भारतेंदु विशेष
रमेश कुमार मिश्र
उत्तर प्रदेश के काशी में 9 सितंबर 1850 को जन्मे भारतेंदु हरिश्चन्द्र का साहित्यक योगदान सदैव स्तुत्य है. कम समय के जीवन में बड़े कार्यों का संपादन भारतेंदु हरिश्चन्द्र की विलक्षण प्रतिभा का प्रमाण है. कुल मात्र 34 वर्ष की उम्र में लगभग 200 से अधिक रचनाओं का प्रणयन उनकी प्रखर बुद्धि का दर्पण है. प्रखर पत्रकार, युगचिंतक लेखक भारतेंदु ने हिंदी की सभी विधाओं में लेखन करके अपने बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिया. महज पांच वर्ष की उम्र में माँ का और 10 वर्ष की उम्र में पिता का निधन इन्हें नितांत अकेला कर गया.
लेकिन विकट परिस्थिति से प्रेरणा लेते हुए भारतेंदु जी ने लेखनी चलायी तो उस काल में एक नया अध्याय जोड़ दिए. और वह काल भारतेंदु युग की संज्ञा से अभिहित हुआ , और स्वयं वे भारतेंदु उपाधि के साथ आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह रूप में स्थापित हो गये. ब्रिटिशटिश शासन काल में भारतीय संस्कृति को मटियामेट करने की हो रही कोशिशें भारतेंदु हरिश्चन्द्र को अंदर तक झकझोर कर रख देतीं थीं. यद्यपि भारतेंदु हरिश्चन्द्र का परिवार अंग्रेजी राज का राजभक्त था परन्तु भारतेंदु ने अलग ही धारा चलायी और घोषणा कर दिए कि जिस धन ने मेरे पूर्वजों को खाया है अब मैं उसे खाऊंगा. और उस धन को हिंदी संवर्धन के लिए पानी की तरह बहाया.
इसके लिए उन्होंने राष्ट्रीय पर सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक आंदोलन का माध्यम भाषा को माना. जैसा कि हम जानते हैं कि किसी भी राष्ट्र की अभिव्यक्ति बहुत कुछ उसकी भाषा पर निर्भर करती है तो इसलिए ही उन्होंने तत्कालीन समाज में बढ़ रहे फारसी के माध्यम से उर्दू और ब्रिटिश शासन की वजह से अंग्रेजी के सामने हिंदी को खड़ा कर मुहिम चलायी जिसमें उनकी लेखक मंडली के लेखक बालकृष्ण भट्ट प्रतापनारायण मिश्र राधाचरण गोस्वामी श्री निवास दास आदि उद्भट विद्वानों ने उनका खूब साथ दिया. और राष्ट्रीय जागरण को लोक जागरण से जोड़ने में स्थानीय भाषा का सहयोग लिया. स्थानीय भाषाओं की लोकोक्तियाँ मुहावरे गीत छंद आदि का प्रयोग कर संदेश की संप्रेषणीयता को सहज कर दिया. भारतेंदु किसी राष्ट्र की उन्नति के लिए उसकी अपनी भाषा के पक्षपाती थे तभी तो लिखते हैं कि ” निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल बिन निज भाषा ज्ञान के मिटै न हिय का शूल ” वस्तुतः भारतेंदु के प्रयास से हिंदी लेखन में परिवर्तन की बयार बही अब साहित्य राजघराने से निकलकर आम आदमी की बात करने लगा. और उसमें हो रहे नवीन परिवर्तन से सामाजिक कुरीतियों यथा बाल विवाह, विधवा विवाह , अनमेल विवाह छुआ छूत ऊंच नीच पर हिंदी के साहित्यकारों की लेखनी चल पड़ी.
भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने राष्ट्रीय जागरण को लोक जागरण के साथ जोड़कर लोक जागरण के लिए लोकभाषा को जरूरी समझा. हालांकि भारतेंदु ने खड़ी बोली को अपनाया ही नहीं बल्कि एक प्रकार से देखा जाए तो उसको हमेशा के लिए नया व्यक्तित्व और उसे निजी अस्तित्व प्रदान किया. इसलिए यह कहना गलत न हुआ कि “हिंदी नयी चाल में ढ़ली “
भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने पद्य प्रणयन ब्रजभाषा में किया तो गद्य के लिए खड़ी बोली को चुना.और इसमें जो सबसे बड़ी बात है कि उनकी लेखक मंडली ने भी इसमें इनका बढ़- चढ़ कर साथ दिया.
