कविता : पथिक
हे! पथिक जाते कहाँ हो? दिवस अब सोने को जाता |
यह महामानी नगर ना रैन में दीपक जलाता ||
है उलूकों का यहाँ पहरा निरंतर रात में |
चूस लेते हैं हृदय का रक्त थोड़ी बात में ||
है नहीं पाथेय यदि तो इस निशा तू भूखे सो जा |
चंद्र तारक की सभा में कुछ पलों का अतिथि हो जा ||
इस नगर की कांति के मृगमोह में न दौड़ जाना |
फंस गए यदि जाल में तो है कठिन फिर लौट पाना ||
जुगुनूओं से जो चमकते नग्न तन के आभारण हैं |
दिवस की लज्जावती के यामिनी में आचरण हैं ||
कौरव क्लब के इस महल में कृष्ण अब आते न जाते |
नग्न होती द्रोपदी पर भीम अर्जुन मुस्कुराते ||
नवल विकसित सभ्यता का यह महाउत्कर्ष है |
सोचते हो क्या पथिक? यह वही भारत वर्ष है ||
लेखक हिंदी के प्रख्यात कवि हैं
प्रकाशित हिंदी उपन्यास “रद्दी के पन्ने”