जियो ऐसे की तुम खेल रहे हो
अरुणाकर पाण्डेय
जियो ऐसे की तुम खेल रहे हो
अवसर आएंगे और जाएंगे
कभी हताशा में डूबोगे
तो फिर उत्साह की बयार भी बहेगी
कभी लगेगा कि और बेहतर खेला जा सकता था
तो कभी अहसास होगा कि
हम इतने बेहतरीन कैसे खेले
कभी लगेगा कि बस अब खेल खत्म हुआ और सब बीत गया
तो कभी एक नई यात्रा दिखेगी
एक अज्ञात दरवाजे के अचानक खुलने से
कभी जीता हुआ बीत जाएगा और कभी एक बाजी की कारीगरी
लोगों को याद दिला देगी तुम्हारी उपलब्धियाँ
बस खेलो कि तुम
खेलते रहने ही से पा सकते हो एक मंजिल
जब लगेगा कि खेल बीत रहा है
फिर खेलो कि एक नया खेल
बढ़ेगा तुम्हारी ओर
क्योंकि खेल को सिर्फ खिलाड़ी
चाहिए
रचनाकार दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक हैं