँवाला बाग में
रचनाकार दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक हैं