ठाकुर प्रसाद मिश्र
जब भी प्रभु श्री राम के भक्त श्री राम चरित मानस का पाठ करते हैं तो दंडक वन का विशेष रूप से
उल्लेख आता है . और कहा जाता है कि भगवान श्री राम के चरण प्रवेश मात्र से इसका शाप दूर हो गया था. यह चर्चा अन्य हिंदू धर्म शास्त्रों में भी आती है. अत: इस लेख में ही आज यही चर्चा है.
परम तपस्वी ऋषि भगवान भृगु के पुत्र थे शुक्राचार्य. ए तमस प्रधान राक्षसों के गुरू रहे हैं. इनका तेज
अतुलनीय था. इन्हें संजीवनी विद्या का ज्ञान था. जिसके प्रभाव से युद्ध इत्यादि अवसरों पर अपने मरे
असुर वीरों को पुनर्जीवित कर लेते थे.
आदिकाल यानी सत्य युग के प्रारंभ में महाराज वैवस्वत मनु के पुत्र जब महाराज इच्छाकु राजा थे तो
उनके सौ पुत्र उत्पन्न हुए, जिसमें एक पुत्र अत्यंत असहज स्वभाव वाला और अति उद्दंड था वह पिता की किसी भी शिक्षा पर ध्यान न देकर मनमानी कार्य करता था.अत: राजा ने उसे दंड नाम से अभिहित कर विन्ध्य पर्वत के दक्षिण में एक बडे़ भाग का राजा बनाकर अपने से दूर भेज दिया. वहाँ उसने उस क्षेत्र में तप निष्ठ अनेक ऋषियों में से असुर गुरू शुक्राचार्य को गुरू रूप में वरण किया और उनका शिष्य बन
शिक्षा ली और उसके बाद अपना राजपद संभालने लगा.
एक समय की बात है, दंड अपने गुरू शुक्राचार्य से मिलने उनके आश्रम पर गया उस दिन शुक्राचार्य आश्रम पर नहीं थे. अकेली उनकी पुत्री अरजा आश्रम की देखभाल कर रही थीं. वह युवा एवं अनिन्द्य सुंदरी थीं. दंड उन पर आसक्त हो गया. यही दशा अरजा की भी थी, लेकिन वह अत्यंत यौवना कुमारी थी. बिना पिता की आज्ञा के वह तापस कन्या कोई ऐसा कार्य जो अनुचित हो करने के लिए तैयार नहीं थी.
उस पर पिता का भय भारी था. लेकिन जब दंड ने बलात् उसे चाहा तो वह प्रतिकार या अधिक विरोध न कर सकी, और दंड ने उसके कौमार्य को खंडित कर दिया. उन्माद समाप्त होने पर दंड अपने कृत्य से भयभीत होकर वापस अपने राजमहल चला गया.और अरजा अपने साथ हुए कुकृत्य से भयभीत होकर रोने लगी, और निरंतर रोती रही कुछ समय बाद, जब शुक्राचार्य अपने आश्रम पर लौटे तो अरजा (पुत्री) को रोते हुए देखा. कारण पूछने पर उसने अपने साथ दंड द्वारा किए गए व्य्वहार की जानकारी पिता को दी तो उनके क्रोध की सीमा न रही. उन्होंने तप शक्ति पूर्ण, एवं दंड के कृत्य के प्रतिकार में सक्षम अपनी पुत्री को दंड का प्रबल विरोध न करने का दोषी माना, और दोनों को दंडित होने योग्य समझा. और उन्होंने दंड को लक्ष्य कर कठोर वाणी में शाप देते हुए कहा रे राजा दंड तू और इस पृथ्वी पर जहाँ तक तेरा राज्य है वह मात्र एक सप्ताह में नष्ट हो जाएगा. फिर उन्होंने अपनी पुत्री अरजा से कहा रे दुष्टात्मा कन्या अब तुझे कोई पुरुष वरण नहीं करेगा,और तुझे जीवन भर इस पाप के प्रायश्चित्त करने के लिए तपस्या करनीपड़ेगी. अत: तुम आश्रम के सरोवर के निकट अपना प्रायश्चित तप शुरू कर दे. मेरे आश्रम के प्रभाव से नष्ट होते राजा दंड और उसके राज्य के समान प्रभाव तुझ पर नहीं पड़ेगा.इतना कहकर शुक्राचार्य वह आश्रम त्याग कर अन्यत्र चले गए.
शुक्राचार्य के श्राप से देव लोक में खलबली मच गयी. देवराज इन्द्र की इक्षानुसार पूरे दंड के राज्य में भीषण तूफान आया.आकाश से पत्थरों एवं की प्रचंड वर्षा होने लगी., मात्र एक सप्ताह में ही दंड के राज्य का विस्तृत भूखंड पत्थर एवं बालू के नीचे दबकर श्मशान घाट के समान नीरव एवं निर्जन वन गया सारे जीव जंतु सहित वनस्पतियाँ समाप्त हो गयी. सर्वत्र वीरानगी छा गयी.
कुछ समय बाद इस वीरान क्षेत्र पर राक्षसों ने आधिपत्य कायम कर लिया.समय के साथ शांति कामी रिषियों ने भी इस नीरव एवं निर्जन स्थल को शांति पूर्ण तपस्या के लिए उचित स्थल को शांति तपस्या के लिए उचित स्थल माना, और अनेकों की संख्या में यहाँ तप हेतु अपना आश्रम बना लिया. लेकिन राक्षसों को रिषियों द्वारा अतिक्रमण रास नहीं आया और वे इन पर हमलावर हो गये. वे कमजोर साधन ही तपस्वियों का बध करने लगे उन्होंने पहाड़ियों को अपना निवास स्थल बनाया. पूरा इलाका राक्षसों से भयभीत एवं परेशान रहने लगा. जिस समय भगवान श्री राम को वनवास हुआ उस समय यह शापित क्षेत्र दंडक वन के नाम से पुकारा जाता था, और लंकाधिपति रावण के कब्जे में था.इस क्षेत्र में यदा-कदा छोटी मोटी झाड़ियां ही ऋषि आश्रमों आस- पास पाई जाती थी.
वनवास के समय ऋषियों मुनियों से मिलते ही हुए जब प्रभु श्रीराम सुतीक्ष्ण मुनि के साथ उनके गुरू महान वैज्ञानिक रिषि पुण्य पुंज तत्व दर्शी ऋषि अगस्त्य के आश्रम पर पहुँचे. अतिथि सत्कार के बाद महामुनि ने उन्हें पंचवटी में आश्रम बनाने एवं चरण रज के स्पर्श मात्र से दंडक वन को शाप मुक्त करने का आग्रह किया. चौपाई—
दंडक वन प्रभु पावन करहू, उग्र शाप मुनिवर कर हरहू
भगवान श्री राम के पंचवटी पहुंचते ही इस क्षेत्र का शाप समाप्त हो गया.,और वनस्पति हीन निर्जन स्थान गहन वन में परिवर्तित हो गया, और प्रकृति की सुंदर अठखेलियाँ प्रारंभ हो गयीं. यही कथा दंडक वन की शास्त्रों में वर्णित है.
लेखक-सुप्रसिद्ध हिन्दी के साहित्यकार हैं, प्रकाशित हिंदी उपन्यास “रद्दी के पन्ने”