बालमुकुंद गुप्त तो भारतेंदु के लेखन को तेज और प्रखर बताते हैं तो वहीं प्रसिद्ध समीक्षक डा. रामविलास शर्मा इनका पुनर्मूल्यांकन करके उन्हें हिंदी नवजागरण और प्रगतिशील चेतना से जोड़ते हुए लिखते हैं कि “” भारतेंदु ने साहित्यक हिंदी को संवारा, साहित्य के साथ नये आंदोलन को जन्म दिया, हिंदी साहित्य में राष्ट्रीय और जनवादी तत्वों को प्रतिष्ठित किया.”
वे आगे कहते हैं कि “भारतेंदु हरिश्चन्द्र का यह युगांतकारी महत्व है कि उन्होंने अपने प्रदेश की सांस्कृतिक आवश्यकताओं को पहचाना”
परवर्ती लेखक चाहे प्रेमचंद के उपन्यासों में यथार्थवाद की बात हो या निराला के काव्य में प्रगतिशीलता की समीक्षक मानते हैं कि इसका सूत्र पात्र तो भारतेंदु ने ही कर दिया था.
भाषा साहित्य समाज राष्ट्र धर्म कला संस्कृति के समग्र आंदोलन को भारतेंदु ने अनेक स्तरों पर सम्पादित कर सम्पन्न किया. पत्रकारिता को राष्ट्रीय उत्थान और सामाजिक चेतना का माध्यम मानते हुए भारतेंदु ने कविवचन सुधा, हरिश्चन्द्र मैगज़ीन और बालबोधिनी पत्रिका निकाला जो कि भारतेंदु युग की दर्पण कही जाती हैं. ये पत्रिकाएं एक तरफ जहाँ जन चेतना साहित्यक संस्कार और नये लेखकों को प्रोत्साहित करती नजर आयीं तो दूसरी तरफ वहीं भाषा का परिमार्जन भी किया. इन पत्रिकाओं ने स्वाधीनता की पत्रकारिता को सोद्देश्य और निडर पत्रकारिता को पूर्ण आजादी के साथ स्थापित कर दिया. भारतेंदु ने स्वयं “हरिश्चन्द्र मैगज़ीन” को स्वयं भारतेंदु ने नयी हिंदी का आरंभ कहा है .”
बालबोधिनी वस्तुतः नारी उत्थान की दिशा में क्रांतिकारी उद्देश्य लेकर उपस्थित हुई . नारी शिक्षा, नारी अस्तित्व नारी शक्ति जिसके केंद्र में रहा .वे लिखते भी हैं” नर नारी सम होहिं” नील देवी नाटक में हम नारी व्यक्तित्व संबंधी भारतेंदु जी की धारणा को देखा जा सकता है.
भारतेंदु ने एक तरफ जहाँ हिंदी साहित्य में तमाम तरह के परिवर्तन को लेकर आए तो दूसरी तरफ उन्होंने रंगमंच की स्थापना से क्रांतिकारी परिवर्तन किया. आधुनिक हिंदी रंगमंच के जनक भारतेंदु ने इसे फारसी और अंग्रेज़ी थिएटर से बचाते हुए विशुद्ध भारतीय रंगमंच बनाए रखने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी.
भारतेंदु जी ने साहित्य पत्रकार और नाटक के अलावा काव्य समाज तदीय समाज और सार्वजनिक सभा जैसी संस्थाओं की स्थीत भी किए. इसलिए भारतेंदु का योगदान साहित्यक और सामाजिक दोनों तरह का है वे जनता के बीच गये जनता के सुख दुःख को समझे गरीबी को करीब से देखा और जो निरक्षरता का आलम था उससे चिंतित होकर उन्होंने एक तरफ जहाँ शिक्षा की वकालत की तो वहीं दूसरी तरफ उन्होंने भाषा के साथ लोगों को जोड़कर मुख्य धारा में शामिल करने का प्रयास भी किया.भारतेंदु हरिश्चन्द्र का सारा का सारा प्रयास राष्ट्रीयता को समर्पित रहा. जिसके लिए उन्होंने बिभिन्न माध्यम अपनाए.
नाटक की बात करें तो जब वे अपनी मात्र 15 वर्ष की अवस्था में सपरिवार जगन्नाथ धाम की यात्रा पर गये तो बंगाल की साहित्यक गतिविधियों से दो चार हुए. वहाँ के साहित्य से प्रभावित हुए और नये कलेवर की साहित्य रचना ने उन्हें प्रेरित कर डाला. भ्रमण से वापस आए तो पुरानी घिसीपिटी- परिपाटी को छोड़ नये परिवर्तन की राह पकड़ प्रथम बंगला नाटक विद्यासुंदर का अनुवाद किया. मौलिक और अनूदित कुल 17 नाटक आपकी रचना के हिस्सा हैं- कुछ के नाम अग्रलिखित हैं –
बंगला रूपांतरित- विद्यासुंदर ,संस्कृत से – सत्य हरिश्चन्द्र ,वैदिकी हिंसा हिंसा श्री भवति.,प्रेमजोगिनी ,विषस्र विषमौषधम्चंद्रावली, भारत -दुर्दशा , नील देवी, अंधेर नगरी, सती प्रताप,(अनूदित) – रत्नावली ,पाखंड विडम्बन कृष्ण दत्त मिश्र कृत प्रबोधचंद्रोदय नाटक के तृतीय अंक का अनुवाद.धनंजय विजय व्यायोग, कांचन कवि कृत संस्कृत नाटक का अनुवाद .मुद्राराक्षस विशाखदत्त के संस्कृत नाटक का अनुवाद.कर्पूरमंजरी सट्टक राजशेखर कवि कृत प्राकृत नाटक का अनुवाद दुर्लभ बंधु विलियम शेक्सपियर के नाटक मर्चेंट आफ वेनिस का अनुवाद निबंध की बात करें तो -भायतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है . एक अद्भुत अपूर्व स्वप्न ,नाटकों का इतिहास,रामायण का समय काशी मणिकर्णिका कश्मीर कुसुम बादशाह दर्पण संगीत सार ,उदयपुरोदय ,वैष्णवता और भारत वर्ष ,तदीयसर्वस्व , सूर्योदय ,वसंत,ईश्वर बड़ा विलक्षण ,ग्रीष्म ऋतु ,वर्षा काल ,बद्रीनाथ की यात्रा ,आत्मकथा -कुछ आप बीती कुछ जग बीती आदि अनेक रचनाओं का प्रणयन आपकी लेखनी से हुआ.
मूल्यहीनता, संवेदनहीनता ,नैतिक पतन अविवेकपूर्ण राज्य संचालन अपराधी- निरपराधी में भेद न करना किसी भी राजतंत्र का फेल्योर है. भारतेंदु ने अंधेर नगरी नाटक में पाचकवाले की पंक्तियाँ महाजन एडीटर नाटक वाले बनिया पुलिस वाले साहब सब पर तीखा प्रहार करती है. भारतेंदु की ए पंक्तियाँ ब्रिटिश शासन तंत्र तक ही सिमित नहीं है. बल्कि अनेक बुराइयों पर प्रहार करती हैं—
चूरन साहब लोग जो खाता
सारा हिंद हजम कर जाता.
आज की परिस्थितियां भी कम ज्यादा वैसी हैं.ब्रिटिश शासन तो जा चुका है लेकिन कुछ अपनी मानसिकता का बीज बोकर गया हुआ है . भ्रष्टाचार के आकंठ में अधिकांश लोग डूबे हुए हैं. हर भ्रष्ट दूसरे को भ्रष्ट बताने की जुगत में लगा है. या बात न बने तो चोर – चोर मौसेरे भाई की भूमिका में हो लेते हैं.
अमानवीयता आडम्बर खोखलापन हल्कापन यह सब किसी भी भ्रष्ट व्यवस्था का द्योतक है.
भारतेंदु ने इसके बरख्श मुहिम चलाकर हिंदी को समस्त आंदोलनों का माधयम माना और हिंदी नयी चाल में चली मतलब पुनर्जागरण का बिगुल बजा और स्वचेतना का जागरण जन जागरण में तब्दील होने लगा और फिर एक नया अध्याय नया युग आंदोलित हो उठा. राष्ट्र प्रेमी का राष्ट्र प्रेम हर अमानवीय और भ्रष्ट मोर्चे पर लड़ा.