डॉ.अरुणाकर पाण्डेय
नंदकिशोर नवल की यह पुस्तक वास्तव में तुलसीदास की प्रत्येक साहित्यिक कृति से पाठक का प्रगाढ़ परिचय कराती है लेकिन इसमें लेखक की अपनी दृष्टि या विषयगतता केन्द्रीय महत्व रखती है|उन्होंने इस केन्द्रीयता को पुस्तक की भूमिका में पहले ही विनम्रता के साथ स्वीकार किया है और यह तथ्य रेखांकित भी किया है कि इसे उन्होंने मुक्तिबोध, निराला और मैथिलीशरण गुप्त पर लिखने के बाद प्रस्तुत किया है | यह इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि नंदकिशोर नवल ने व्यावहारिक आलोचना के अपने मानदंड आधुनिक साहित्य से बनाये और तत्पश्चात वे तुलसीदास की ओर उन्मुख हुए |यदि नंदकिशोर नवल की अन्य आलोचनात्मक पुस्तकों को देखा जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि वे मूलतः कविता के पाठ को आधार बनाकर शब्दों से पूर्णतः परिचय करते-कराते आगे बढ़ते चले जाते हैं | इस प्रविधि का उपयोग उन्होंने इस पुस्तक में भी किया है और यही कारण है कि तुलसीदास की समस्त रचनाओं का पाठ उनकी इस पुस्तक में भी हावी है, अर्थात रचना की सघनता इस पुस्तक में बनी मिलेगी |लेकिन एक बड़ा प्रश्न यह उभरता है कि इस पुस्तक को लिखने की क्या मानसिकता हो सकती है जबकि उनकी आलोचना का क्षेत्र मध्यकाल न होकर आधुनिक काल ही रहा?
लेखक ने पुस्तक की भूमिका में इस प्रश्न का उत्तर दिया है जो इसे पठनीय बनाने में बड़े आकर्षण का काम करती है | उन्होंने ‘निराला की साहित्य साधना’ के प्रथम खंड का संदर्भ दिया है जिसमें स्वयं निराला का संवाद है कि तमाम रचनाकारों को पढ़ने के बावजूद तुलसीदास का अध्ययन विशिष्ट बना रहता है तथा यह भी इच्छा व्यक्त की है कि वे गंगा किनारे भीख मांगकर जीवन यापन करते रहें और तुलसीदास को पढ़ते रहें |समझने की बात है कि इसमें कौन सा आधुनिक बोध छिपा हुआ है जो निराला जैसे रचनात्मकता के मौलिक स्कूल तथा ऐतिहासिक और अपरिहार्य कवि को एक ऐसे मध्यकालीन कवि के साथ सम्बद्ध करती है जिसे कई बार हिंदी संस्कृति को मटियामेट करने का कारक माना जाता है |संभवतः दो दिशाओं में इसके उत्तर खोजे जा सकते हैं- एक तो यही कि रचनात्मकता की अपनी नयी लाजवाब कसौटी निर्मित करना और दूसरा यह कि उस रचनात्मकता को सर्व साधारण तक सम्प्रेषित करना |काव्य रूढ़ियों के प्रचलन के समय नए ‘काव्य-समय’ को प्रस्तावित करना बने-बनाये लीक पर चलने वाले लोगों का काम नहीं हो सकता और कम से कम संप्रेषणीय होना तो आधुनिकता के लिए एक आधारभूत आवश्यकता है | शायद निराला तुलसीदास से यही सीखते हों | जो भी हो, नंदकिशोर नवल के इस संदर्भ उल्लेख से यह तो समझ बनती ही है कि बड़ा साहित्यकार वह होता है जो अपने आगामी युगों पर भी अपनी रचनात्मकता का प्रभाव छोड़ता है | इस प्रश्न के उत्तर के क्रम में ही देखें तो लेखक ने तुलसीदास पर लिखने का यह कारण भी बताया है कि जो लोग उन पर वर्णाश्रम धर्म का समर्थक होने का आरोप लगा कर उनके अध्ययन और पठन को उपेक्षित करते हैं वे लोग अक्सर कबीर के पक्षपाती होते हैं और मध्यकालीन आधार पर ही उनकी आलोचना नहीं करते | वे कहते हैं कि कबीर भी परलोकवादी और योगमार्गी थे तथा स्त्री के प्रति उनके विचार अधिक कटु हैं लेकिन फिर भी लोग जितनी उपेक्षा तुलसीदास के साहित्य की करते हैं वह कबीर के हिस्से नहीं आती |इस तरह देखें तो आधुनिक कवि निराला के आदर्श तथा सौन्दर्य के रचयिता तुलसीदास कविता की कसौटी पर नहीं बल्कि राजनीतिक-सांस्कृतिक पक्षपात के कारण आलोचना में उपेक्षित हैं और यह उन पर पुस्तक लिखने का पर्याप्त कारण बनता है |लेकिन इन दो कारणों के अलावा नंदकिशोर नवल प्रारम्भिक परन्तु महत्वपूर्ण प्रभाव का उल्लेख करते हैं जो हमारी शिक्षा और सामाजिक वातावरण की ओर संकेत करता है |तुलसीदास के प्रति आकर्षण का श्रेय वे अपने दो अध्यापकों श्री गणेश मिश्र और दशरथ राजहंस को देते हैं जिन्होनें उन्हें ‘पुष्प वाटिका प्रसंग’ और ‘राम-वन-गमन’ पढ़ाया था | उनके अध्यापन का प्रभाव इतना गहरा था कि तुलसीदास का काव्यत्व उनके मन में बस गया |इसके साथ ही उनका कहना है कि ‘गीतांजली’ और ‘राम की शक्तिपूजा’ पढ़ने के बाद जब उन्होंने अपने गाँव के गुरु बाबू रामसोहाग सिंह के साथ ’रामचरितमानस’ पढ़ा तब उन पर तुलसीदास का रंग और गहरा गया |
नंदकिशोर नवल की पुस्तक तुलसीदास तीन अध्यायों में विभाजित है- अन्य काव्य, रामचरितमानस और विनय पत्रिका | स्पष्ट है कि उन्होंने तुलसीदास के समस्त साहित्य में रामचरितमानस और विनय पत्रिका को विशेष महत्व दिया है लेकिन यहाँ यह स्वतः ही रेखांकित हो जाता है कि वे पाठक को सर्वप्रथम इन दोनों रचनाओं से अलग कृतियों की जानकारी पहले देना चाहते हैं |यद्यपि उन्होंने पुस्तक की भूमिका में इन अध्यायों की प्रस्तुति पर कुछ कहा नहीं है लेकिन इस अनुक्रम दो कारण हो सकते हैं | एक तो यह कि साहित्यिक जगत में जब भी तुलसीदास पर कोई चर्चा या आलोचना होती है तब अधिकतर वह रामचरितमानस और विनय पत्रिका पर होती है तथा उनकी अन्य रचनाएँ वह स्थान नहीं बना पाती जो इन दोनों को मिलता है| हालाँकि, पाठ्यक्रमों में इन अन्य रचनाओं का अध्ययन होता है लेकिन फिर भी तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो तुलसीदास अधिकतर रामचरितमानस और कवितावली के पर्याय मात्र बनकर ही रह जाते हैं| दूसरा कारण यह दिखता है कि साहित्यिक-अकादमिक और आलोचना से परे धार्मिक-सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण में रामचरितमानस की ही सत्ता व्याप्त दिखती है, मानो वे एकदूसरे की पहचान बनकर सिमट गए हों तथा ऐतिहासिक रूप से उनकी अन्य कृतियों का इस संसार से कोई नाता ही नहीं रह जाता |देखा जाए तो रामचरितमानस इस अर्थ में तुलसीदास की पहचान होते हुए भी उनके लिए ट्रेजेडी का चिह्न बन जाती है क्योंकि उसकी लोकप्रियता के कारण उनका अन्य साहित्य अनपढ़ा और अनकहा ही रह जाता है |इस दृष्टि से देखा जाए तो पहला अध्याय- ‘अन्य काव्य’ का चुनाव और प्रस्तुति आलोचनात्मक कर्तव्य का अनिवार्य निर्वाह लगता है |यह तुलसीदास के साहित्य के ‘अन्य’ से पाठक के गुजरने का एक बहुमूल्य अवसर है जो उनके परिप्रेक्ष्य में रामचरितमानस और विनयपत्रिका को कुछ समय के लिए स्थगित करती है या विश्राम दिलाती है |
अन्य काव्य में नंदकिशोर नवल ने सर्वप्रथम ‘रामलला नहछू’ की पड़ताल की है | सीधे-सीधे शब्दों में उन्हनें इस रचना को किसी महत्व का नही माना है |लेकिन इस बहाने उन्होंने हंसगति में रचित बीस छंद के इस काव्य की संरचना और शब्द साहचर्य को लेकर उदाहरण सहित टिप्पणीनुमा मीमांसा की है | राम के यज्ञोपवीत संस्कार से संबंधित इस रचना का एक लोकोपयोग यह बताया है कि उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में जनेऊ के अवसर पर यह स्त्रियों द्वारा गाया जाता है | इसकी एक अन्य विशेषता यह है कि प्रत्येक पंक्ति के अंत में ‘हो’ का संबोधन दिया गया है | लेकिन लेखक के मतानुसार तुलसीदास की यह आरंभिक कृति कहीं से भी साहित्यिक रूप से परिपक्व नहीं कही जा सकती |
इसके बाद नंदकिशोर नवल ने उनकी दूसरी कृति ‘रामाज्ञाप्रश्न’ पर सोदाहरण चर्चा की है |इस कृति का उद्देश्य शकुन-विचार बताया गया है जिसकी रचना, प्रचलित मान्यता के अनुसार तुलसीदासने अपने मित्र गंगाराम ज्योतिषी को एक चिंता से उबारने के लिए की थी| दोहा छंद में रचित ‘रामाज्ञाप्रश्न’ का मूल आधार भी रामकथा है लेकिन लेखक के अनुसार चौथे सर्ग में कथा आगे नहीं बढ़ती और अंतिम सर्ग शकुन-विचार पर केन्द्रित है |लेकिन एक मार्के की बात जो यहाँ रेखांकित की गयी है वह यह है कि इसमें शम्बूक-वध और्सीता वनवास जैसे प्रसंगों को प्रस्तुत किया गया है जो रामचरितमानस में भी नहीं है | तुलसीदास की इस कृति को नंदकिशोर नवल साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मानते हैं क्योंकि ये अनुभूति और अभिव्यक्ति के निकष पर तो स्तरीय हैं ही, लेकिन साथ ही इनमें सांगीतिक योजना का भी यथासंभव ध्यान रखा गया है | इसी कृति के संदर्भ में लेखक ने तुलसीदास के भाषिक प्रयोगों को भी प्रकाशित किया है | अरबी,फारसी और तुर्की के शब्दों के उपयोग तो हैं ही लेकिन खास बात यह है कि यहाँ ‘सुसाहिब’ जैसे प्रयोग भी किये गए हैं |
इन दो ग्रंथों पर विचार करने के बाद नंदकिशोर नवल एक भ्रम का निवारण करते हैं | वह प्रचलित भ्रम यह है कि तुलसीदास ने अवधी में रामचरितमानस को छोड़कर अपने समस्त ग्रंथों की रचना ब्रज भाषा में की है|लेकिन वे यहाँ स्पष्ट करते हैं कि उनके छ: ग्रन्थ – रामलला नहछू,रामज्ञाप्रश्न,जानकीमंगल,रामचरितमानस,पार्वतीमंगल और बरवै रामायण को अवधी का माना है तथा गीतावली,विनयपत्रिका,कृष्णगीतावली,दोहावली और कवितावली को ब्रजभाषा का | वे अवधी को उनकी मूल भाषा मानते हुए भी रामचरितमानस और ब्रजभाषा में विनयपत्रिका को उनकी श्रेष्ठ कृतियाँ मानते हैं | इसके बाद वे उनकी आगे की कृतियों का चयन इस भाषाई आधार पर करते हैं| वे पहले उनके अवधी के अन्य ग्रंथों का मूल्यांकन करते हैं और उसके बाद ब्रज के |यह समझ नहीं आता कि दो कृतियों की समीक्षा के बाद वे यह क्रम तोड़ कर भाषा का यह स्पष्टीकरण क्यों देते हैं| यदि यह बात रामलला नहछू के विवेचन के पहले ही दे दी जाती तो इस प्रवाह के टूटने की स्थिति से बचा जा सकता था जो बेहतर होता |
अवधी में रचित तुलसीदास के ग्रंथों की विवेचना करते हुए नंदकिशोर नवल अगली कृति ‘बरवै रामायण’ की चर्चा करते हैं | यहाँ वे बरवै छंद की लोकप्रियता और उसकी लम्बी यात्रा का जिक्र करते हुए याद दिलाते हैं कि यह छंद इतना आकर्षक रहा है कि नागार्जुन ने इस छंद को तोड़ते हुए इसमें ‘भस्मांकुर’की रचना की थी | इससे यह भी स्पष्ट होता है कि आधुनिक काव्य की रचनाओं में पुरातन या शास्त्रीय छंदों की उपयोगिता को धड़ल्ले से नकार नहीं दिया गया था बल्कि पूरे विवेक के साथ अपनी समकालीनता में स्वीकार किया गया था | लेकिन ‘बरवै रामायण’ के सन्दर्भ में नंदकिशोर नवलयहाँ एक शिकायत यह दर्ज करते हैं कि बरवै छंद में रामकथा होने के बावजूद कुछ कांडों में छंद की संख्या बहुत कम है| उदाहरण के लिए किष्किन्धाकांड दो छंदों में लिखा गया है तो समूचा लंकाकांड मात्र एक छंद में | इसमें सीता के रूप वर्णन पर रीतिकालीन नायिका भेद की साम्यता देखी जा सकती है | लेकिन नंदकिशोर नवल के इस कथन से शोध की एक नई जिज्ञासा यहाँ यह जन्म लेती है कि क्या तुलसीदास के ऐसे रूप वर्णन ने आगे आने वाले रीतिकालीन काव्य को उसका स्वरुप देने में कोई उल्लेखनीय भूमिका निभाई है? निश्चय ही इसके उत्तर के लिए एक गहन अध्ययन और शोध की आवश्यकता है लेकिन इतना तो तय है कि पुस्तक इस दिशा में सोचने के लिए विवश करती है | ‘बरवै रामायण’ के सन्दर्भ में ही इस पुस्तक में एक स्थापना यह भी दी गयी है कि ‘जानकीमंगल’ और ‘पार्वतीमंगल’ की तरह इसमें खंडकाव्य के शिल्प का सौन्दर्य नहीं है |
‘जानकीमंगल’ के संदर्भ में नंदकिशोर नवल दो महत्वपूर्ण स्थापनाएँ देते हैं | एक तो यह कि ‘जानकीमंगल’ और ‘रामचरितमानस’ में साम्य बहुत मिलता है | वे यह निरीक्षण पाठक के समक्ष रखते हैं कि ‘जानकीमंगल’ की बहुत सी उक्तियों को ‘रामचरितमानस’ में तुलसीदास ने जस का तस ले लिया है | यदि इस अर्थ में ‘जानकीमंगल’ को ‘रामचरितमानस’ की जननी कहा जाय तो यह गलत नहीं होगा | लेकिन उनकी दूसरी स्थापना ‘जानकीमंगल’ के अंतर्वस्तु को लेकर की गयी है |लेखक की स्पष्ट धारणा है कि इसकी केंद्रीयता काम है | तुलसीदास की यह रचना सीता की श्रृंगारिकता का चित्रण करती है और इसी कारण संरचनात्मक दृष्टि से देखें तो रीतिकालीन कविता के रूप वर्णन को विकासात्मक सन्दर्भ देती हुयी प्रतीत होती है | यदि यहाँ पुनः विचार किया जाय तो यह समझ बनती है कि तुलसीदास को केवल ‘रामचरितमानस’ और साम्प्रदायिक दृष्टि से आंकना वास्तव में उनकी गहरी साहित्यिक-सांस्कृतिक भूमिका को दबा देता है जो वास्तव में उनके प्रति एक घोर अन्याय है |
‘पार्वतीमंगल’ को नंदकिशोर नवल ने उनकी प्रौढ़ कृति माना है क्योंकि वह ‘रामचरितमानस’ के बाद की रचना है |यहाँ पर उन्होंने तुलसीदास की तुलना कालिदास से की है क्योंकि पार्वती की कथा को लेकर उन्होंने ‘कुमारसंभव’ की रचना की है | वे कालिदास की दृष्टि को मुक्त मानते हैं तो तुलसीदास की दृष्टि को संयत| इसका कारण वे यह मानते हैं कि तुलसीदास मूलतः भक्त थे, इसी कारण दोनों में दृष्टि-भेद स्वाभाविक है | लेकिन इसके अलावा भी वे एक ज़रूरी काम यह करते हैं कि ‘कुमारसंभव’ के श्लोक उद्धृत करते हैं जिससे पाठक के सामने अपने मूल्यांकन करने का पूरा अवसर पुस्तक में इसी जगह उपलब्ध हो पाता है | दोनों की संवेदना में सौंदर्य-चेतना की तुलना करते हुए नंदकिशोर नवल ने एक मौलिक अंतर यह प्रकट किया है कि कालिदास अपनी रचनात्मकता में नगर और वन की भूमिका लेते हैं तो तुलसीदास गाँव की |यह पुस्तक पढ़ते हुए ‘पार्वतीमंगल’ के संदर्भ में एक अन्य विचारणीय बिंदु उभरता है कि यदि तुलसीदास एक वैष्णव भक्त थे तो उन्हें शिव-पार्वती की कथा पर लिखने की क्या आवश्यकता थी ?इसका उत्तर नंदकिशोर नवल यह यह देते हैं कि शिव राम के मान्य थे और शिव उनको पूज्य मानते थे इसलिए इस कथा का चयन अपने काव्य के लिए तुलसीदास ने किया | अकादमिक दृष्टि से देखे तो यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है क्योंकि अपने उद्भव से ही विभिन्न धार्मिक सम्प्रदाय अपने आराध्य,गुरु,सिद्धांतों और नियमों को लेकर बेहद अनुशासनात्मक थे और यदि दक्षिण भारत के मन्दिरों का रुख आज भी किया जाय तो यह बात स्पष्ट होने में देर नहीं लगेगी कि सम्प्रदाय का केन्द्रीय महत्व मध्यकाल में रहा होगा | संभवतःएक सीमा के बाद इसकी परवाह तुलसीदास ने की होगी ऐसा लगता नहीं क्योंकि ‘पार्वतीमंगल’ उनके खुले मन की प्रस्तावना करता है|
उक्त ग्रन्थ के विवेचन के पश्चात् वे तुलसीदास की उन रचनाओं पर लिखते हैं जो ब्रजभाषा में लिखी गयी हैं |इस क्रम में सर्वप्रथम नंदकिशोर नवल ‘गीतावली’ पर बात करते हुए उसके इस दोष की ओर पाठक का ध्यान खींचते हैं कि कई कांडों में भी रामकथा विभक्त करते हुए वे इसमें अनुपात का संतुलन नहीं बना पाए हैं |यह बात एक अन्य बड़े निष्कर्ष की तरफ बढ़ती है और यह प्रस्तावित करती है कि ‘रामचरितमानस’ के अलावा तुलसीदास जी अपने किसी भी ग्रंथ में कथा का संतुलत विस्तार नहीं दे पाये हैं | वे ‘गीतावली’ को ह्रदय से जन्म लेने वाली रचना न मानकर बौद्धिकता की उपज मानते हैं| एक अन्य आलोचकीय आक्षेप वे तुलसीदास पर इस ग्रन्थ के आधार पर यह भी लगाते हैं कि उनके साहित्य में मार्मिकता तभी आ पाती है जब उसका आधार प्रबंध हो |लेकिन ‘गीतावली’ के कुछ पदों पर लिखते हुए नंदकिशोर नवल राम के वन-गमन में पशुओंके दुःख को उद्घाटित करते हैं और इसे कबीर से बेहतर मानते हैं |इस ग्रन्थ के सीता-वनवास प्रसंग को वे मार्मिक मानते हैं और राम के स्त्री-विरोधी चरित्र का उल्लेख करते हैं |बल्कि इस दृष्टि से लक्ष्मण उन्हें कहीं अधिक संवेदनशील नज़र आते हैं |इस विवेचन के साथ नंदकिशोर नवल ने तुलसीदास की इस कृति को बहुत संवेदनात्मक न मानते हुए भी इसके कुछ ऐसे स्थलों की व्याख्या की है जो उन्हें बीच-बीच में आकर्षित करती हैं |इसके बाद नंदकिशोर नवल तुलसीदास की अगले ब्रजभाषा काव्य ‘कृष्णगीतावली’ पर अपना मत प्रस्तुत करते हुए इसे भी उनकी बौद्धिकता का परिणाम मानते हैं तथा इसकी अनुभूतिशून्यता को अप्नीआलोच्कीय स्वीकृति देते हैं |लेकिन इस रचना की हृदयस्पर्शी पंक्तियों को भी अपनी दृष्टि से वे इस पुस्तक में स्थान देते हैं | लेकिन कुल मिलाकर यह माना जा सकता है कि तुलसीदास की यह रचना आलोचक की द्रृष्टि से साहित्यिक महत्व की नहीं है | तुलसीदास की ब्रजभाषा में रचित एक अन्य कृति ‘दोहावली’ के चार-पाँच दोहे ही नंदकिशोर नवल की दृष्टि से स्मरणीय हैं |इनमें से वे ही दोहे उन्हें साहित्यिक दृष्टि से मूल्यवान लगे हैं जिनमें भक्ति की महिमा और चातक के चरित्र उजागर होते हैं |चातक वाले दोहे में भी वे लोकभाषा के शब्द ‘खोंच’ के उपयोग को बहुत ही प्रसन्नता के साथ स्वीकारते हैं |लेकिन एक अनन्य विशेषता वे उन दो दोहों की रेखांकित करते हैं जिनमें जहाँगीर के काल के शासन की अव्यवस्था अंकित होती है |
‘अन्य काव्य’ के पहले अध्याय के अंतर्गत अंत में नंदकिशोर नवल ब्रजभाषा में रचित ‘कवितावली’ का विश्लेषण विस्तार से करते हैं | यहाँ यह स्मरणीय है कि वे ‘हनुमानबाहुक’ को कवितावली का ही अंग मानते हैं अतः उसकी चर्चा अध्याय के अंत में करते हैं | ‘कवितावली’ नंदकिशोर नवल की दृष्टि में ‘रामचरितमानस’ और ‘विनयपत्रिका’ के बाद लोकप्रियता और साहित्यिक दृष्टि से श्रेष्ठ कृति है | इस रचना की चर्चा करते हुए वे पं.विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के छंद-विश्लेषण के आधार पर एक रोचक संभावना यह प्रकट करते हैं कि इसका मूल नाम ‘कबित्तावाली’ रहा होगा |यहाँ वे ‘कवितावली’ की अंतर्वस्तु पर यह धारणा व्यक्त करते हैं कि इसमें सिर्फ छंदों की स्वाभाविकता ही नहीं है बल्कि काव्य-कौशल भी हावी है | इसके विश्लेषण में वे पाठानुसंधान को भी विशेष महत्त्व देते हैं तथा उसमें लाला भगवानदीन के अन्वय को उद्घाटित करते हैं | इस कृति को लेकर वे तुलसीदास की विनोदात्मक प्रकृति को भी पाठक से साझा करते हैं तथा उनके काव्य-सौष्ठव की विविधता को भी उजागर करते हैं | ऐसा करते हुए वे भयानक रस के अंतर्गत लंका-दहन जैसे प्रसंग पर टिक कर अपनी बात रखते हैं |इस विवरण में भी वे शब्दों के अर्थ के पीछे की आधार को भी प्रकट करते चलते हैं |लंकाकांड के अंतिम छंद में वे अंगद के चरित्र के माध्यम से तुलसी की विराट कल्पना को प्रकाशित करते हैं और इस अवसर पर लोंजाइनस के आधार पर उस विराट कल्पना से वीरता को जोड़कर पाठ का महत्व निर्धारित करते हैं |’कवितावली’ के समूचे विश्लेषण में एक ख़ास बात यह देखने को मिलती है कि नंदकिशोर नवल बेहद स्वाभाविक रूप से आधुनिक संदर्भों पर लिखते हैं |जैसे वे एक छोटा सा संस्मरण यहाँ पर साझा करते हैं कि ‘मानस चतुश्शती’ के अवसर पर नागार्जुन ने एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने हिन्दी क्षेत्रों की दुर्दशा का कारण ‘रामचरितमानस’ को बताया था और साथ ही यह सुझाव भी दिया था कि शूद्र और स्त्री निंदा संबंधी उक्तियों को सम्पादित कर उसे फिर प्रकाशित किया जाए | लेकिन जब उनके पास उन्होंने ‘कवितावली’ की प्रति देखी तो यह समझ के परे था |पूछने पर बाबा नागार्जुन ने उन्हें बताया कि इस कृति का आधा से अधिक भाग ‘उत्तर कांड’ पर है जिसमें तुलसीदास ने कलियुग,काशी की महामारियों और व्यक्तिगत रोगों के संबंध में लिखा है |यहाँ पर मध्यकाल की यथार्थवादी झलक से पाठक का सामना होता है क्योंकि यह तत्कालीन विडंबनाओं की एक सशक्त रूपरेखा खींचता है |नंदकिशोर नवल ने ‘कवितावली’ के कुछ छंदों का विश्लेषण करते हुए तुलसीदास के जीवन के उस यथार्थ की और पाठक का ध्यान आकर्षित किया है जिससे टकराकर अच्छे-भले लोग पलायन कर जाएँ | लेकिन तुलसीदास इस परिस्थिति में भी एक ही भरोसे के आश्रित रहते हुए भी रचनात्मक बल बनाये रखते हैं |बल्कि नंदकिशोर नवल यहाँ पर तुलसीदास के अक्खड़पन को कबीर की टक्कर का बताते हैं | इस संदर्भ में वे तुलसीदास द्वारा कलियुग से लोहा लेने को रेखांकित करते हैं | निश्चित रूप से यह दोनों कवियों के तुलनात्मक अध्ययन के लिए एक तर्कसंगत आधार देता है जिससे शोध और आलोचना अपना मुंह नहीं मोड़ सकते | कलियुग जैसी समझ से तुलसीदास की मुठभेड़ तो थी ही लेकिन उसके अलावा उन्हें ईर्ष्या के कारण वर्चस्वशाली ब्राह्मणों और शैवों का सामना भी करना पड़ा था |नंदकिशोर नवल इस पुस्तक में इसके दो आधार बताते हैं |एक तो ‘रामचरितमानस’ की लोकप्रियता के कारण और दूसरा यह कि वे काशी विश्वनाथ मंदिर के जैसे शैव बाहुल्य वातावरण में राम की भक्ति की महिमा प्रस्तुत कर रहे थे|लेकिन यहाँ यह बताना भी आवश्यक है कि इस स्थल पर वे तुलसीदास द्वारा की गयी राम की आलोचना को भी महत्व देते हैं जिससे उनकी ईमानदारी स्पष्ट होती है |नंदकिशोर नवल ने यहाँ एक कवित्त उद्धृत किया है जिसमें तुलसीदास राम को यह उलाहना दे रहे हैं कि उनकी घोर निंदा के समय भी त्रिलोकीनाथ चुप हैं |लेकिन जीवन जीने और रचनात्मक होने का हठ जैसे तुलसीदास का स्थायी चरित्र हो |ऐसी परिस्थिति में काशी-प्रवास का संदर्भ बहुत कारुणिक और आलोचनात्मक लगने लगता है | इसके लिए नंदकिशोर नवल ने ‘कवितावली’ में शिव को संबोधित तीन छंद प्रस्तुत किये हैं जो तुलसीदास के सत्य का संधान करने में सक्षम हैं |इनमें से एक में वे शिव से प्रार्थना करते हैं कि वे मृत्यु को गले लगाकर मुक्ति पाने के लिए उनकी इस नगरी में बसे हुए हैं |वे दो-टूक शिव से कहते हैं कि या तो वे उन्हें स्वस्थ कर दें या फिर मृत्यु का प्रसाद उनकी झोली में डाल दें |इस प्रसंग में वे माताप्रसाद गुप्त के हवाले से इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि १६१६ से लेकर १६२३ के बीच काशी पर प्लेग का प्रकोप हुआ था जिसमें तुलसीदास की जीवनलीला समाप्त हो गयी |प्रसंगवश वे यहाँ रामचंद्र शुक्ल,जयशंकर प्रसाद और रामधारी सिंह ‘दिनकर’ को भी याद करते हैं जिन्होनें असाध्य रोगों के समक्ष अपनी रचनात्मकता और शोध-प्रवृत्ति को शिथिल नहीं होने दिया जिसके परिणामस्वरूप उनकी ‘रसमीमांसा’,’सूरदास’,’कामायनी’ और ‘उर्वशी’ जैसी कृतियाँ हिंदी साहित्य और उसके चिंतन को अभूतपूर्व और ऐतिहासिक योगदान देती हैं |जीवन के संघर्ष और रचनात्मकता के अंतर्संबंधों की एक मार्मिक और दुर्लभ अवस्था यहाँ पाठक के मन में निस्संदेह अपना स्थान बनाने लगती है |इसके पश्चात् नंदकिशोर नवल ने ‘कवितावली’ के पाँच छंदों को अपनी व्याख्या के साथ प्रस्तुत किया है जो तुलसीदास की समकालीन विडंबनाओं के भयानक भावों को चित्रित करते हैं | इसमें भी वे खुलकर शब्दों के चुनाव और हिंदी आलोचना में प्रकट होते विचारात्मक तनावों का जिक्र करते हैं |इस अध्याय के अंत में नंदकिशोर नवल ‘हनुमानबाहुक’ के दो छंदों को योग्य मानते हुए उनकी पंक्तियों में आयी रोगों की पीड़ा और दुर्दशा को रेखांकित करते हैं जिससे पुनः तुलसीदास के यथार्थ-बोध का परिचय पाठक को मिलता है |लेकिन साथ ही यह मनुष्य की मध्ययुगीन विवशता को भी सामने लाता है कि आर्थिक पीड़ाओं और उपचार की अनुपस्थिति में भी तुलसीदास उस समय का सामना अपनी रचनात्मकता से ही कर रहे थे |
पुस्तक का दूसरा अध्याय ‘रामचरितमानस’ पर लिखा गया है | ‘रामचरितमानस के सन्दर्भ में नंदकिशोर नवल ने तुलसीदास के प्रबंधत्व पर चर्चा करते हुए माना है कि आज उसमें एक क्रम और व्यवस्था मिलती है |ऐसा वे इस आलोक में करते हैं कि ‘मानस’ के विद्वानों ने यह माना है कि उसके सर्गों की रचना में कोई क्रम नहीं था |वे स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि काकभुशुण्डि जिस क्रम में पक्षिराज गरुड़ को रामकथा सुनाते हैं, वास्तव में वही ‘रामचरितमानस’ का भी क्रम है |एक प्रकार से यह तुलसीदास के प्रबंध-कौशल को ही स्थापित करता है |’रामचरितमानस’ में अभिव्यक्त लोकमंगल को नंदकिशोर नवल केंद्रीय तत्व मानते हैं |इस संबंध में उन्होंने काव्यशास्त्रीय तत्वों को तुलसीदास द्वारा रचित श्लोक से निरर्थक माना है और एक महत्वपूर्ण बात यह सामने रखी है कि शायद आचार्य रामचंद्र शुक्ल को भी लोकमंगल की अवधारणा ‘रामचरितमानस’ के आरंभ में दिए हुए सरस्वती और गणेश-वंदना वाले श्लोक से ही मिली है |इस प्रकार देखें तो यहाँ ‘रामचरितमानस’ के केंद्र में रामभक्ति काव्यधारा तो है ही, लेकिन वह आधुनिक हिंदी आलोचना को भी रचनाओं को परखने के लिए एक स्थापित मानदंड देती है |नंदकिशोर नवल ‘रामचरितमानस’ के संदर्भ में एक विशेष दृष्टि यह देते हैं कि शायद लोकभाषा अवधी में रचना करने की ग्लानि तुलसीदास के मन में थी |इसका आधार भी वे उन्ही के छंदों को बनाते हैं जिनमें भाषा का एक विमर्श उभरने लगता है |’रामचरितमानस’ में प्रयुक्त किये गए हरिगीतिका छंद की लोकप्रियता को भी रेखांकित करते हुए उन्होंने उसके आधुनिक प्रयोगों की ओर पाठक का ध्यान आकृष्ट किया है |इन प्रश्नों के साथ नंदकिशोर नवल ने टिक कर ‘रामचरितमानस’ के समस्त कांडों का विस्तार से स्वाद लिया है और आस्वादन कराया है |जहाँ बालकांड में वे परशुराम-लक्ष्मण संवाद पर जोर देते हैं, वहीँ अयोध्याकांड का कैकेयी-मंथरा संवाद उन्हें आलोचक के रूप में भाया है |वे इस पूरे आँकलन में जहाँ शब्दों पर रुककर उन्हें जीते हैं वहीँ कई स्थलों पर वे उनकी कई पंक्तियों की तुलना अपने अन्य प्रिय कवियों से भी करते हैं |मसलन, कैकेयी प्रसंग की यह पंक्ति – “केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई” उन्हें निराला की ‘जागो फिर एक बार’ की पहली पंक्ति- “प्यारे जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें” की याद दिलाती है |यहाँ पर नंदकिशोर नवल स्पष्टतः यह कहते हैं कि निराला ने अनुप्रास रचने की कला तुलसीदास से ही सीखी है |’रामचरितमानस’ की भाषा के ही संदर्भ में नंदकिशोर नवल ने तुलसीदास की डिक्टेटरी को सप्रमाण पाठक के समक्ष रखा है |वे मानते हैं कि तुलसीदास भाषा की शक्ति का उपयोग करते हैं, उसे चमत्कार का साधन नहीं मानते| इसके उदाहरणस्वरुप उन्होंने तुलसीदास द्वारा संस्कृत शब्दों के निज प्रयोग और अंतरण को प्रस्तुत किया है |तुलसीदास के ही कई उदाहरण प्रस्तुत कर नंदकिशोर नवल ने इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास किया है कि उनके काव्य में नए उपमान नहीं मिलते |’रामचरितमानस’ पर लिखे इस अध्याय के अंत में वे स्वयं यह उद्देश्य को प्रकट करते हैं कि उन्होंने इसके मूल्यांकन में शास्त्रीयता से बचने का ही प्रयास किया है|
पुस्तक का अंतिम अध्याय तुल्सीदास की रचना ‘विनयपत्रिका’ पर इसी नाम से केंद्रित है | इस अध्याय में नंदकिशोर नवल यह अनुमान प्रकट करते हैं कि पहले इसमें पदों की संख्या कम थी और इसे रामगीतावाली का नाम दिया गया था लेकिन बाद में तुलसीदास ने इसमें पद जोड़ दिए और इसका नाम विनयपत्रिका कर दिया |नंदकिशोर नवल ‘गीतावली’ और ‘कृष्णगीतावली’ की तुलना में विनयपत्रिका को अधिक संवेदनशील मानते हैं और यह उनका व्यक्तिगत मत है कि प्रबंधत्व के कारण ‘रामचरितमानस’ ही उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति है |वे मूलतः इसे आत्मनिवेदनात्मक पदों का संग्रह मानते हैं जिसमें बहुत अधिक पुनरावृत्ति है |वे इसके अंतिम पदों को पढ़ने की दृष्टि से त्रुटिपूर्ण मानते हैं क्योंकि वे बेमेल छंदों के योग से लिखे गए हैं |’विनयपत्रिका’ का मूल्यांकन उन्होंने चार भागों में किया है जिनमें पहले दो उसी के दो भाग हैं – पहला स्तुति खंड और दूसरा विनय खंड |नंदकिशोर नवल के अनुसार स्तुति खंड की भाषिक उपस्थिति द्वैभाषिक है – अवधी मिश्रित सरल ब्रजभाषा तथा संस्कृतनिष्ठ शब्दावली के पद| लेखक का मानना है कि संस्कृतनिष्ठ शब्दावली के पदों में जहाँ तुलसीदास का विराट व्यक्तित्व प्रकट होता है वहीं सरल भाषा के पदों में कवित्व उमड़ कर पाठक के समक्ष आता है | इसके पद “गाइए गणपति जग बंदन…..” के विवेचन के साथ वे अपने बचपन का संस्मरण भी साझा करते हैं जिससे पता चलता है कि लोकोत्सवों तथा विभिन्न संस्कारों के अवसर पर तुलसीदास की रचनाएँ संस्कृति निर्माण का एक बहुत बड़ा माध्यम रही हैं |आश्चर्य तो लोक-व्यवहार और पाठ के मध्य संतुलन को देख कर होता है |’विनयपत्रिका’ के स्तुति खंड के विवेचन में नंदकिशोर नवल का मन विशिष्ट रूप से शिव और शक्ति की स्तुति से संबंधित पदों में रमा है |पूर्व की रचनाओं की भाँति उन्होंने यहाँ भी पाठ में स्थिर होकर, शब्दार्थ विश्लेषण के साथ अपनी बात कही है |स्तुति खंड के एक अन्य अत्यंत प्रसिद्ध पद – “श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन ….” के साथ वे सितारा देवी द्वारा इस पर पर प्रस्तुत किये गए नृत्य का संस्मरण बताते हैं तो इस पद के साथ निराला की संगीतमय आत्मीयता का उल्लेख भी करते हैं |नंदकिशोर नवल विनय खंड की सबसे बड़ी विशेषता उसकी सरल भाषा और संप्रेषणीयता को मानते हैं |वे इस संप्रेषणीयता को तुलसीदास की लोकप्रियता के बहुत बड़े कारक के रूप में देखते हैं |इसके पश्चात् उन्होंने ऐसे समस्त पदों की विवेचना अपनी निर्धारित और स्वाभाविक शैली में की है, जिससे उनकी शब्द-मीमांसा और आस्वादन की प्रवृत्ति पाठक को बांधे रखती है |एक सुप्रसिद्ध पद – “अब लौं नसानी…….” के विवेचन में तो वे उस रोचक प्रसंग को याद करते हैं जिसमें इस पद में आए शब्द ‘चिंतामणी’ के आधार पर आचार्य केशवप्रसाद मिश्र ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल के निबंध-संग्रह का नामकरण कर दिया था |
‘विनयपत्रिका’ पर लिखे इस अध्याय का तीसरा भाग विलक्षण है |इसका कारण यह है कि इसमें नंदकिशोर किशोर नवल ने उन पदों को एक साथ अर्थ सहित प्रस्तुत किया हैजिनमें तुलसीदास ने आत्मनिंदा की है |इस आत्मनिंदा की यह विशेषता बतायी गई है कि यह वैष्णव संप्रदायों की रूढ़ियों का निर्वाह करने के लिए नहीं है बल्कि इसमें तुलसीदास के जीवन की ग्लानि और पश्चाताप के वास्तविक स्वर हैं |इस संदर्भ में नंदकिशोर नवल यह सत्यापित करते हैं कि ‘मानस का हंस’ में अमृतलाल नागर ने तुलसीदास का जो संबंध वेश्या से होने की बात कही है, वह सही है और उसका आधार भी उन्होंने ‘विनयपत्रिका’ को माना है |इसलिए जो आत्मनिंदा इन पदों में ध्वनित हो रही है, वह उनके जीवन का सच है |आत्मनिंदा के इन पदों में भी शब्द और साहित्य को ही केंद्र में नंदकिशोर नवल ने रखा है |’विनयपत्रिका’ के अध्याय के अंतिम भाग में नंदकिशोर नवल ने उन पदों की अर्थ सहित प्रस्तुति की है जिनमें कलियुग वर्णन,दार्शनिकता व कलात्मक सौंदर्य सहज रूप में अभिव्यक्त हुए हैं |इससे यह धारणा बलवती होती है कि चिंतन के जो विषय तुलसीदास के जीवन में निर्मित हुए वे उनकी किसी एक ही रचना में अभिव्यक्त नहीं हुए बल्कि उनकी एक सतत माला उनके साहित्य में बनती है |
देखा जाए तो यह पुस्तक एक प्रकार से तुलसीदास के साहित्य का एक संचयन है जिसमें नंदकिशोर नवल ने कहीं शब्द-साहचर्य तो कहीं संस्मरण और आवश्यकतानुसार लंबे समय तक चलने वाली बहसों को ध्यान में रखकर अपना हस्तक्षेप भी किया है |इन समस्त प्रवृत्तियों और अंतर्विधात्मकता के कारण इसे समग्रतः एक कवि के साथ अपने गहरे आत्मीय संबंधों और मूल्यांकन का औपचारिक-अनौपचारिक (मिला-जुला) पाठ कहना समीचीन होगा जिसमें एक शोधार्थी को भी अपने उपयोग की सामग्री मिलती है तथा कविता के आस्वादकों को भी तुलसी-साहित्य में डूबने के पर्याप्त अवसर प्राप्त होते हैं |
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं।
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