अरुणाकर पाण्डेय
एक लम्बे अरसे से विश्व में बनारस के दो कालजीवी साहित्यकार जयशंकर प्रसाद और प्रेमचंद जी के रचनात्मक दृष्टिकोण के अंतर को लेकर विद्वानों,साहित्यकारों, चिंतकों और पाठको में लम्बी चर्चाएँ रही हैं।प्रसाद जी को अतीतोन्मुखी और प्रेमचंद जी को यथार्थवादी रचनाकार के साँचे में देखने और ढालने की एक जमी हुयी दृष्टि हिंदी रचना और आलोचना जगत की रही है।एक हद तक इसके पीछे स्थापित तर्क भी रहे हैं।लेकिन इस पत्र के द्वारा यह रहस्योद्घाटन होता है कि दो भिन्न दृष्टियाँ और विचारधारा में सोचने-रचने वाले लेखक एक दूसरे की रचनात्मकता के प्रति भी अत्यधिक संवेदनशील थे।यह इससे अधिक महत्वपूर्ण है कि वे रचनात्मक अंतरण को किसी दृष्टिकोण या विचारधारा को जय-पराजय या राजनीति से नहीं माप रहे हैं। केंद्र में रचनात्मकता के प्रति संवेदना, संवाद और आदर की भूमिका है।
प्रस्तुत पत्र में प्रेमचंद जी ने समुद्रगुप्त का हवाला देते हुए बड़े ही विनम्रतापूर्वक उसके उद्देश्य से अपना मतांतरण पुनः अभिव्यक्त किया है जिससे यह भ्रम कदापि न उत्पन्न हो कि वे प्रसाद जी के गड़े मुर्दे उखाड़ने वाली रचनाओं से ‘कंकाल’ के पढ़े जाने के बाद सहमती रखते हैं। बल्कि वे ‘कंकाल’ के बहाने यह स्थापित करते हैं कि उसकी तुलना में प्रसाद जी की वे पूर्व रचनाएँ जो केवल अतीत के गौरव का गुणगान करती हैं,कोई विशेष सार्थकता नहीं रखती। यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि प्रेमचंद प्रसाद के रचनात्मक विकास पर एक ईमानदार दृष्टि रखते थे और साहित्य में राजनीति या विचारधारा को सामाजिक महत्व देते थे तथा उनमें कोई व्यक्तिगत दुराग्रह या वैरभाव नहीं था।यह निश्चित ही एक बड़े व्यक्तित्व का परिचायक है।
यह धारणा और पुष्ट होती है जब वे उक्त पत्र में प्रसाद जी से अपनी पत्रिका ‘हंस’ के लिए ऐसे ही उपन्यास और छोटे-छोटे ‘कंकालों’ की मांग करते हैं। कितना गहरा विश्वास झलकता है प्रेमचंद जी का प्रसाद जी पर ! अनायास ही उनका वह सुप्रसिद्ध भाषण याद आ जाता है जिसे हिंदी और साहित्य का संसार ‘साहित्य का उद्देश्य’ के नाम से जानते हैं।यह पत्र प्रसाद जी को 24 जनवरी 30 को लिखा गया था और वह भाषण सन 36 का है।छह वर्षों का अंतराल दोनों ही अभिव्यक्तियों में है।लेकिन सन 36 का पूर्वाभास सन 30 के इस पत्र में देखा जा सकता है।
इसमें प्रेमचंद जी का भव्य स्वरुप उजागर होता है। वे सिर्फ बनारस में साहित्य रचते न थे बल्कि वे बनारस की साहित्यिक परंपरा का मान बढ़ाने और उसका संवर्द्धन करने के लिए भीतर ही भीतर बेचैन थे।यह उनकी पीड़ा थी कि बनारस के लोग अन्य नगरों की पत्रिकाओं के लिए लिखते थे और स्वयं अपना नगर इस कला को अपना नाम नहीं दे पा रहा था। इसलिए ‘हंस’ की संकल्पना को उन्होंने बहुत मार्मिक तरीके से साझा किया तो उसमें जो साथी बने वह थे प्रसाद जी। वही प्रसाद जी जो गड़े मुर्दे उखाड़ते थे।इस दशा को यदि गहरे प्रेम का नाम न दिया जाए तो और क्या कह सकते हैं ! इसलिए साहित्य और काशी को प्रेम की भावभूमि का संस्कार बनने और विकसित करने वाला मानना ही चाहिए।यह रचनात्मक ईमानदारी यदि हमारी अपनी रचनात्मकता के लिए भी कोई वास्तविक उदाहरण बना दे तो यह एक बहुत बड़ी बात होगी।
फिलहाल आज प्रेमचंद जयंती पर उक्त पत्र प्रस्तुत किया जा रहा है, आशा है कि यह पाठकों को लाभान्वित करेगा।
‘हंस’-कार्यालय,सरस्वती प्रेस, काशी
ता. २४-१-१९३०
प्रिय प्रसाद जी ,
पहले मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं ‘कंकाल’ पर आपको बधाई दूँ। मैंने इसे आदि से अंत तक पढ़ा और मुग्ध हो गया। आपसे जो मेरी पुरानी शिकायत थी वह बिलकुल मिट गई। मैंने एक बार आपकी पुस्तक ‘समुद्रगुप्त’ की आलोचना करते हुए लिखा था आपने इसमें गड़े मुर्दे उखाड़े हैं। इस पर मुझे काफी सजा भी मिली थी, पर जो लेखनी वर्तमान समस्याओं को इतने आकर्षक ढंग से जनता के सामने रख सकती है, इस तरह दिलों को हिला सकती है,उसे, फिर वही बात मेरे मुँह से निकलती है क्षमा कीजिये। पूर्वजों की कीर्ति का भविष्य के निर्माण में भाग होता है और बड़ा भाग होता है,लेकिन हमें तो नए सिरे से दुनिया बनानी है। अपनी किस पुरानी वस्तु पर गौरव करें – वीरता पर ?, दान पर ?, तप पर ?, वीरता क्या थी ?, अपने ही भाईयों का रक्त बहाना। दान क्या था? एकाधिपत्य का नग्न नृत्य। और तप क्या था ? वही जिसने आज कम से कम ८० लाख बेकारों का बोझ हमारी दरिद्र जनता पर लाद दिया है। अगर ५) प्रति मास भी एक साधू की जीविका पर खर्च हो तो लगभग २० करोड़ रूपये हमारी गाढ़ी कमाई के उसी पुराने ‘तप’ के आदर्श की भेंट हो जाते हैं।किस बात पर गर्व करें वर्णाश्रम धर्म पर, जिसने हमारी जड़ खोद डाली। ‘कंकाल’ में समाज के सच्चे हितैषी की आँखों का गर्म, बड़ी-बड़ी बूँदों वाला आँसू है।घंटी और यमुना दोनों का क्या कहना। मैं ‘हंस’ में इसकी बृहद आलोचना करूँगा।
‘हंस’ का नाम आ गया। आपस उसके लिए कुछ याचना करूँ ? मैं छोटे-छोटे ‘कंकाल’ चाहता हूँ। या कोई उपन्यास हो तो वह भी बड़े प्रेम और आदर से प्रकाशित करूँगा।काशी से कोई साहित्य की पत्रिका न निकलती थी। काशी के लोगों के कलम से दूसरे नगरों को फैज़ पहुँचता है और काशी में सन्नाटा ? मस्जिद में दिया जले और घर में अँधेरा ! मैं धनी नहीं हूँ,मजदूर आदमी हूँ लेकिन काशी का यह अभाव मुझे लज्जास्पद जान पड़ा और मैंने ‘हंस’ निकालने का निश्चय कर लिया। धन तो आपसे अभी नहीं माँगता, शायद कभी वह भी माँगू, लेकिन आपकी लेखनी की विभूति अवश्य माँगता हूँ। होली तक पत्र निकाल देना चाहता हूँ। सब से पहला हक काशी का है इसे खयाल रखिये। पत्र का इंतजार कर रहा हूँ।
भवदीय
धनपत राय
डॉ. अरुणाकर पांडे दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली में हिंदी के प्राध्यापक हैं।