ठाकुरप्रसाद मिश्र
शास्त्र मत के अनुसार इस सृष्टि के अभ्युदय काल में जो पहला नगर बसा वह कोई सामान्य नगर नहीं था, और न ही उसे बसाने के लिए पृथ्वी से कोई सामग्री ली गयी थी । सृष्टि प्रारंभ करने के लिए भगवान ब्रह्मा ने परामात्मा श्री हरि का यजन कर उनकी कृपा से शक्ति प्राप्त कर साकेत धाम से ही बना सजा संवरा सुंदर धाम पृथ्वी पर लाकर स्थापित किया था । इस नगर की शोभा अप्रतिम थी । यह अत्यंत तेजोमय नगर हर तरह से अभेद्य और अजेय था । अतः इसका नाम अयोध्या रखा गया । …अयोधते या सा अयोध्या …
इस नगर में बसने वाले चारों वर्णों के लोग भी लाखों की संख्या में साकेत धाम से ही आये थे । जिसमें ब्राहम्णों की प्रधानता थी।
मैथुनी सृष्टि के प्रारंभ के लिए भगवान ब्रह्मा ने अपने मानस पुत्र महाराज वैवस्वत मनु एवं सतरूपा जी को इस नगर का राजा एवं राजमहसी बनाया । क्योंकि मैथुनी सृष्टि महाराज से मनु से ही प्रारंभ हुई थी। अतः इस पृथ्वी पर विकास करने वाली प्रजा मनुष्य कहलायी । महाराज मनु का प्रताप तीनों लोकों में व्याप्त था । ज्यो-ज्यों उनके पुत्र उत्पन्न होते गये त्यों -त्यों उनको पृथ्वी पर अपना नगर बसा कर प्रजा उत्पन्न कर और उनके पालन का आदेश दिया । उनके बडे पुत्र परम य़शस्वी परम तपी, परम उदार एवं परम धर्मात्मा महाराज इक्ष्वाकु हुए । जिनके द्वारा पृथ्वी पर प्रजा का भोग विस्तार हुआ । ब्रह्मा जी की कृपा से पृथ्वी धन-धान्य से परिपूर्ण थी। धर्मात्मा राजा एवं विविध प्रकार की उपलब्धियों के कारण प्रजा अत्यंत सुखी थी । उन्हीं की वंश परंपरा में अनेक य़शस्वी एवं पौरुषवान राजा हुए, जिन्होंने उचित ढंग से धर्म पूर्वक प्रजा का पालन किया । उनकी आगे की पीढी में महाराज दिलीप के पुत्र महाराज रघु हुए । जिनके य़श एवं प्रताप के आगे उस समय तक पृथ्वी पर सारे उत्पन्न हुए राजा गण एवं योद्धा श्री हीन थे। यहां तक की महर्षि पुलस्ति कुलभूषण समस्त वेदवेदांगों का ज्ञाता एवं वीरता की अमिट छाप से त्रैलोक्य को पराभूत करने वाला लंकाधिपति रावण भी भय खाता था ।
महाराज रघु के प्रताप की एक गाथा प्रचलित है,कि एक बार रावण अयोध्या को न जीत पाने के आमर्ष्य से भरकर महाराज रघु से य़ुद्ध की कामना लेकर अयेध्या में आया । उस समय उद्यान में महाराज रघु परमात्मा की उपासना मे लगे हुए थे ।अतः सेवकों ने रावण से कहा कि आप महाराज के पूजा से निवृत होने के बाद ही महाराज से मिलकर अपनी कामना प्रस्तुत कर सकते हैं । तथा कुछ दूरी पर बैठकर प्रतीक्षा करने के लिए उसे उचित आसन दिया । वहां बैठकर लंकापति रावण महाराज रघु की पूजा पद्धति पर दृष्ट् जमाए बैठा था । उसी समय उसने देखा कि महाराज रघु ने हाथ में जल ले करके बडे वेग से उसे उत्तर दिशा मे फेंका और पुनः शांत मन से पूजा में लग गये । पूजा के उपरांत जब महाराज उठे तो उनकी दृष्टि प्रतीक्षारत लंकेस रावण पर पडी । उसे देखकर अत्यंत प्रसन्ता पूर्वक प्रणाम करते हुए महाराज रघु ने कहा हे द्विज श्रेष्ठ मपापौरुष के धनी लंकेश आज आप हमारे पुर में आकर हमें कृतार्थ किया इसलि हम आपका कोटिशः साधुवाद करते हैं । और उसके बाद उचित अर्घय-पाद से रावण का पूजन कर उसे अत्यंत मधुर शब्द में बोले हे लंकेश मुझे अब आप अपना यहां आकर मुझे अनुग्रहीत करने का कारण बताएं । रावण बोला हे काकुस्थ कुल भूषण महाराज रघु मैंने आपके प्रताप के बारे बहुत कुछ सुना है, और यह भी सुना है कि पिता की अश्वमेध यज्ञ को पूर्ण कराने के लिए आपने देवराज इंद्र से युद्ध कर उन्हें एक मास तक अयोध्या में बांध रखा था । इसी बलाबल के परिचय के हेतु मैं आपसे युद्ध करने की कामना लेकर अयोध्या आया हूं । आप पूजा में रत रहकर अतः मैं बैठकर आपकी पूजा पद्धति को निहार रहा था । आपकी पूजा पद्धति को देखकर मेरे मन में एक प्रश्न खडा हो गया है ।
मैंने सभी वेद शास्त्रों का अध्ययन किया है । और संपूर्ण प्रकार के यजन और पूजा पद्धतियों को भी जानता हूं । जितनी मेरी जानकारी है उसमें किसी भी पद्धति में हाथ में जल लेकर उत्तर दिशा में फेंकने का कोई विधान नहीं है । अतः यह कौन सी पूजा पद्धति है । किस धर्मशास्र में इसका वर्णन है कृपया मेरी जिज्ञासा का उत्तर देकर मुझे संतुष्ट करें ।
रावण के इस प्रश्न को सुनकर महाराज रघु बोले हे लंकेश मैं हिमालय तक की पृथ्वी का अधिपति हूं । किसी भी पूजा आराधना से बढकर अपने राज्य क्षेत्र में रहने वाले संपूर्ण प्राणियों की सुरक्षा करना मेरा प्रण धर्म है । जिस समय में पूजा कर रहा था । समय एक कपिला गाय हिमालय के पाद प्रदेश में अन्य गायों के साथ चर रही थी । उस पर एक हिंसक सिंह ने उसी समय उस पर आक्रमण करके या उसके गले को दबोच लिय़ा । वह गऊ पीडा से छटपटायी और महाराज रघु मेरी रक्षा करो यह कहकर वह गऊ चीख रही थी । अतः मैंने जल विंदुओं द्वारा उस सिंह का वध करके उस गाय की रक्षा की जो मेरा धर्म था। महाराज की यह बात सुनकर रावण हंसा और बोला सत्यवादी हरिश्चंद्र के कुल में असत्य वादन की प्रथा कब से चल गयी महाराज रघु । महाराज रघु ने जबाब दिया लंकेश सत्यृ प्रतिपादन के लिए साक्ष्य की आवश्यक्ता पडती है। अतः साथ चलकर साक्ष्य का निरीक्षण कर लिया जाए। और वे दोनों अपने-अपने वाहन से उस स्थान पर पहुंचे । वहां रावण ने प्रत्यक्ष देखा कि सिंह के आक्रमण से अल्प घायल गाय तृण चरने के प्रयास में थी तथा उसके बगल में ही अनेक सायकों से विद्धा वह सिंह वहां परा पडा था । उस आश्चर्यमय दृश्य को देखकर रावण अवाक रह गया। तत्पश्चात रघु से विनम्र भाव से बोला हे राजर्षि आपके इस धर्म पूर्ण कौशल को देखकर मेरी युद्ध की कामना समाप्त हो गयी । आप प्रसन्न होकर अयोध्या जाएं और मैं लंका के लिए प्रस्थान करता हूं । तबसे रावण ने अयोध्या पर आक्रमण करने का कभी प्रयास नहीं किया ।
ऐसे प्रातापी महाराज रघु ने एक बार विश्वजित नामक यज्ञ का अनुष्ठान किया । जिसमें उन्होंने प्रजा के हित के लिए सुरक्षित कोष को छोडकर राजा के कार्य में प्रयुत्त होने वाली समस्त वस्तुओं का ब्राह्मणों एवं दीन व्यक्तियों को दान कर दिया । और स्वयं बल्कल पहनकर एवं मिट्टी के पात्रों से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए अपनी जीवन चर्या चला रहे थे । वे केवल नाम से ही राजा थे । उनके पास उन्हें राजा सिद्ध करने के लिए कोई अंगाभरण धन स्वर्ण हीरा मोती कुछ भी नहीं था ।
इसी समय के बीच एक याचक ब्राहमण ब्रहम्चारी ने नगर की सीमा में प्रवेश किया । उसका नाम कौत्स था और वह ऋषिवर वर्तंतु का शिष्य था । उस ब्राहमण कुमार की कहानी यह थी, कि गुरू के पास संपूर्ण विद्याओं में प्रवीण होने के बाद उसने गुरुदेव से दक्षिणा मांगने के लिए विनम्र आग्रह किया था । गुरुदेव ने उसकी सेवा को ही गुरुदक्षिणा मानकर घर जाकर गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के लिए कहा । किंतु वह माना नहीं बार-बार गुरुदेव से गुरु दक्षिणा मांगने की आग्रह करता रहा ।
अत- गुरुदेव को रोष आ गया । उन्होंने कहा कि यदि तुझे गुरु दक्षिणा देने की इतनी ही प्रबल आकांक्षा है, तो मैंने तुझे चौदह विद्यायें दी हैं, अतः तुम चौदह सहस्र स्वर्ण मुद्राओं की गुरु दक्षिणा मुझे दो । कौत्स ने विनम्रता से गुरु देव को प्रणाम किया और गुरुदक्षिणा की व्यवस्था करने के लिए आश्रम से बाहर चले गये । बाहर आकर कौत्स ने सोचना शुरू किया कि चौदह सहस्र स्वर्ण मुद्रा दान में देना किसी भी नरपति के लिए सहज नहीं है । अतः किसके पास जाया जाए जहां से अपेक्षित स्वर्ण भी प्राप्त हो जाए और बात भी न कटे। बहुत सोच -विचार के बाद उसने अयोध्या की तरफ प्रस्थान किया। वही वर्तंतु शिष्य कौत्स इस समय अयोध्या की सीमा में प्रवेश कर रहा था । एक तेजस्वी कुमार को सीमा में प्रवेश करते देख….य़ह श्लोक बनता है
तमध्वरे विश्वजितं क्षितीशं निःशेष विश्राणित कोष जातं ।
उपात्वृद्यो गुरुदक्षिणार्थी कौत्सः प्रपेद्येत वर्तंतु शिष्यः ।।
मुनि कुमार के आने का संदेश पाकर महाराज अति सम्मान के साथ अर्घ पाद्य की सामग्री लेकर कौत्स की आवभगत करने पहुंचे । पूर्ण रूप से आवभगत से संतुष्ट कौत्स से जब उन्होंने नगर में पधारने का हेतु पूछा और संकोच पूर्वक अपने मन में विचार करने लगा कि ए महाराज वल्कल वसनधाऱी अति साधआरण रूप में मिट्टी के पात्रों लाए अर्घ्यपाद द्वारा मेरा सत्कार कर रहे हैं । अतः ऐसा प्रतीत होता है कि महाराज के पास कुछ भी द्रव्य शेष नहीं है। ये केवल नाम के ही राजा रह गये हैं । इस हाल में इनसे कुछ भी मांगना उचित नहीं है । ऐसा विचार कर ऋषि कुमार ने याचना का भाव हृदय में दबा लिया और मात्र आवभगत को ही सारी सेवा समझ कर संतुष्टि प्रकट की ।
राजा मुनि कुमार के भावों को समझकर कि यह मुझे इस दशा में देखकर कुछ कहना नहीं चाह रहे हैं । औऱ संभवतः किसी अन्य नरेश के पास जाने का विचार कर रहे हैं । तो ऐसे में अयोध्या में याचना पूर्ण नहीं होने पर ऋषि कुमार दूसरे राजा के पास गये य़ह परिवाद (निंदा ) मैं सहन नहीं कर सकता, औऱ राजा ने ऋषि कुमार से अपनी दशा देखकर अन्यत्र न जाने देने के भाव से आग्रह पूर्वक उनसे अपना हेतु बताने क लिए कहा । राजा के बार-बार आग्रह पर ऋषि कुमार ने गुरुदेव द्वारा मांगी गयी चौदह सहस्र स्वर्ण मुद्राओं का विवरण सुना दिया । तब राजा ने उन्हें संतुष्ट करने के भाव से कहा आज आप यहीं निश्चिंत होकर निशा निवास करें और मुझे सेवा का अवसर दें । कल प्रातः आपकी जरूरत पूरी हो जाएगी ।
राजा रघु ने अपने कोषाध्यक्ष को बुलाया और कहा अपने अभिलेखों को देखकर बताइए कि किस राजा ने अभी तक कर नहीं दिया है । कोषाध्यक्ष ने सारे प्रप्त्रों को देखकर कहा कि प्रभु पृथ्वी के सारे राजाओं ने समय से अपना कर चुका दिया है । केवल इंद्र के कोषाध्यक्ष कुबेर ने ही अभी तक कर नहीं दिया है । कुबेर के द्वार की गयी अवज्ञा को सुनकर महाराज ने सेनापति को आज्ञा दिया और कहा कि कल कुबेर नगरी अलकापुरी पर आक्रमण के लिए सेना को तैयार रहने के लिए कहा जाए, और अपना युद्धक रथ उसी स्थान पर मंगा लिय़ा, और कुबेर पर आक्रमण करने के लिए रात भर उसी रथ मे सोए ।
अव्यक्त भाव से गुप्तचरी करने के लिए धनाध्यक्ष कुबेर के गण संपूर्ण पृथ्वी के राजाओं की राजधानियों में विचरण करते रहते थे । अतः अयोध्या मे विचरण करने वाले कुबेर के गुप्तचरों ने सत्वर गति से रात्रि के प्रथम प्रहर में ही अलकापुरी पहुंकर प्रातः राजधानी पर महाराज रघु द्वारा आक्रमण करने की सूचना दी और कहा कि इसका कारण समय से कर न चुकाना है। गुप्तचरों से यह समाचार सुनकर कुबेर भयभीत हो गये । उन्होंने तुरंत देवराज इंद्र से परामर्श कर किया और वर्षा के बादलों को निर्देश दिया कि वे सूर्योदय के पहले स्वर्ण मुद्राओं से जहां से महाराज रघु प्रयाण करने वाले हैं, उस स्थल पर स्वर्ण मुदाराओं की वर्षा कर दें । अतः बादलों ने वहां अपरिमित स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा की जिससे वहां का संपूर्ण भूभाग स्वर्ण मुद्राओं से आच्छादित हो गया ।
सुबह निद्रा त्यागने पर जब महाराज रघु ने कुबेर द्वारा प्राय़श्चित के रूप में वर्षायी गयी स्वर्ण मुद्राओं को देखा तो अति प्रसन्न हुए । महाराज रघु ऋषि कुमार कौत्स से बोले हे ब्रहमम्न यह सारी मुद्राएं आपकी हैं। आप इन्हें ले जाएं । कौत्स ने गिनती कराकर चौदह सहस्र स्वर्ण मुद्राएं बांधकर सवारियों पर लाद लिए,तथा बोले राजन मैंने अपनी याचना भर द्रव्य प्राप्त कर लिया है । अब आप बाकी स्वर्ण मुद्राओं को अपने राजकोष में भेजवा दें । इस पर महाराज रघु ने कह हे ब्राहम्ण देवता यह संपूर्ण धन मैंने आपको दान में दे दिया है । अतः यह दान की हुई मुद्राएं मेरे राजकोष में नहीं जा सकती हैं। इसे आप ही ले जाएं ।किंतु कौत्स एक भी अधिक स्वर्ण मुद्रा लेने के लिए तैयार नहीं थे और न महाराज रघु उसमें से एक भी स्वर्ण मुद्रा राजकोष में भेजने को तैयार थे । अतः दोनों अपने हठ पर कायम रहते हुए उन शेष बची स्वर्म मुद्राओं को उसी हालत में छोडकर अपने-अपने स्थान चले गए । नगरवासियों ने भी अपने राजा द्वारा ब्राहम्ण को दान की हुई उन स्वर्ण मुद्राओं को हात तक से नहीं छुआ । वे स्वर्ण मुद्राएं उसी स्थान पर बहुत काल तक उसी दशा में पडी रहीं और बाद में धीरे -धीरे मिट्टी में समा गयीं ।
प्रजाजनों ने उस स्थान का नाम सोनखरि रखा तथा आज भी बहुत सारे लोग उस स्थान को सोनखरि के नाम से ही पुकारते हैं ।कहा जाता है कि उसी स्थान पर भगवान राम के राज्याभिषेक के समय़ उसमें शामिल होने के निमित्त से आये भगवान सूर्य का रथ उतरा था । कालांतर में वहां पर एक कुंड का निर्माण कराया गया , जिसे सूर्य कुंड कहा जाता है ।उस कुंड के मरम्त एवं संवर्धन का कार्य बाद के महाराज दर्शन सिंह ने करवाया और वहां एक छोटा नगर बसाया जिसका आज का नाम दर्शन नगर है
। इस तरह अयोध्या में स्वर्ण वर्षा की कथा और उसके कारक महारज रघु और ऋषि कुमार कौत्स का विवरण पूर्ण हुआ ।
लोभहीनता, राजा का पराक्रम, प्रजा का राजा के प्रति निष्ठा भाव उस समय जो उपस्थित हुई ऐसे राजा एवं प्रजा के त्याग की गाथा चारों युग में अन्यत्र किसी भी स्थल पर उपलब्ध नहीं है । उसी रघुवंश में दशरथ पुत्र राम बनकर उत्पन्न हुए भगवान विष्णु का यह चरित्र लोक पावन करने वाला रहा ।
अस्तु ।
लेखक -सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं । प्रकाशित हिंदी उपन्यास रद्दी के पन्ने ।