रमेश कुमार मिश्र
संस्कृत तनया हिंदी के प्रचार -प्रसार और महत्ता को स्थापित करने की तिथि 14 सितम्बर हिंदी दिवस के रूप मनाया जाता है. ध्यातव्य है कि सितंबर माह का प्रथम पक्ष पूरा का पूरा हिंदी पखवाड़ा के रूप में ही मनाया जाता है.भारत सरकार, राज्य सरकार के विभिन्न विभागों और देश की नवरत्ना कंपनियों के आफिसों में हिंदी दिवस को लेकर विशेष उत्साह की प्रतियोगिताएं भी चलती रहती हैं. बहुत सारे विभागों में कविता या निबंध लेखन पर पुरस्कार भी निर्धारित किए जाते हैं. यह सब शासकीय दरवाजों के अंदर प्रांगण में हिंदी की महिमा स्थापित करने के टूल्स के रूप में विछाये जाने वाले रेड कार्पेट हैं.
हिंदी जहाँ पढ़ी और पढ़ाई जाती है वह होते हैं स्कूल कालेज और विश्वविद्यालय यहाँ भी प्रत्येक वर्ष हिंदी पखवाड़े को लेकर विशेष उत्साह दिखता है. देश के कुछ विश्वविद्यालय और महाविद्यालय इस पखवाड़े में इतने सक्रिय होकर कार्यक्रम करते हैं कि कई बार आम जन के लिए संशय का वातावरण उपस्थित हो जाता है कि सेमेस्टर सिस्टम में पूरे वर्ष में उस विश्वविद्यालय या महाविद्यालय में जितनी कक्षाएं आयोजित न हुई हों उससे अधिक तो हिंदी पखवाड़े में आयोजित हो जाती हैं . हिंदी भारत की मातृभाषा है यह माला पहनने और पहनाने के कार्यक्रम तक सीमित रहे तो यह हिंदी के साथ न्याय नहीं होगा. हिंदी को चित्रहार की दशा से बाहर निकालकर यथार्थ व्यवहार में लाना राष्ट्र प्रेम और राष्ट्रीय नीति के लिए हितकर हो सकता है.
खैर हिंदी का महात्म्य पक्ष स्थापित करने का स्तुत्य प्रयास जिस भी विधि से हो सके उसका हर विधि स्वागत ही होना चाहिए.
भारत का कुछ कालखंड भाषा और संस्कृति की दृष्टि से बहुत अच्छा नहीं था . वह काल खंड था मुगलों और अंग्रेज़ों के द्वारा भारत पर राज करने का काल. मुगल फारसी पसंद थे तो अंग्रेज आधारहीन अंग्रेजी के. जाहिर सी बात है कि जब किसी मुल्क पर शासन करना हो तो उसमें स्त्री और संस्कृति के साथ भाषा की सभ्यता का तहस- नहस किया जाना आवश्यक माना जाता है. और यदि यह सीधे न हो सके तो इसके लिए सीधा तरीका है कि वहाँ के स्कूल कालेज और विश्वविद्यालयों में अपनी भाषा का पाठ थोपना. भारत के साथ भी कुछ ऐसा ही करने का प्रयास था. लेकिन पूर्णतया ऐसा कर सकने में न तो मुगल सक्षम हुए और न ही अंग्रेज. इसके पीछे का मजबूत कारण था हमारे देश की मजबूत आध्यात्मिक परंपरा जिसने आस्था के साथ भाषा को भी बलपूर्वक संभाले रखा .आस्था की बलवती धारणा में अध्यात्म और भाषा दूध में पानी की तरह मिश्रित प्रवाहमान रही है. यही कारण है कि कुछ वर्षों की गुलामी के बाद भी हमारी भाषा का स्वाद हम भारतीयों के जेहन में यथावत रहा और हम अपनी मातृभाषा हिंदी को अपने मस्तक और दामन में संजोए राह चलते रहे. यह अलग बात है कि कुछ अंग्रेजों के पिट्ठू या मुगलों के दरबारियों ने भाषा के फिरंगी या बादशाही प्रभुत्व का प्रभाव जयचंदी मिजाज में थोपने की कोशिश की लेकिन वह भी निष्प्रभावी ही रही.
दर्पण में तस्वीर तभी दिखती है जब कि उसके पीछे पालिश हो इसी तरह किसी देश की सच्ची तस्वीर उसकी अपनी मातृभाषा रूपी पालिश में छुपा होती है. किसी राष्ट्र की प्रगति का आधार उसकी अपनी मातृभाषा ही होती है. और वह तब अत्यधिक प्रभावी हो जाती है जबकि कार्य और व्यवहार दोनों की भाषा अलग – अलग न होकर एक ही हो. भारत में यह एक विडम्बना बनी हुई है कि हमारी मातृभाषा तो हिंदी है और कार्यालय और न्यायालय की भाषा अंग्रेजी है . ऐसे में कहता- सुनता में समझ का अंतर तो लाजमी है. अंग्रेजी भाषा ने भारत की प्रतिभा का बहुत नुकसान किया है. कुछ काल विशेष में शासकों के चाचाओं ने ऐसा माहौल तैयार किया कि छिपे तौर पर कि जो अंग्रेजी जाने वह ही डाक्टर बैज्ञानिक और इंजीनियर बन सकता है बाकी सब बेकार. इस माहौल ने अधिसंख्य पढ़ी- लिखी आबादी को हीन भावना का शिकार बना दिया. जिससे इस काल में भारत में न जाने कितने और बड़े आविष्कार होने से रह गए. कहना न होगा कि यह काल भारत के लिए बहुत बड़े नुकसान का काल रहा है.
न जाने कौन जिम्मेदार है इस बात को गढ़़ने का कि जो अंग्रेजी में सोच सकते हैं वही आविष्कारक हो सकते हैं संस्कृत और हिंदी में नहीं. क्या पागलपन था यह कह नहीं सकते हैं? . वे लोग इस बात से अनभिज्ञ तो नहीं ही रहे होंगे कि हमारी संस्कृत भाषा में जो शोध उपलब्ध हैं वह किसी अंग्रेजी भाषा में न भूतो न भविष्यत् . हिंदी तो संस्कृत के गर्भ से जन्मी है फिर उसके प्रति अविस्वास क्यों? यह तो वही कहावत वाली बात हो गयी कि “चौबे गए छब्बे बनने दूबे बनकर लौटे.”
यूं तो हिंदी को किसी राज प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं थी. लेकिन अंग्रेजी हनीमून में खोए कुछ लोगों का दबदबा कम करने के लिए 14 सितंबर 1949 को हिंदी को भारतीय संविधान की तरफ से हिंदी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त हुआ और फिर इसे ही हिंदी का बड़ा हित समझकर इसके लिए 14 सितंबर की तिथि हिंदी दिवस के रूप में सरकारी तौर पर घोषित कर दिया गया . फिर क्या सरकारी और क्या गैर सरकारी क्या विद्यालय और क्या विश्वविद्यालय क्या पत्र और क्या समाचार पत्र सब जगह हिंदी दिवस पर हिंदी ही छा गयी. और गणेश चतुर्थी की तरह हिंदी दिवस पखवाड़ा भी आस्था को बलवती करने का मजबूत पक्ष बन गया.
अपने ही देश में आज भी हिंदी समूचे तौर पर कार्यालय की भाषा नहीं बन सकी है, शायद इसलिए भी हिंदी पखवाड़ा मनाना अनिवार्य हो जाता है.
विडम्बना कहें या दु:संयोग कहें कि इसमें आज भी विस्मय है कि भारतभूमि की माटी में हिंदी इस बात की जद्दोजहद में उलझी हुई है कि यह समूचे देश के कार्यालय की भाषा होनी चाहिए या नहीं . इस बात के निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए यह समझना जरूरी है कि किसी दर्पण में तस्वीर दिखना तभी संभव हो पाती है जबकि उसके पीछे एक पालिश लगी हो उसी प्रकार किसी देश की सच्ची तस्वीर का रूप तभी उभर कर आती है जब उसके उर में उसकी भाषा की पालिश हो. कहना न होगा कि यह राजनीति से हटकर आवश्यक नीति का हिस्सा है.
यह बात तो किसी से छुपी नहीं है कि जिस देश की अधिसंख्य जनता हिंदी भाषी हो उस देश में हिंदी का त्यौहार तो होता है पखवाड़ा भी मनाया जाता है लेकिन उन कार्यालयों में भी जहाँ यह सब बड़े धूमधाम से मनाया जाता है वहाँ भी काम पूरे वर्ष अंग्रेजी में ही होता है.
