अरुणाकर पाण्डेय

अक्टूबर 2016 की बात है ।तब भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के बारे में शिक्षण-भाषा के संदर्भ में एक समाचार पढ़ने को मिला था कि अंग्रेज़ी न जानने के कारण कई छात्र परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो पाते और उन्हें संस्थान से कोर्स पूरा किये बिना बाहर होना पड़ता है |इसके लिए जो आँकड़ा जारी हुआ था, वह यह बताता था कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान की विभिन्न शाखाओं में प्रवेश लेने वाले कुल छात्रों में से लगभग एक प्रतिशत हर साल बाहर हो जाते हैं | उस वर्ष कानपुर शाखा से तीन हजार छात्रों में से तीस, दिल्ली में साढ़े आठ सौ छात्रों में से बारह, खड़गपुर में से हजार से भी अधिक छात्रों में से छह, गुवाहाटी में छह सौ में से पाँच छात्र तथा रुड़की शाखा से दस छात्रों को बाहर निकला गया था | उक्त विषय पर प्रकाश डालते हुए आई.आई.टी. कानपुर के तत्कालीन डीन (एकेडमिक अफेयर्स) श्री नीरज मिश्रा का व्यक्तव्य भी प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने कहा था कि कई छात्रों को दिक्कत होती है क्योंकि उन्हें स्कूली शिक्षा हिंदी से मिली होती है |साथ ही उन्होंने कहा था कि वही आई.आई.टी. में क्लास लेक्चर्स से किताबें तक सब कुछ अंग्रेज़ी में हैं और आई.आई.टी. कानपुर ने इस समस्या को कुछ साल पहले पहचाना था |
भाषा के कारण यदि निष्कासन की इस प्रक्रिया और श्री नीरज मिश्रा के इस व्यक्तव्य का मूल्यांकन किया जाए तो विज्ञान और प्रौद्योगिकी से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण समस्याएँ उजागर होती हैं |एक तो यह कि जो प्रतिभाएँ इन संस्थानों में प्रवेश पाती हैं, वे भाषा के अवरोध के कारण बहुत बड़ी असफलता का शिकार हो जाती हैं जिससे न केवल उनके भविष्य को तो धक्का लगता ही है, लेकिन देखा जाए तो उचित कदम न उठा पाने के कारण देश में अभियांत्रिकी और अन्य भाषाओं का भी नुक्सान होता है जिससे सिर्फ यही धारणा बलवती होती है कि हिंदी इन विषयों के लिए अक्षम, अनुपयोगी और अप्रयुक्त ही सिद्ध होगी |यहाँ यह कहना आवश्यक है कि इन विषयों में अंग्रेज़ी या विश्व की अन्य भाषाओं से कोई विरोध नहीं है लेकिन साथ ही यह याद रखना भी आवश्यक है कि किसी विषय को किसी एक या विशिष्ट भाषा पर निर्भर बना देना वास्तव में उसका अलोक्तान्त्रिकरण करना है | इसलिए यदि इस विषय को भाषाओं की टकराहट की दृष्टि से देखा जाएगा तो यह कहीं से भी संगत या उचित नहीं होगा बल्कि यह उक्त विषय की प्रतिभा, भाषा की अभिव्यक्ति क्षमता और स्वेच्छा का प्रश्न है !
दूसरी बड़ी समस्या जिसकी ओर ध्यान आकर्षित होता है, वह यह है कि हिंदी या अन्य भाषाओं में इन विषयों के शिक्षण और पाठ्य-सामग्री के प्रकाशन का गहन अभाव है |इसके कुछ कारगर समाधान हो सकते हैं, लेकिन इसके लिए इन विषयों के शिक्षकों, भाषाविदों और प्रकाशकों को साथ काम करना पड़ेगा | इसमें मूल और प्राथमिक भूमिका तो शिक्षक की ही है क्योंकि यह वही सबसे बेहतर तय कर सकता है कि उसे ऐसी प्रतिभाओं की मदद कैसे करनी है जो एक भाषा के वातावरण के अभाव में भी प्रौद्योगिकी की क्षमता विकसित कर सकते हैं | इसमें यह अधिक कारगर होगा यदि इस विषय पर विभिन्न अभियांत्रिकी शाखाओं के अध्यापक सांगठनिक रूप से सोचें | यह नहीं कि इस समस्या का समाधान इससे तुरंत हो जाएगा, लेकिन ऐसी गतिविधियों से यह समस्या चिंतन के केंद्र में आ सकती है और कुछ कदम इस दिशा में बढ़ सकते है |जाहिर है कि यह भी ईच्छाशक्ति का ही मामला है |इस संबंध में वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग से भी सलाह और मदद ली जा सकती है |
तीसरी बड़ी समस्या, जो आज की व्यावसायिक आवश्यकता से जुड़ी है, वह यह है कि यह कोर्स करने के बाद सरकारी और निजी क्षेत्रों में भी अर्थोपार्जन के लिए हिंदी और भारतीय भाषाओं के लिए सकारात्मक वातावरण बनाने की जरूरत है |आज की दुनिया देखते हुए तो यह नितांत दुष्कर या असंभव प्रतीत होता है, लेकिन यदि हम चाहते हैं कि जमीनी और ग्रामीण स्तरों पर बदलाव आए तो कम से कम हमें इस समस्या का समाधान खोजने के लिए तत्पर तो रहना ही होगा| असंभव लगने के कारण उसे उपेक्षित कर देना उन प्रतिभाओं के प्रति घोर अन्याय होगा जो भाषा के कारण अवसरविहीन रह जाते हैं | इस परिप्रेक्ष्य में यह देखना चाहिए कि सरकारी क्षेत्रों के लोग इस दृष्टि से क्या काम करते हैं जैसे कि इसरो और पेट्रोलियम मंत्रालय जैसी संस्थाओं के विगत कई वर्षों के प्रयास | उस पर विचार करना चाहिए | दूसरी दिशा यह है कि उन देशों का विशिष्ट अध्ययन करना चाहिए जहाँ स्वभाषा में इन विषयों की पढ़ाई होती है | तीसरी महत्वपूर्ण दिशा यह हो सकती है कि यह प्रयास करना चाहिए कि निजी क्षेत्र के लोग भी इस समस्या पर संवाद करने के लिए प्रेरित हों, आगे आएँ, शायद व्यावहारिक समाधान निकल सके |
इसके साथ यह कहना भी आवश्यक है कि इन विषयों में भाषा की शुद्धता पर अधिक बल न देते हुए एक ऐसी भाषा की अपेक्षा होनी चाहिए जिसमें पारिभाषिक शब्द और भाषा के लोकप्रियस्वरुप का सम्मिश्रण हो सके |यदि ऐसे कुछ प्रयोग किए जाएं तो संभव है कि इस निराशाजनक अवस्था से बाहर निकला जा सके !!
लेखक –दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रध्यापक हैं ।