अरुणाकर पाण्डेय

भारत की जनसंख्या का लगभग 12 प्रतिशत डायबिटीज़ का मरीज है । यह संख्या निकट भविष्य में बहुत तेजी से बढ़ रही है। इस रोग को लेकर मीडिया पर अक्सर बहुत से वीडियो पोस्ट किए जाते हैं जिनमें से कई में एलोपैथी के साथ अन्य चिकित्सा पद्धतियों के परामर्श और इलाज देखने को मिलते हैं। यह रोग भारत के लिए बड़ी चिंता का विषय बनता चला जा रहा है क्योंकि इसमें सिर्फ बीस वर्ष की वय से ऊपर के लोग तो शामिल हैं ही लेकिन परेशान करने वाली बात यह है कि यह रोग अब छोटे बच्चों को भी अपना शिकार बना रहा है।
इन बच्चों के हाथों में जो मोबाइल फोन और यूट्यूब पहुंच गया है उसे देखकर लगता है कि एक स्लो पॉयजन की जद में वे आ रहे हैं। विशेष कर जो फूड ब्लॉगर्स और बच्चों के प्रिय और उनमें प्रसिद्ध यूट्यूबर्स दिख रहे हैं वे दरअसल खानपान को मनोरंजन और स्टेटस का साधन बना कर बच्चों के मन पर गहरा असर कर रहे हैं । इससे दो समस्याएं तो स्पष्ट दिख रही हैं। पहली तो निश्चित ही एंटरटेनमेंट फूड की है जहां फास्ट फूड कंपनियों को तो जम कर फायदा हो रहा है लेकिन स्कूल जाने वाले छोटे छोटे बच्चे भी उसी को खाकर तृप्ति पाना चाहते हैं। वे उसके लिए जिद करते हैं,लड़ते हैं,चीखते चिल्लाते हैं और मध्य वर्ग के साधारण बजट का संतुलन बिगाड़ते हैं। यह खाना बहुत महंगा तो आता ही है लेकिन यदि स्वास्थ्य के प्रतिकूल पड़ जाए तो डॉक्टर,टेस्ट और दवाइयों का खर्च और बढ़ा देते हैं।
दूसरी समस्या यह होती है कि जो भोजन या व्यंजन इन वीडियो में ब्रांड के साथ दिखाया जाता है,उसमें अक्सर उनकी बर्बादी भी होती है । यानी जो खाना आता है उसके साथ सिर्फ मनोरंजन को जोड़कर उसके प्रति गंभीरता को खत्म कर दिया जाता है जिससे भोजन भूख मिटाने के बजाय खेलने की चीज हो जाती है ।
उदाहरण के लिए कभी कोई यूट्यूबर भोजन का चैलेंज देता है कि अमुक दुकान पर दुनिया का सबसे बड़ा डोसा जो कि संभवतः दस फुट का है,मिलता है और जो व्यक्ति उसे एक निश्चित समय में खायेगा उसे आई फोन इनाम में दिया जाएगा या ऐसा ही कुछ और भी ! ऐसे वीडियो जब लोग देखते हैं तो वहां भोजन भूख मिटाने के बजाय मनोरंजन का साधन बन जाता है । ऐसी प्रवृत्तियों से प्रभावित होकर लोग अपने मन को बहलाने के लिए उक्त भोजन का उपभोग करना चाहते हैं और बदले में अपने स्वास्थ्य से खेलने लग जाते हैं। धीरे धीरे यह एक बार या एक दिन तक सीमित नहीं रह जाता,इसकी फ्रीक्वेंसी बढ़ जाती है और इसका परिणाम डायबिटीज जैसी गंभीर बीमारियों से घिर जाना ही होता है। इन्हें लाइफस्टाइल डिजीज तो कहा जाता है लेकिन वास्तव में ये व्यक्ति,परिवार,घर और समाज को भीतर से तोड़ देने की क्षमता रखती है।
एक एपिसोड में ही पांच पांच हजार के पिज़्ज़ा और इससे भी महंगे बाजारू भोजन से एंटरटेनमेंट करने वाले युवा फूड ब्लॉगर्स को आज यह सोचने की जरूरत है कि वे अपने समाज और अपने बच्चों को मनोरंजन के नाम पर जो भारी क्षति पहुंचा रहे हैं,उसकी कीमत कौन चुकाएगा ? इस मुद्दे पर भी सिविल समाज,मीडिया और सरकारों को बहुत ध्यान देने की आवश्यकता आज हो गई है क्योंकि इनका प्रभाव बहुत नकारात्मक है,लगभग एक महामारी जैसा । अगर कड़े कदम नहीं लिए गए और साधारण जनता को इस बारे में वैसे ही शिक्षित नहीं किया गया जैसे कि धूम्रपान,पान मसाला और शराब के लिए किया जाता है,तो कहीं बहुत देर न हो जाए !
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं ।