कबीरदास और प्रेम का रहस्य
अरुणाकर पाण्डेय
क्या सचमुच हम प्रेम को जानते हैं ! क्या वह कोई ऐसा भाव है जो सुनने में तो बहुत अधिक है और जिसकी छवि करोड़ों बार बुनी गई है,लेकिन अनुभव में वह बहुत महीन है ? क्या प्रेम को कोई भी अपनी मर्जी से जन्म दे सकता है या उसे बाजार से मोल देकर खरीद सकता है ? प्रेम के बारे में ये प्रश्न रहस्य बना देते हैं और उसे मनुष्य समझने का दावा तो करता है लेकिन वह इतना महीन है कि उसे संभालने के लिए गहरी साधना चाहिए। यह साधना कैसी है,इस पर संत कबीरदास जी ने जो संकेत दिया है,वह सबको समझना जरूरी है । उनका यह दोहा देखिए
प्रेम न बाड़ी उपजै
प्रेम न हाट बिकाय
राजा परजा जेहि रुचे
सीस देहि ले जाई
इस दोहे में कबीरदास जी ने कहा है कि प्रेम सबको बराबरी की दृष्टि से देखता है। न तो वो किसी महल में ही जन्म लेता है और न ही बाजार में उसे कोई खरीद सकता है । वह उसे ही मिलता है जो अपने सिर यानी अहंकार का बलिदान देता है ।इसलिए कबीरदास के अनुसार प्रेम सबके लिए है और एक जैसा है उसे कोई सत्ता ,चालाकी और तिकड़म से प्राप्त नही कर सकता । इसके लिए तो अहम को खत्म करना पड़ता है।
इसीलिए प्रेम एक कठिन साधना से प्राप्त होता है । जो यह समझता है की उसने प्रेम पा लिया है कबीर की दृष्टि से सोचे तो दरअसल वह भी अगर पल भर में अहंकारी हो जाए,तो उसे पता भी नहीं लगेगा कि कब उसने उस भाव को खो दिया ! संत की दृष्टि में अहम को खो देना प्रेम दिला देता है।जाहिर है कि प्रेम एक गहरी आध्यात्मिक तपस्या है, वह सिर्फ़ पल भर का रोमांच या भावनात्मक खेल नहीं है ।
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं