जब उन्नीसवीं सदी में अंग्रेजों के डर से कलम ने घुटने टेके
अरुणाकर पाण्डेय
अत्याचार से आंखें मोड़ने की पत्रकारिता जगत में अनगिनत चर्चाएं होती हैं और अनेक बार मीडिया से संबंधित सेमिनारों का यह विषय भी रहा है । निडरता और ईमानदारी ऐसे मूल्य रहे हैं जिनकी उम्मीद हमेशा पत्रकारों से की जाती रही है । आज भी सत्य को सामने रखने का दावा हर अखबार,चैनल और पोर्टल करते हैं। लेकिन अब तो यह एक स्थापित व्यावसायिक कर्म का रूप ले चुका है। हर खबर को बिकाऊ माल की कसौटी पर देखा जाता है और उसकी कीमत होती है । लेकिन ऐसा नहीं लगता कि यह समकालीन प्रवृत्ति है बल्कि ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि भारतेंदु युग में भी पत्रकार कानून के भय से अपने कर्तव्य से मुंह मोड़ लेते थे ।
एक लेख में भारतेंदु युग के लेखक प्रतापनारायण मिश्र ने लिखा है कि असम में एक अंग्रेज अधिकारी ने जबरन रात भर एक कुली की स्त्री को बलपूर्वक अपने शयनकक्ष में रखा और कुकर्म किया । कुली ने विरोध किया तो उसकी निर्ममता से पिटाई की गई। परिणाम यह हुआ कि उस स्त्री का देहांत हो गया । परंतु किसी ने भी न्याय नहीं किया ।
इसके बाद एक दिलचस्प बात वे बताते हैं जो उस समय के पत्रकारों की पोल खोलती है। वे लिखते हैं कि वहाँ पर ‘भारतमित्र’ का एक संवाददाता मौजूद था जो कुछ कर सकता था। लेकिन तत्कालीन रेलवे एक्ट के डर के कारण उसने चुप रहना बेहतर समझा । प्रतापनारायण जी का मानना है कि यदि उस अधिकारी की जम कर पिटाई कर दी जाती तो समाजिक दृष्टि से बेहतर होता ।उन्होनें इस घटना का जिक्र ‘सबै सहायक सबल के,कोउ न निबल सहाय’ नामक निबन्ध में किया है ।
जिस यूरोप को आधुनिकता का सबसे बड़ा कारक माना गया ,वह मिश्रजी के इस निबंध के कारण आधुनिकता की आड़ में बहुत बर्बर और वीभत्स नजर आ रहा है । लेकिन संभव है कि इसे अपवाद मान लिया जाएगा। आज भी स्त्री अत्याचार की नृशंस घटनाएं खूब कवर की जा रही हैं और उनमें राजनीतिक पक्षधरता की केंद्रीयता के भी दर्शन होते हैं। लेकिन स्त्री की देह के प्रति अत्याचार नहीं रुक रहा बल्कि वह राजनीतिक और व्यवसायिक गतिविधियों का केंद्र बनी हुई है। स्त्री के पक्ष से देखें तो कोई बड़ा परिवर्तन नहीं दिख रहा । यह चिंतन का विषय होना चाहिए,तभी मीडिया की तरफ से कुछ सार्थक हो पाएगा।
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक हैं
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