अरुणाकर पाण्डेय
बात सत्रहवीं शती की है । पुहकर नाम के एक कवि थे जो मूलतः मैनपुरी के परतापुर के रहने वाले थे और जीवन के बाद के दिनों में सोमनाथ के पास भूमिगांव में बस गए थे ।एक बार वे आगरा में घूम रहे थे ।उन दिनों भारत में जहांगीर का शासन था । कवि मुक्त हृदय के स्वामी होते हैं और इसलिए वे कभी किसी बंदिश को पसंद नहीं करते जब तक कि वे स्वयं किसी प्रवृत्ति में मन नहीं लगा लेते । उन्हें किसी की परवाह नहीं होती और वे उन्मुक्त हो विचरते हैं। इस स्वभाव के कारण किसी बात परउनकी जहांगीर से ठन गई और उस विवाद के कारण उन्हें उनके आदेश से आगरा में बंदी बनाकर कैदखाने में डाल दिया गया ।
पुहकर कवि जीवट के धनी थे। इसलिए वे बादशाह के सामने अपनी रिहाई के लिए गिड़गिड़ाए नहीं बल्कि जीवन में आस्था व्यक्त करते हुए अपनी राह पर चलने का दृढ़ निश्चय किया और वह कठिन परीक्षा देने का निर्णय किया जिससे प्रायः आज के रचनाकार भी सत्ता के सामने घुटने टेक देते हैं। इनके बारे में जानकर यह प्रतीत हो जाता है कि जो सच्चा साधक होता है वह अपने हुनर के ही अधीन रह सकता है और कोई सौभाग्यशाली ही हो सकता है जो इनके इस स्वभाव को समझता है। स्वच्छंदता और सत्ता की लड़ाई बहुत पुरानी है ।लेकिन आज के युग में ऐसे व्यक्तित्व को समझना भी दुर्लभ हो चुका है ।
कारागृह में रहते हुए भी वे अंदर से नहीं टूटे बल्कि और साधना से अपनी कविता रचने लगे। जेल में रहकर पुहकर कवि ने लगभग सन् 1616 में एक प्रेमकथा ‘रसरतन’ के नाम से लिखी । यह एक बेजोड़ प्रेमकथा थी।इसके नायक सूरसेन और नायिका रंभावती थीं। इस प्रेमकथा का एक छंद है
“चंद की उजारी प्यारी नैनन तिहारे,परे
चंद की कला में दुति दूनी
दरसाति है।
ललित लतानि में लता सी
गहि सुकुमारि
मालती सी फूलै जब मृदु
मुसुकाति है।।
पुहकर कहै जित देखिए
विराजै तित
परम विचित्र चारु चित्र
मिलि जाति है।
आवै मन माहि तब रहे
मन में ही गड़ि,
नैननि बिलोके बाल
नैननि समाति है।।”
यहां पर कवि पुहकर ने नायिका के सौंदर्य का वर्णन बहुत ही मनभावन और मनोहर किया है। श्रृंगार का यह रूप किसी भी काव्य रसिक को बांधने में सक्षम है क्योंकि सौंदर्य का निरूपण आनंद की वर्षा कर देता है। जब चंद्रमा की किरणे उसकी आंखों पर पड़ती है तब उसका सौंदर्य दोगुना हो जाता है क्योंकि उसकी आंखें चांद के समान ही हैं। उसकी काया लता की तरह है और जब वह हंसती है तब लगता है कि मालती का फूल ही खिल गया हो। उसके रूप सौंदर्य का चमत्कार ही ऐसा है कि जहां भी जाए वह देखने वाले के मन मस्तिष्क से हटता ही नहीं। इसका सौंदर्य ही ऐसा है कि देखने के बाद वह ऐसा जादू आंखों पर कर देता है कि देखने वाला उसका वर्णन नहीं कर सकता ।
जाहिर है कि जब बादशाह जहांगीर ने ऐसे प्रसंग से गढ़े ‘रसरतन’ को सुना तो वे भी पुहकर कवि की कविता के अधीन हो गए । तब इससे प्रसन्न होकर उन्होंने कवि को रिहा कर दिया । जब तक गुण नहीं जाना था,तब तक उनका तिरस्कार किया लेकिन जब कवि की रचना का प्रभाव हृदय पर पड़ा तब सारी शत्रुता और अहंकार भूल गए और अपना निर्णय आप ही बदल दिया ।
(यह प्रसंग आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी के हिंदी साहित्य का इतिहास पर आधारित है जो नागरीप्रचारिणी सभा से प्रकाशित है)
लेखक -दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं