अभिसार

दिनकर की अति दिव्य प्रभा पर कालिख कैसी

ठाकुर प्रसाद मिश्र

दिनकर की अति दिव्य प्रभा पर कालिख कैसी?
कनक थाल में लगी हुई हो काई जैसी ||


ग्रहण लगा सा ही दिखता है नित्य सवेरा |
उजड़ रहा प्रतिदिन डाली से शकुन बसेरा ||


दूर गगन तक उड़ न पा रहे थके हुए पर|
पीड़ा की अभिव्यक्ति बन रहे सहज मधुर स्वर||


पीत वर्ण ही दीख रहा जन -जन का आनन |
तो क्या जग को त्रास दे रहा पुनः दशानन.?


दूर क्षितिज के किसी छोर से स्वर उभरा है?
धीमा था पर बता गया वाह कोई मारा है
||


चौराहे पर उसकी ही यह चिता जली है
|
धूम्र कालिमा ने ही रवि की रश्मि छली है ||


उसकी ही अति दाहकता से सूख रहे द्रुम |
होते हैं निर्नीड़ शकुन जो पूंछ रहे तुम ||


श्याम मेघ है किंतु मात्र उनमें गर्जन है
|
आर्त कंठ को त्राण नहीं कर्कश वर्जन है ||


अंगारों की पीताभा ही कण- कण फैली |
बांट रही पीलिमा जगत के मुख को मैली ||


सम्प्रति नर अभिसार बताया दानवता का |

करता है संस्कार जो अंतिम मानवता का ||


कवि हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं. प्रकाशित हिंदी उउपन्यास”रद्दी के पन्ने”

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