ठाकुर प्रसाद मिश्र
प्राचीन काल में एक त्वष्टा नाम के प्रजापति हुए। प्रजापति त्वष्टा का एक विश्वरूप नाम का पुत्र था। जो महान तपस्वी था । जिसका यश संपूर्ण संसार में व्याप्त था। उसकी तपस्या से डरकर देवराज इंद्र ने उसका वध कर दिया। जिसे सुन करके प्रजापति त्वष्टा को बहुत क्रोध आया और उन्होंने यज्ञ अग्नि से एक दूसरा पुत्र पैदा किया। जो इंद्र से बदला ले सके, उसका नाम वृत्तासुर था । वृत्तासुर विशेष रूप से विशाल काया का धनी था। जिसके बराबर संसार में कोई और दूसरा शरीर धारी नहीं हुआ । उसका शरीर तीन योजन ऊंचा और एक योजन चौड़ाथा,वहमहाप्रतापी,महाशक्तिशाली महातपस्वी और महाप्रजा पालक हुआ। उसके राज्य में संपूर्ण पृथ्वी धन-धान्य से परिपूर्ण थी। वह धर्म पूर्वक प्रजापालन करता रहा । किसी भी प्रकार का किसी को कोई कष्ट नहीं था। उसने बार-बार देवराज आदि से संग्राम किया। उसे ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त था कि उसका किसी भी अस्त्र- शस्त्र से बध नहीं किया जा सकता है। उसके उत्कर्ष को देखकर देवराज इंद्र और देवगण बहुत भयभीत हुए। देवताओं का मानना था कि इस तरह तो देव सत्ता का अस्तित्व ही मिट जाएगा । अतएव समस्त देवतागण मिलकर भगवान विष्णु के यहां गये,और वृत्सुतार का वध करने का निवेदन किया । जिसे भगवान विष्णु ने स्वीकार नहीं किया ,और कहा कि वह भी तुम लोगों जैसा मेरा प्रिय है।भगवान विष्णु की यह बात सुनकर देवता बहुत निराश हुए।उनकी निराशा से द्रवित होकर भक्त वत्सल भगवान श्री हरि ने देवताओं से इस तरह कहा हे देवगण आप लोग सोच के वशीभूत न हों। आप लोग मेरी महामाया के शरण में जाएं और मुझ परमात्मा का ही यजन करें । तब उनके प्रसन्न होने पर मैं अपनी शक्ति को तीन भागों में बांट दूंगा ।जिसका एक भाग इंद्र को दूसरा भाग वज्र को और तीसरा भाग पृथ्वी को दे दूंगा और तब तुम सब वृत्तासुर का वध कर पाओगे। देवताओं ने भगवान श्री हरि का अनुसरण किया ,और महामाया के प्रसन्न होने देवराज पर इंद्र को भगवान श्री हरि का तेज प्राप्त हो गया । महामाया ने उनसे यह भी कहा था कि वृत्तासुर का वध किसी भी अस्त्र-शस्त्र से नहीं हो सकता है। अतः श्री हरि का तेज जो पृथ्वी में समाया हुआ है वह समुद्र का फेन बन करके समुद्र के किनारे मिलेगा।जिसे तुम अपने अस्त्र पर धारण करके प्रहार करोगे तभी वृत्तासुर मारा जाएगा ।
जिस समय देवगण इस आयोजन में व्यस्त थे, वृत्तासुर ने सांसारिक उपलब्धियों में अरुचि दिखायी और सोचा ए सारी भोग विलास की वस्तुएं मान- सम्मान और यश तो बहुत क्षुद्र हैं। इससे कई गुना उत्तम पद प्राप्त करने के लिए मुझे तप का आश्रय लेना चाहिए।मन में ऐसा विचार आने पर वह अपने पुत्र मधुरेश्वर का राज तिलक करके संपूर्ण पृथ्वी का दायित्व उसे सौंपकर वन में जाकर तप करने लगा । वृत्तासुर के उग्र तप से चारों तरफ प्रचंड प्रकाश फैल रहा था । वृत्तासुर ब्राहम्ण संतान था, किंतु क्रोधवश मुनि ने य़ज्ञ कुंड से उसकी उत्पत्ति इंद्र से बदला लेने के लिए की थी । अतः तामसी पुत्र होने के कारण वह असुर कहलाया ।
इधऱ दिव्य तेज से विभूषित इंद्र अपनी सेना के साथ उससे युद्ध करने के लिए उसके तप स्थल पर पहुंचे तो उसके तेज को देखकर देव सेना भयभीत हो गयी और उसके बध पर देव सेना को संशय होने लगा । किंतु उसी समय अत्यंत साहस दिखाते हुए देव राज इंद्र ने सागर के फेन से संयुक्त अपने बज्र का प्रहार उसके ऊपर कर दिया । वह निहत्था तप में बैठा था , बज्र के प्रचंड प्रहार से उसका सिर कट कर दूर जा गिरा । निर्दोष तप धारी ब्राह्मण पुत्र वृत्तासुर का सिर कटते ही ब्रह्महत्या प्रकट हो गयी । जिससे सारी देव सेना को महासंताप हुआ और उसने चारों तरफ से इंद्र को घेर लिया। पश्चाताप वश इंद्र का शरीर शिथिल होने लगा और वे अचेत होकर भीमकाय सर्प की तरह पृथ्वी पर गिर गये । इंद्र विहीन देव सेना अत्यंत निरीह एवं निर्बल हो गयी । सृष्टि के सारे कार्यों में बाधा उत्पन्न होने लगी । वर्षा विहीन पृथ्वी रसहीन होने लगी । झरने, सरिता, सरोवर सब सूखने लगे ।वनस्पतियाँ मुरझाने लगीं पृथ्वी धान्य विहीन होने लगी । संपूर्ण सृष्टि में हाहाकार मच गया ।अतः देवता लोग देवगुरू वृहस्पति को आगे कर पुनः परमात्मा श्री हरि की शरण में गये और लोक कल्याण के लिए देवराज इंद्र को पूर्व की स्थिति में लाने के लिए प्रार्थना करने लगे ।
भगवान श्री हरि ने कहा देवताओं ब्रह्म हत्या जैसे जघन्य पाप से मुक्ति का कोई साधारण उपाय नहीं है इसका एक ही उपाय है कि देवराज इंद्र अश्वमेध यज्ञ का विधान कर मुझ परमात्मा का य़जन करें । अश्वमेध से मेरे संतुष्ट होने पर ही इंद्र को इस ब्रह्महत्या से छुटकारा या मुक्ति मिल सकेगी । अतः आप सब यही उपाय करें । ऐसा कहकर भगवान विष्णु ने देवताओं को विदा किया ।अब देवगण चिंतित थे कि इंद्र तो मूर्छित हैं , ऐसे में यजमान कैसे बन पाएंगे । बहुत सोच -विचार के बाद अनेक देवताओं के साथ देव गुरू वृहस्पति की अगुआई मे इंद्र को ही यजमान मानकर वरुण इत्यादि देवताओं ने अश्वमेध यज्ञ का प्रयोजन कार्य सिद्ध किया । यज्ञ पूर्ण होते ही इंद्र की मूर्छा टूटी और वे प्रसन्न भाव से उठकर पूर्व की स्थिति में आ गये । उनके सचेत होते ही ब्रहम्हत्या उनके शरीर से निकल कर उनके बगल में खड़ी हो गयी । ब्रह्महत्या बोली देवताओं इंद्र तो अब मुझसे मुक्त हो गये, अब आप सब मेरे रहने का स्थान बताओ ।इंद्र के प्राप्त होने पर देवता अत्यंत प्रसन्न थे ।अतः वे बोले कि देवी वह स्थान आप स्वयं ही चुन लें।
देवताओं से इस तरह का उत्तर पाकर, समस्त देवताओं को संबोधित करती हुए ब्रहम् हत्या बोली हे देवगण अब आप लोग मुझे बाधित नहीं कर सकते हैं। मैं अपने लिए चार स्थान नियुक्त कर रही हूं ।पहला वर्षाकालीन चतुर्मास जिसमें अधिक वर्षा के कारण उफनाई हुई नदियों की बाढ़ में मेरा निवास होगा । मैं मनमाने ढ़ंग से उनकी राह में आए हुए पहाड़, बन प्रदेश, ग्राम्य प्रदेश को नष्ट करती हुई आगे बढ़ूंगी ।मुझे रोकने वाला कोई नहीं होगा । दूसरा सदैव पृथ्वी पर निवास करते हुए धर्माचार के विरुद्ध आचरण करने वालों को त्रास देती रहूंगी , भले ही वे कितने धन-धान्य से संपन्न हों । तीसरी जगह मेरी यौवन मद से उन्मत्त्त हुई अपने को घमंड से सिर उठाकर चलने वाली तरुणियों का दर्प चूर्ण करने के लिए हर मास तीन दिन उनके संग रहूंगी और उन्हें अस्पृश्य बनाकर दीन-हीन दशा में रखूंगी । चौथा स्थान मेरा उन पापियों को दंड देने के लिए होगा जो किसी निर्दोष, ब्राह्मण का अकारण बध करेंगे। मुझसे छुटकारा पाने लिए जो व्यक्ति अश्वमेध यज्ञ कर भगवान शिव को प्रसन्न करेगा वही बचेगा ।
राजसूय एवं अश्वमेध यज्ञ में एक के चयन पर भगवान श्री राम ने लक्ष्मण का अनुमोदन करते हुए, भगवान श्री राम ने अपने श्री मुख से यह कथा अपने छोटे भाइयों को सुनायी थी और भगवान भोलेनाथ की प्रसन्नता के लिए अश्वमेध यज्ञ के अनुष्ठान का आदेश उन्हें दिया था । अतः ब्राहम्ण बध, बालक बध, नारी बध और आत्म बध ए ऐसे पाप हैं जो अनेक जन्मों तक पीछा नहीं छोड़ता उसका दंड भोगते ही रहना पड़ता है ।
लेखक- हिंदी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं । प्रकाशित हिंदी उपन्यास रद्दी के पन्ने ।