अरुणाकर पाण्डेय
नई आवश्यकताओं और नए माध्यमों ने हमेशा भाषा को नए रूप देने में अग्रणी भूमिका निभाई है
|जब बहुत सरल स्तर पर भाषा केवल संपर्क का काम करती थी तो भावों और विचारों के संवाहक के
रूप में वह सीमित किन्तु महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी |लेकिन जैसे-जैसे सभ्यता का विकास होता
चला गया वैसे-वैसे वह न केवल साहित्य का माध्यम बनने लगी बल्कि व्यापार और शिक्षण जैसी
जरूरतों के लिए भी अपना स्वरुप विकसित करने लगी |इस प्रक्रिया में कुछ भषाएँ जैसे अंग्रेज़ी और
जापानी नए धरातल पर सशक्त होते चले गए तो संस्कृत जैसी विशाल भाषाएँ धीरे-धीरे व्यवहार से
गतिहीनता की ओर बढ़ने लगीं |आज जब प्रौद्योगिकी ने भाषाओं के अस्तित्व के लिए नए निकष
सामने रख दिए हैं तो फिर एक बड़ी चुनौती समस्त भाषाओं के सामने आ गयी है |
उदारवाद के दौर में माध्यमों ने अपने लिए नयी
हिंदी गढ़ी जिसमें परोक्ष और कहीं-कहीं प्रत्यक्ष रूप से यह घोषणा थी कि उसे पाराम्परिक हिंदी की
कोई आवश्यकता नहीं है और वह अपने जरूरतों के आधार पर अपनी हिंदी बनायेगी |वस्तुतः हुआ भी
ऐसा ही क्योंकि भाषा के जितने प्रतिष्ठित उपयोग थे धीरे-धीरे वे अति-नाटकीय लगने लगे और जो
पारंपरिक स्वरुप थे वे स्कूल के पाठ्यक्रमों में नम्बर बनाने की जरुरत तक सिमटने लगे और यदि
उनके लिए कोई जगह इस नए वातावरण में बची भी थी तो वह पौराणिक, मिथकीय और ऐतिहासक
सीरियल या फिल्मों के अनुसार स्वाभाविक लगती थी |जो चरित्र शुद्ध हिंदी या अन्य भारतीय
भाषाओं के साथ दिखते भी थे, वे अधिकतर उपहास का पात्र ही होते थे, कभी उन्हें कोई गंभीर जगह
या महत्वपूर्ण भूमिका नहीं मिलती थी |इसके अलावा यदि हिंदी की कहीं कोई गंभीर सुनवाई हो
सकती थी तो वह भारत सरकार और उसके मंत्रालय थे, स्वयंसेवी संस्थाएँ थीं, कुछ प्रकाशक थे और
एक बड़ी शक्ति के रूप में विश्वविद्यालय भी थे |लेकिन सच पूछा जाए तो यह प्रश्न उठता है कि
जब भारत में उदारीकरण की नयी नीति लागू हो रही थी तो ठीक उस समय ये जितने भी संस्थाएँ
या व्यक्तित्व थे उन्होंने इस दौर में हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के लिए क्या तैयारी की !! यह
तो दिखता है कि इनके पास पुरानी चली आती हुयी आवश्यकताओं के अनुसार सशक्त परम्पराएँ थीं,
लेकिन इस नयी चुनौती के सांस्कृतिक और भाषिक परिवर्तनों के अध्ययन और उसके साथ बड़ी
रणनीतियों पर उसने कोई ठोस काम शायद नहीं किया |अन्य शब्दों में कहें तो उसे यह आभास भी
नहीं था कि यह जो नई दुनिया बन रही है वह उसे ही उसके अपनों के बीच संदिग्ध बना देगी | यह
एक अकल्पनीय स्थति थी | सिनेमा और मीडिया ने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को अपने
अनुसार परिवर्तित कर नई तरह की जनता के बीच विश्वसनीय बना लिया था लेकिन ये पारम्परिक
संस्थाएँ अपनी मूल धारणाओं के अनुरूप ही चलते रहे | न तो उसके पास संरक्षण के लिए पुराने
तरह के नेता रह गए जो उसे सारे देश की आवाज़ मानते थे और न ही किसी अर्थशास्त्री या
समाजशास्त्री ने उसे बहुत महत्व दिया | यह भी एक ठोस कारण हो सकता है कि हिंदी और अन्य
भारतीय भाषा के ये लोग उदारीकरण के उस शुरुआती दौर को नहीं समझ पाए हों और व्यावहारिक
स्तर पर नयी जन्सांख्य्कीयता का अनुमान ही न रहा हो | इन बातों में अंतर्विरोध हो सकते हैं
लेकिन यह तो स्पष्ट दिखता है कि उस दौर में भाषा और नागरिक के नए उभरते हुये संबंधों को
जानने और उसके अनुसार कार्य करने में कोई चूक हुयी है |उस दौर में हिंदी या भारतीय भाषा का
कोई अध्यापक, पत्रकार या प्रेमी कभी कोई नायकत्व प्राप्त करता हुआ नहीं दिखता बल्कि उलटे
माध्यम उसका उपयोग हास्य निर्मित करने के लिए कर रहे हैं| धीरे-धीरे हास्य का यह भाव कहीं-कहीं
घृणा में भी बदलता हुआ दिखने लगा लेकिन इसके लिए कोई बड़ा प्रतिरोध नहीं दिखता |कहा जा
सकता है कि वी.शांताराम की फिल्मों का नायक अब विदूषक बनने लायक भी न रह गया बल्कि वह
विदूषकों को सफल बनाने का एक अदना सा विषय स्वयं बन कर रह गया |यदि वह इस स्थिति को
पहचान लेता तो जापान और ब्रिटेन की तरह उसकी भाषा भी समागम का माध्यम हो सकती थी
|उसके पास भी अपने मौलिक अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, या सॉफ्टवेयर इंजिनीयर हो सकते थे |
लेकिन इधर कुछ वर्षों में स्थिति पहले से
बेहतर हुयी है क्योंकि इस व्यक्तित्व ने सोशल-मीडिया पर अपनी पहचान बनाई है | हिंदी दिखती
है,पढ़ी जाती है और लिखी जाती है | लेकिन इसके साथ ही यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि अब भी
उसके पास कोई रणनीति नहीं दिखती या हिंदी में लिखने वाले लोगों के साथ उदारीकरण के लागू
होने वाले दौर में दूरी बनाये वाले व्यक्तित्व हिंदी में उससे संप्रेषण करने के बहुत इच्छुक नहीं दिखते
और अत्यंत साधारण या मध्य वर्ग के लोग हिंदी व्यक्तित्व से एक तयशुदा सांस्कृतिक दूरी बनाये
रखते हैं | इसका एक सशक्त प्रमाण यह है कि ये लोग चेतन भगत के साहित्य को तो अपनी बैठकी
में रखने में शान समझते हैं लेकिन उन अनीता देसाई को जानते तक नहीं जो हिंदी के अध्यापक को
अपने उपन्यास ‘इन कस्टडी’ का प्रमुख चरित्र बनाती हैं और उसके माध्यम से उर्दू की नष्ट होती
परम्परा की ओर ध्यान आकर्षित करती है |
आज हिंदी के जो भी हितैषी हैं या उसके
प्रचारक हैं उन्हें इस प्रश्न पर पूरे मनोयोग से चिंतन करने की आवश्यकता है कि व्यक्तित्व के प्रति
अविश्वसनीयता या उदासीनता का जो माहौल बनाया गया है अथवा स्वयं बना है उसके प्रति हमारा
क्या रुख है | हिंदी का उपयोग युग के अनुकूल कम नहीं है लेकिन हिंदी के प्रचार के स्वरूप पर
विचार करना एक जरुरी बात लगती है | आशा है कि पाठकगण इस ओर ध्यान अवश्य देंगे जिससे
नयी आवश्यकताओं के अनुसार नयी दुनिया में हिंदी के लोगों की आत्म-निर्भरता बढ़ सके |हाँ, इसमें
यह अवश्य सोचना है कि सह-अस्तित्व और बहुसांस्कृतिकता की ख़ूबसूरती और परम्परा बनी रहे |
यह लेख ऐसे ही पं. सुधाकर पाण्डेय को समर्पित है जो वाणिज्य के अध्यापक होते हुए न केवल हिंदी
के उपासक हुए बल्कि नागरीप्रचारिणी सभा को विकसित करने में बड़ी भूमिका भी निभाई |
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं
हिंदी पर हमें ध्यान देने की बहुत आवश्यकता है।।