असंतोषImage Source meta Ai

ठाकुर प्रसाद मिश्र

Thakur Prasad Mishra

शांत सुस्थिर जन मानस में उठती आज हिलोरें ।

कांप रहे स्तंभ गगन के अवनि खडी कर जोरे ।।

युग-युग से वाडव की ज्वाला सागर छाती दहती ।

ज्वाला मुखी सुलग हर उर में नई कहानी कहती ।।

अंबु जलाता नित-निजत्व को पर आश्रित सुख देता ।

 स्वाति नक्षत्र सुधा पद देकर हृदय पपीहा लेता ।।

किंतु सुलगती जन उर ज्वाला किसे ताप पहुंचाए ।

निरुद्देश्य हो होम कौन वह किसको क्षार बनाए।।

सहमी सिकुडी आज प्रकृति भी त्याग रही निज बाना ।

नहीं सुनिश्चित है अब जग में रितु का आना-जाना ।।

असंतोष का प्रबल प्रभंजन ले विनाश की सत्ता ।

ग्रसने चला है क्षितिज क्षोर से जग की सब गुणवत्ता ।।

कब मिट जाए इंद्र धनुष यह श्याम घटा से लडकर ।

कब बुझ जाए जीवन दीपक चक्रवात में पडकर ।।

नियति नटी का अनृत प्रलोभन जग को मूर्ख बनाता ।

य़था नाद के वशीभूत मृग निज ग्रीवा कटवाता ।।

कहां मिलेगा थल अब पद को तन को सुलभ बसेरा ।

ईश्वर ही जाने आएगा पिर क्या नवल सवेरा ।।

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