अरुणाकर पाण्डेय
मुझे अमिताभ बच्चन (सुकुमार) और धर्मेंद्र जी (परिमल) की जोड़ी ‘शोले’ की तुलना में ‘चुपके-चुपके’ (1975) में अधिक पसंद आई (जय और वीरू के प्रति सम्मान के साथ)। मेरे लिए यह एक दूरदर्शन की फिल्म रही है। अधिक पसंद किये जाने का कारण शायद इस फिल्म के विभिन्न किरदार, कहानी की लय और आदरणीय हृषिकेश मुखर्जी की दूरदर्शिता है। प्रत्येक पात्र अद्वितीय है और उसमें अभिनय के लिए पर्याप्त जगह है। कहानी स्वस्थ मनोरंजन से भरपूर है और कहीं भी आपको अपनी पकड़ से छूटने नहीं देती। दो नायक होने के बावजूद भी ओमप्रकाश जी उतने ही प्रभावी हैं और उन्होंने अपनी पीढ़ी का बखूबी प्रतिनिधित्व किया है। फिल्म में दिखाए गए अधिकतर स्थान भी आम जीवन में दिखने वाले तत्कालीन भारतीय शहरों के बंगलों और बगीचों जैसे ही हैं।
संवाद की बात करें तो प्रत्येक सीन उनकी वजह से जीवंत हो उठा है । विशेषकर, जब हिंदी भाषा की शुद्धता को लेकर धर्मेंद और ओमप्रकाश जी ने जो लय बनाई है, उस पर उस समय का दबाव बनता दिखता है । वे ओमप्रकाश जी से अक्सर शुद्ध हिंदी में बात करते हैं तो लगता है जैसे भाषा का एक अलग विमर्श ही खड़ा हो गया हो । लेकिन यह और रोचक है कि बंगाली मूल के हर्षिकेश मुखर्जी ने भाषा की शुद्धता को और व्यावहारिकता को लेकर बहुत संतुलित तरीके से अपनी बात रखनी चाही है और हिंदी प्रदेश के चरित्रों के माध्यम से उसे कहलवाया है जिनमें एक पीढ़ी का अंतर भी दिखता है। संदेश स्पष्ट है कि युवा पीढ़ी भाषा और संस्कृति के अपने संस्करण खुद लेकर आती है।
यदि सांस्कृतिक विषयों पर ऐसी रचनात्मक फिल्मों को लोग समय समय पर देखें और याद करें तो स्वस्थ मनोरंजन की परंपरा की समझ को संभवतः विकसित किया जा सकता है,जिसकी जरूरत आज के समाज में दिखती है ।
लेखक -दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं.