शेक्सपियर इन बनारस (व्यंग्य)
अरुणाकर पाण्डेय
दुनिया में जादू नाम की एक चीज होती है | इसी के कारण इतिहास ससपेंड हो गया और वह भी ऐन होली के दिन | गोवर्धन सराय में बाबू जयशंकर प्रसाद की महफ़िल सजी हुई थी और उनके चारों ओर सहृदय और अन्य रचनाकार बेसुध बैठे हुए थे और कोई खुद को संभाल नहीं पा रहा था | कारण वही कि विजया अपना रंग चढ़ा चुकी थी | किसी का न तो कोई शब्द सुनायी देता था और वाक्य पूरा हो जाए इतने होश की तो उम्मीद करना खैर बेकार था | सिर्फ प्रसादजी ही चैतन्य थे और पान और भांग का वर्चस्व सर्वोपरि था | ऐसे में प्रसादजी क्या देखते हैं कि कमाल हो गया कि उनके दरवाजे पर साक्षात शेक्सपियर कई रंगों में डूबे हुए खड़े हैं और बहुत सुन्दर मुस्कान उनके चेहरे पर सुशोभित हो रही है | प्रसाद जी ने उन्हें गले लगाया और अपने मन की अभिलाषा व्यक्त करते हुए कहा –
“गुरु !! आज मना मत करियेगा पहिले रेशम का कुर्ता और चुन्नट वाली धोती पहिन लीजिये”
क्योंकि रंग था और जादू था तो आश्चर्य कैसा , शेक्सपियर बनारसी में बोले –
“का गुरु !! इहो कहे क बात बा, जईसन तू कहा” और पलक झपकते उनका बाना बदल गया | प्रसादजी ने मारे प्रसन्नता के उनके तरफ पान बढाते हुए कहा –“स्वागत है ,वैसे भी तो दुनिया रंगमंच ही है गुरु !!”
लेकिन शेक्सपियर ने पान नहीं लिया और स्वतः विजया की ओर बढ़ गए | यह देखकर प्रसादजी के मुख पर थोड़ी चिंता की रेखा खिंच आई तो हँसते हुए शेक्सपियर ने कहा –
“आप के चेहरे पर विश्व वन की व्याली तनिक भी उचित नहीं ठहरती, अइसन करा ई पनवा तू खा ल| एतना समझदारी आज ठीक नाहीं हौ |तनी यौवन के चढ़े द यार !”…. और यह कहकर वे उसे सटक गए |
इधर प्रसादजी को समझ आ गया था कि अब शेक्सपियर ओरिजनली बनारसी हो गए हैं और अब साहित्य का यह आर्किटेक्ट इस हद तक बऊरा चुका है कि जब वापस चेम्बर्लेन्स मेन पहुंचेगा तो वह ड्रामा कम्पनी बनारसी भूतों की बरात में तब्दील हो चुकी होगी | उनका सारा लिखा हुआ बनारसी पान के रंग में डूबा हुआ प्रतीत होने लगेगा और इसका मुख्य कारण कहीं लोग उन्हें स्वयं यानी प्रसादजी को ही न बताने लग जाएँ | वे यह सब सोच ही रहे थे कि तभी शेक्सपियर झूलते हुए बोले –
“ए प्रसादजी ! तोहार गुण्डा नन्हकू सिंह कहाँ हउवन ?”
प्रसाद जी जैसे बची-खुची तन्द्रा से जागे और बोले – “कहीं घाट के किनारे रियाज मार रहे होंगे | क्या हो गया भईया ?” यह कहते हुए उनके चेहरे पर आश्चर्य घर कर गया था और वे शेक्सपियर के जवाब जानने के लिए इस आशंका से आतुर हो उठे थे कि कहीं जूलियट को नन्हकू सिंह के बारे में पता तो नही चल गया होगा !!
लेकिन शेक्सपियर कुछ देर तक खामोश रहे …….. फिर थोड़ा सकपकाते हुए जैसे उनके मन की बात समझते हुए बोले – “नहीं, जूलियटवा ठीक है और यहाँ आकर प्रसन्न है लेकिन ……”
प्रसाद जी धक् होकर रह गए फिर किसी तरह बोले “लेकिन क्या गुरु !!”
शेक्सपियर थोडा खुद को संभालते हुए बोले – “यार वो रोमियो का कुछ पता ठिकाना नहीं लग रहा है | सुबह-सुबह जूलियट के साथ रामनगर के किले की तरफ गए थे | फिर उन्हें बाबू नन्हकू सिंह मिल गए और वे जूलियट को मेरे पास वापिस भेज कर उनके साथ बनारस की सैर पर निकल गए…..… उसके बाद से अब तक उनका कुछ पता नहीं है| कहीं ऐसा न हो कि नन्हकू सिंह ने उन्हें अंग्रेज सिपाही समझ कर ठिकाने लगा दिया हो !! यदि अइसन हो गईल त बिना प्रसंग के ट्रेजेडी हो जाई |”
अब प्रसादजी सारा माजरा समझ गए | वे बिना देर किये शेक्सपियर को साथ लिए सीधे दशाश्वमेध घाट के लिए चल दिए | रास्ते में राम भंडार और बाबा ठंढाई की दूकाने आईं तो कई बार दोनों की आँखें लोभवश टकराई लेकिन क्योंकि संसार के एक बहुत बड़े पात्र का जीवन संकट में था और दोनों को बाबू नन्हकू सिंह के बल का ज्ञान था, इसीलिये वे किसी तरह खुद को सँभालते हुए घाट पर पहुँचे | होली के कारण अधिकतर नावें किनारे ही लगी हुईं थी लेकिन फिर भी प्रसादजी को बहुत दूर एक डोंगी बहती हुई नजर आई | उसके प्रभामंडल से ही दोनों को समझ आ गया कि ट्रेजेडी उसी के भीतर व्यतीत हुई है | प्रसादजी ने बिना एक पल की देरी करते हुए एक नाविक से कहा –
“भईया, आज चाहे कुछ हो जाए हमके कउनो भुलावा मत दे दिया हो ! आज गंगा के बीचोबीच, निर्जन में कउनो निश्छल वीर-कथा घट गईल त साहित्य क प्रतिमान बदल जाई |” यह कहते हुए उन्होंने शेक्सपियर की तरफ सहानुभूति से देखा और चुप हो गए |
इतने में शेक्सपियर ने उन्हें गंभीरता से देखते हुए कहा – “अच्छा भइल गुरु तू अपने नाविक क कउनो नाम नाहीं रखला, नाही त ओके जोहे में बहुत देर हो जात | वैसे भी व्हाट्स देयर इन अ नेम ?”
संवाद का आखिरी हिस्सा सुनकर प्रसादजी को समझ आ गया कि जादू का असर अब धीरे-धीरे खत्म होने वाला है क्योंकि शेक्सपियर अब फिर से अंग्रेज़ी की तरफ लौटते दिख रहे हैं | लेकिन उनकी यह चिंता बनी हुई थी कि रोमियो सुरक्षित है या नहीं !
इधर नाविक को यह समझ आ गया था कि आज उसे प्रसादजी के लिए नहीं बल्कि शेक्सपियर के लिए नाँव खेनी है | वह बहुत जल्दी ही उस डोंगी के समीप पहुँच गया जिसमें दोनों के होने की आशंका थी |शेक्सपियर और प्रसाद जी बहुत त्वरित गति से भीतर गए तो आश्चर्य और खुशी के मारे उनका ठिकाना न रहा ! क्या देखते हैं कि डोंगी के भीतर रोमियो और जूलियट तथा पन्ना और नन्हकू सिंह पूरे मन से होली खेल रहे हैं और गा बजा रहे हैं |आज वहाँ कोई दुश्मन नहीं था न कोई अड़चन थी जैसे सभी चरित्र अपनी कथा से विद्रोह करके बनारसीपन जी रहे हों |
इसके बाद इतिहास का सस्पेंशन रद्द होने की अफवाहें फैलने लगीं और यह घटना यहीं समाप्त हो गयी लेकिन चलते-चलते यह भी बता दिया जाय कि उसी समय दूर घाट से बाबा कबीरदास की वाणी में एक उलटबाँसी “एक अचंभा देखा रे भाई …” गाई जा रही थी जिसके मुख्य श्रोता वर्ड्सवर्थ साहब थे | वास्तव में रोमांटिसिज्म का साहित्य रचने के कारण प्रसादजी की यह घटना उनके साथ होनी थी, लेकिन वे धीरे-धीरे गुरुत्व को प्राप्त हो गए थे और उन्हें कबीरदास के साथ थोड़ी देर में मगहर के लिए निकलना था |
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं