ठाकुर प्रसाद मिश्र

तिरोहित आर्य संस्कृति, विलुप्त वेद ज्ञान है.
विडम्बना नियति की है, कि सब स्वयं महान हैं.

कहें मिटाएं रूढ़ियां पर, नष्ट होतीं पीढ़ियाँ.
उद्दंडता प्रवृत्ति ही, बनी विकास सीढ़ियां.

नहीं अनुज से प्रेम है, न अग्रजों का मान है.
विडम्बना नियति की है कि सब स्वयं महान हैं.

जहाँ खिली प्रथम कली सुंगधि युक्त ज्ञान की,

जहां सदा प्रवृत्ति ही, रही है सत्यदान की.

वहीं प्रपंच ईर्ष्या, अनृत विकासमान है.
विडम्बना नियति की है, कि सब स्वयं महान हैं.

नई प्रगति की नीति में, न मातृ -पितृ भक्ति है.
कहीं अशिष्ट आचरण, न रोकने की शक्ति है.

हवा महल में बैठे हुए, छूते आसमान हैं.
विडम्बना नियति की है, कि सब स्वयं महान हैं,

रथ भले ही नष्ट हो, पर बागडोर हाथ हो.
नैतिकता की न कामना, यदि वोट शक्ति साथ हो.

कहें मिटाओ जातियाँ, जो स्वयं जातिमान हैं,
विडम्बना नियति की है, कि सब स्वयं महान हैं

भले ही लाख दोष हों, स्वमुख से सचरित्र हैं.
खा जाएं राष्ट्र हव्य, को ये देवता विचित्र हैं.

संपूर्ण राष्ट्र मूर्ख है, यही बस ज्ञानवान हैं,
विडम्बना नियति की है, कि सब स्वयं महान हैं,
आरक्षणी खटास से, ये फाड़ेंं शुद्ध क्षीर को.

अल्पसंख्यकी कृषानु से, जला रहे सुनीर को.
फूट नीति युक्त राष्ट्र के कला निधान हैं

विडम्बना नियति की है कि सब स्वयं महान हैं

One thought on “विडंम्बना”
  1. आज के समय की विडंबना का सटीक उदाहरण हैं ये अद्भुत रचना।।

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