हिंदी कवि गजानन माधव मुक्तिबोध जी की पुण्यतिथि के अवसर पर                      

वि गजानन माधव मुक्तिबोधimage source by dr arunakar pandey

मुक्तिबोध जी की कविता ‘बेचैन चील’

अरुणाकर पाण्डेय

अरुणाकर पाण्डेय

मुक्तिबोध हिंदी के एक ऐसे विरले साहित्यकार हैं जिन्होनें हिंदी साहित्य के चलन को ही बदल कर
रख दिया | उदाहरण के लिए देखा जाए तो जब चाँद की बात होती है या उसका निरूपण किया जाता
है तब उसकी गुणात्मकता शीतलता और सौन्दर्य से की जाती है और साधारण जनता में भी किसी
सुन्दर मुख की उपमा देनी हो तो उसी से दी जाती है | हिंदी साहित्य में भी चाँद को लेकर कुछ ऐसे
ही प्रयोग देखे जाते हैं | मसलन सूरदास जी के यहाँ कहा गया कि “मईया मैं तो चंद्र खिलौना लेहूँ”
तो बच्चन जी ने एक गीत में मेले में घूमने आई स्त्री के खोने पर उसका लक्षण बताया कि “उसका
मुखड़ा,चाँद का टुकड़ा,कोई नजर न लगाए जिसे मिले मुझसे मिलाए” | लेकिन जब मुक्तिबोध ने चाँद
को देखा तो उनके काव्य संग्रह का नाम ही “चाँद का मुँह टेढ़ा है” रखा गया |यहाँ देखा जा सकता है
कि मुक्तिबोध हिंदी साहित्य के पुराने स्थापित प्रतीक और बिम्ब से अपना एक अलग तरह का संबंध
जोड़ते दिखते हैं और एक अलग तरह का काव्य भाषाई आन्दोलन की प्रेरणा देते हैं | उनके रास्ते पर
चलते हुए आगे के कवियों को भी लिखने का एक नया ढंग मिल गया |
इन्हीं मुक्तिबोध ने अपनी कविताओं में नए प्रतीक, बिम्ब और रूपकों के प्रयोग किये | उसका एक
जबरदस्त उदाहरण उनकी एक छोटी कविता ‘बेचैन चील’ है | सामान्यतः भारतीय चील को किसी
बहुत अच्छे प्रतीक के रूप में नहीं देखते और उसकी चर्चा या उसके अनुभव बहुत कम मिलते हैं |
बल्कि यदि किसी को बहुत चालाक, आक्रामक या और निर्मम बताना होता है तब चील का नाम
लेकर उसका उपयोग किया जाता है, बहुत कुछ लोमड़ी की तरह | लेकिन मुक्तिबोध जी ने चील का
निरूपण ही अलग तरह से इस कविता में किया है | मुक्तिबोध जी की बेचैन चील कविता यह है

बेचैन चील !!
उस-जैसा मैं पर्यटनशील

प्यासा-प्यासा,
देखता रहूँगा एक दमकती हुई झील

या पानी का कोरा झाँसा
जिसकी सफेद चिलचिलाहटों में है अजीब

इनकार एक सूना !!

image source meta ai

यह छोटी सी कविता “मैं” को चील पर आरोपित करती है और जो पक्षी बेहद तेज आँख रखने और
वार करने वाले निर्मम शिकारी के रूप में ही स्थापित किया गया है,उसे भी करुणा के दायरे में ले आती है जो बहुत प्यासा है और पानी की तलाश में भटकता है और जब उसे किसी झील के दर्शन
होते हैं तो वह उसे सत्य मान कर जब उसके पास जाता है तो पता चलता है कि वहाँ पर भी पानी
नहीं है बल्कि उसका ‘कोरा झाँसा’ है | कुछ कुछ मृगतृष्णा जैसा | वीभत्स का करुण में अंतरण कर
रहे हैं मुक्तिबोध जी | सर्वविदित है कि अन्य के भक्षण पर ही चील का जीवन आधारित है यानी
हिंसा करना जैसे उसका विकल्प नहीं है बल्कि उसकी अंतर प्रकृति का दबाव है | ऐसे में एक नई
बात उभरती है कि जो प्रकृति के दबाव में हिंसक है क्या वह करुणा का विषय नहीं हो सकता? इस
कविता की दृष्टि से देखें तो पानी की प्यास लगना और बहुत भटकते हुए उसका नहीं मिलना और
उसके ऊपर उसके भ्रम का होना चील के प्रति भी करुणा का भाव जगा सकता है | स्वाभाविक ही है
कि जिस चील ने अब तक अपना जीवन हिंसा पर बिताया अब पानी के अभाव में उसका अंत भी
निश्चित है क्योंकि उसके भटकने की कथा तो चलती रहेगी पर पानी मिलने की गारंटी के कोई संकेत
नहीं है | इसलिए प्रबल संभावना यही है कि चील प्यास के कारण नहीं बचेगी और मृत्यु को प्राप्त हो
जाएगी | पर बात तो यह है कि चील जो भटकते हुए मरने की ओर बढ़ रहा है वह “मैं’ का प्रतीक है | “मैं” कवि भी हो सकता है और कोई ‘आख्यानक मनुष्य’ भी हो सकता है | दोनों ही स्थितियों में यह
विचार करना चाहिए कि “मैं” या आख्यानक मनुष्य चील “जैसे” क्यों है ? इसका स्पष्ट उत्तर यह है
कि दोनों में से कोई भी हो , वह यहाँ पर स्वीकार कर रहा है कि उसने अपने जीवन के लिए अन्य
का भक्षण किया है | मनुष्य का इतिहास और उसका वर्तमान यह बताते हैं कि उसने प्रकृति और
प्रकृति के ही रूप में स्वयं का बहुत दोहन किया है | उसने अपने स्वार्थ में जो गाथा लिखी है वो
बहुत प्रेम, करुणा और सम्मान की वस्तु नहीं है बल्कि अवसरवाद का निरूपण ही है | अवसरवादी
भक्षण की यह गाथा अब भी जारी है और सामान्य मनुष्य भी महत्वाकांक्षा में जितना निर्लिप्त हो
चुका है उसे अब अलग से कहने की आवश्यकता नहीं | लेकिन ‘बेचैन चील’ कविता के माध्यम से
जैसे मुक्तिबोध यह कहना चाह रहे हों कि अब चील का अंत निकट है | झील भी उसे अब पानी का
झाँसा ही दे रही है पानी नहीं | यह ठीक उसी तरह है कि मनुष्य को अब स्थिरता,स्वास्थ्य,निश्चिंतता
जैसे मूल्य अब नहीं मिलेंगे और आपस में संहार कर खत्म होने के लिए वह अभिशप्त है | ये सब
तभी प्रतिष्ठित होंगे जब उसे झील यानी कि मनुष्यता के भंडार जैसी कोई विश्वसनीय चीज मिलेगी |
लेकिन लगता है कि वह नहीं मिलेगी क्योंकि सुरक्षा का बोध अब इंसानों में पहले की तरह नहीं रह
गया है | वह शांतिपूर्ण महत्वाकांक्षा से रहित भविष्य के प्रति उतना आशान्वित नहीं है जितना कि
वह अपनी सुरक्षबोध के लिए सशंकित है | इसलिए यहाँ यह भी जोड़ना पड़ेगा कि इस कविता में जो
“मैं” है वह सिर्फ “कवि” अथवा “आख्यानक मनुष्य” नहीं है बल्कि वह तो “हम सब लोग” ही हैं |


मुक्तिबोध जी की कविता ‘बेचैन चील’ की एक विशेषता यह भी दिख रही है कि यह एक ‘मुक्तक’
जैसा असर कर रही है | ठीक बिहारी के दोहों की तरह | उनके दोहों के लिए कहा गया है कि वे
“गागर में सागर” हैं | ठीक यही बात जैसे इस बहुत छोटी सी कविता में भी दिख रही है | यदि
इसका वाचन किया जाए तो निश्चित ही यह बहुत कम समय लेगी, दोहे से संभवतः थोड़ा ज्यादा |
लेकिन यहाँ एक बात और दिख रही है कि इसमें तुकांतता तो है लेकिन पूरी तरह से नहीं |
चील,पर्यटनशील और झील में तुकांत है तो प्यासा-प्यासा और झाँसा में भी वह स्पष्ट है | लेकिन
अंत में कवि ने उसे छोड़ दिया है | यह भी परंपरा तोड़ने और गति को छोड़ने का ही संकेत है |

देखा जाए तो यह टूटने और बिखरने की एक निर्मम कविता है !

लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *