रमेश कुमार मिश्र

मैं उन्मुक्त गगन की हूँ मलिका नभ विचरण है अभिसार मेरा.
मैं पुण्य धरा की नवल किशोरी , है प्रकृति पुष्प श्रंगार मेरा.
मैं पुरुष हृदय की लता बेल तन-मन है जिसका सदन मेरा.
घुलकर दिव्याभा में जिसकी शोभित होता नित नूतन यौवन मेरा.
जिसने मुझको नारी समझा उसको दुग्धामृत मिला मेरा.
जिसने समझा चषके प्याला उसको विष ज्वाला मिला मेरा.
ममता हूँ पर माया हूँ मैं सृष्टि शक्ति की काया हूँ.
माँ बहन प्रेमिका मैं, मन सुंदर चरणों की आया हूँ
लेखक – दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी में परास्नातक व हिन्दी परास्नातक पत्रकारिता डिप्लोमा हैं