भाषा मूक नहीं होती है भाषा बोलती है. यह समझने की जरूरत है. “निज भाषा उन्नति का मूल है और यह किसी राष्ट्र के लिए परमावश्यक है. तभी तो आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह भारतेंदु जी को यह लिखना पड़ गया कि “निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल बिन निज भाषा ज्ञान के मिटै न हिय का शूल”
राष्ट्री की बात जब मातृभाषा में होती है तो राष्ट्र का उत्थान शीघ्रातिशीघ्र शत प्रतिशत संभव हो पाता है इसमें संदेह नहीं है. मातृभाषा में राष्ट्र हित राष्ट्र प्रेम सुरक्षित सदैव जीवंत रहता है. इसके एक जीवंत प्रमाण तुलसीदास जी हैं. निज भाषा के प्रति तुलसी के मोह ने तुलसी और तुलसी कृत काव्य रामचरितमानस को विश्व का सर्वाधिक ख्यातिलब्ध काव्य बना दिया. और तुलसी की घोषणा के अनुसार उसमें वह सब कुछ के बारे में लिखा है जो कुछ शास्त्र पुराण और ब्रह्माण्ड में है. जब इतना बड़ा उदाहरण हमारे बीच उपस्थित है तो अंग्रेजी मोह इस कदर क्यों? साहित्यकारों की कलम ने हिंदी को शासकों से ज्यादा सुरक्षित रखा है. किसी भी देश में शासक तो भिन्न भिन्न मति या किसी काल विशेष में नास्तिक शासक बन सकता है और ऐसे होते रहे हैं और होते रहेंगे इस यथार्थ से इंकार नहीं किया जा सकता है. कभी किसी देश का शासक किसी विदेश प्रेम वाला बैठ गया तो वह तो भाषायी नुकसान अपने देश को पहुंचाने का काम करेगा ही ऐसे में उस देश के साहित्यकार और पत्रकारों की जिम्मेदारी बनती है कि अपनी भाषा के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए सजग रहें. शासक आएंगे- जाएंगे साहित्य ही है जो सदैव मातृभाषा को रक्षित और सुरक्षित रखेगा जनता के बीच इसलिए अपनी मातृभाषा में अधिक से अधिक रचना का सृजन निरंतर और नितान्त आवश्यक है.
साहित्यकारों के साथ – साथ किसी देश की भाषा सुरक्षित करने का दायित्व जिसके कंधे पर सबसे अधिक होता है वह होते हैं पत्रकार , पत्रकारिता और भाषा का चोली दामन का साथ होता है. एक के बिना दूसरा अधूरा है. पत्रकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह पत्रकारिता के लिए जो भाषा अपनायी जाए वह खबर की भाषा हो और वह पाठक और तथ्य के बीच में सपाट संदेश प्रेषित करने की गुणवत्ता रखती हो. इस बात का समर्थन हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार रघुवीर सहाय जी भी करते हैं. रघुवीर सहाय साहित्यकार और पत्रकार को अलग – अलग न देखते थे उनका मानना था कि एक दोनों एक ही हैं वे लिखते हैं कि ” पत्रकार और साहित्यकार दोनों में कोई अंतर है क्या? मैं मानता हूँ कि नहीं है . इसलिए नहीं कि साहित्यकार रोजी के लिए अखबार में नौकरी करते हैं बल्कि इसलिए कि पत्रकार और साहित्यकार दोनों नये मानव संबंध की तलाश करते हैं. दोनों ही दिखाना चाहते हैं कि दो मनुष्यों के बीच नया संबंध क्या बना. दोनों के उद्देश्य में पूर्ण समानता है. कृतित्व में समानता कमोबेश है.” वे आगे लिखते हैं कि पत्रकार के लिए यथार्थ वही है जो संभव हो चुका है. साहित्यकार के लिए वह है जो संभव हो सकता है ( लिखने का कारण पृष्ठ 177) .
रघुवीर सहाय जी का यह कथन हिंदी भाषा को लेकर अति महत्वपूर्ण हो जाता है. और साहित्यकार और पत्रकार दोनों के कंधे पर दायित्व का भार सौंप जाता है. जिसके लिए हम साहित्यकारों को चित्रहार की दुनिया से बाहर आकर यथार्थ के व्यवहार में सृजन करने की जरूरत है.
राजकीय दायरा, साहित्यकार है पत्रकार इन सभी का जितना दायित्व भारत में हिंदी को सशक्त बनाने का है उससे अधिक दाउ पाठक का है .पाठक के पास हिंदी का रूप बिगाड़ने वाले अखबार व साहित्यकारों की भाषा का बहिष्कार करने का अधिकार है. भारत में कुछ अंग्रेजी घराने के अखबारों ने अपने हिंदी संस्करणों के साथ हिंदी का स्वरूप बिगाड़ने का षड्यंत्र रचा. जिसके कारण भारत में विशुद्ध हिन्दी की जगह हिंग्लिश ने लिया. हिंग्लिश का एक कारण तकनीक भी है. यथा मोबाइल यंत्र और इसकी वजह से विराट विस्तार का सोशलमीडिया. हालांकि कि सोशलमीडिया में एक तरफ जहाँ हिंदी के स्वरूप के साथ खिलवाड़ करने की साजिश चली तो दूसरी तरफ से भारत की माटी के सपूतों ने हिन्दी की वकालत में कलम तोड़ समर्थन भी उपस्थित किया.
मीडिया घराने हिन्दी को बचाने में कुछ कामयाबी हासिल किए. छुपे तौर पर जब अंग्रेजी घराने के अखबार अपने हिंदी संस्करणों के माध्यम से हिंदी का स्वरूप बिगाड़ने में लगे थे तब कुछ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के चैनल हिन्दी में आए और उनका संचालन विशुद्ध हिंदी में हुआ जिससे एक तरफ जहाँ हिंदी में रोजगार के अवसरों की संभावना बढ़ी तो दूसरी तरफ हिन्दी का बोलबाला भी. लेकिन इनके द्वारा बहस और विज्ञापनों में हिन्दी भाषा के मूल अस्तित्व के साथ छेड़छाड़ का बीभत्स खेल भी शुरू हो गया. जो कि कहीं न कहीं हिन्दी के लिए घातक सिद्ध हुआ .
भारतीय फ़िल्म घरानों ने हिन्दी को सुरक्षित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. पुराने हिंदी गानों के लेखकों ने हिंदी को समृद्ध किया . कालजयी गीत हिंदी में लिखे और गाए गये.
वर्तमान में भारत के केंद्रीय गृह व सहकारिता मंत्री अमित शाह जी राजभाषा के पुनः अध्यक्ष चुने गए. इससे पहले 2019-2024 के पांच वर्ष के कार्यकाल के दौरान भी अमित शाह जी ही संसदीय राजभाषा के अध्यक्ष रहे. चुनाव के बाद अपने संबोधन में उन्होंने जिस सच्चाई से दबी जुबान में हिंदी की महत्ता को कहा वह यह समझने के लिए काफी है कि पिछले 75 वर्षों की यात्रा के इतिहास में हिंदी ने पहले से बेहतर उपलब्धि हासिल की है. पिछले दस वर्षों के मोदी सरकार में हिंदी की स्थिति में पहले से कुछ अधिक परिवर्तन दर्ज हुआ या कहें कि बेहतर स्थिति बनी. लेकिन वे इस बात का दावा न कर सके कि हिंदी ने ऐतिहासिक सफलता दर्ज की है. यह उनकी हिंदी के प्रति ईमानदारी की भाषा है. जो कि देश उनसे यही अपेक्षा करता भी. उनके भाषण में जो महत्वपूर्ण था वह यह कि भारतीय भाषाओं में हिंदी को बिना किसी स्पर्धा के बढ़ाना है और हिंदी स्थानीय भाषाओं की सहेली बनकर अनिवार्य बनेगी. उनका यह कथन बहुत से राज्यों से भाषा विवाद को जन्म दे रहे लोगों पर पटाक्षेप करने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है.
इसी काल में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने लगातार भारतीय विधि विश्वविद्यालयों में स्थानीय भाषा में विधि की पढ़ाई हो पर जोर देकर भारत में हिंदी के महत्व को स्थापित करने का सफल प्रयास किया है.
हिंदी भाषा में रोजगार के अवसर नित प्रति बढ़ते ही जा रहे हैं. यह इस बात से भी समझा जा सकता है कि दुनिया के 170 देशों में आज हिंदी पढ़ी और पढ़ायी जा रही है. फिजी की तो आधिकारिक भाषा हिंदी है. अमेरिका रूस ब्रिटेन और अन्य देशों में हिंदी का बहुत ही मजबूत स्थिति में उपस्थिति बनाए हुए. अब ऐसे में हिंदी को लेकर जागने और जगाने का समय आ गया है. फिर कहूंगा कि हिंदी को चित्रहार से यथार्थ व्यवहार में चरितार्थ करने की जरूरत है. तभी हमारे मनीषी सूर तुलसी कबीर मीरा केशव घनानंद भूषण प्रसाद पंत निराला महादेवी भारतेंदु प्रेमचंद त्रिलोचन रघुवीर सहाय आदि के संघर्षों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
बस अंत में यही कहूंगा कि
हिंदी है तो हम हैं ,
यह भाव सदा उर मध्य रहे.
सोचो हिंदी बोलो हिंदी,
निज भाषा पर अभिमान करो.
भारत माटी को कर प्रणाम,
अब हिंदी में सब काम करो.
एम ए हिंदी दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली व हिन्दी पत्रकारिता पी.जी.डिप्लोमा दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली