रावण का दिग्विजयी अभियान भाग-5

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यमराज से रावण का युद्ध

ठाकुर प्रसाद मिश्र

Thakur Prasad Mishra

महाराज अनरण्य के बध के बाद लंकापति रावण युद्ध के भाव से पुष्पक पर सवार हो आकाश मार्ग से संपूर्ण पृथ्वी के ऊपर विचरण कर रहा था । उसी समय बादलों पर पांव रखे हुए से खडे महर्षि नारद से जो अपने तेज से उद्दीप्त हो रहे थे, और संसार भ्रमण पर निकले थे । रावण की दृष्टि उन पर पडी । वह विमान के साथ आगे बढा एवं ऋषिवर के पास जाकर प्रणाम कर उनकी कुशल क्षेम पूछी । और स्वर्ग से पृथ्वी की तरफ आने का कारण पूंछा। तब नारद जी ने कहा दशानन मेरा एक उद्देश्य तुमसे मिलना भी था, जो सहज ही प्राप्त हो गया । वीर वैश्रवण आज तीनों लोकों में जिधर भी मेरी दृष्टि जाती है तुम्हारे ही प्रताप का डंका बज रहा है। संपूर्ण दूषित मानसिकता वाले नर, नाग, किन्नर, गंधर्व तथा अन्य योनियों में उत्पन्न दुर्धर्ष वीरों का बध करने वाले भगवान नाराय़ण के बाद तुम्हीं एक ऐसे योद्धा हो जिसने अपनी वीरता और पौरुष से मुझे प्रभावित किया है । तुम अति बलशाली और अजेय हो नर, नाग, किन्नर,सुर – असुर, गंधर्वों सहित तीनों लोक तुम्हारे वशवर्ती हैं । किसई में भी यह साहस नहीं है कि तुमसे युद्ध करने का मन बना सके, तो ऐसे में मेरी एक बात जो सुनने योग्य है उसे श्रवण करो । जब अमरों ,गंधर्वों महान शक्तिशाली दैत्य दानव एवं असुरों में तुमसे युद्ध करने का साहस नहीं है । तो तुम मृत्यु लोक के अभागे प्राणियों से युद्ध करने पर क्यों उतारू हो ।

मृत्यु लोक के लोग तो जहां तक मैं देख रहा हूं सारे प्राणी अर्ध पुरुषार्थ में ही मोहित हैं । नाना प्रकार के रोगों, ईष्र्या, लोभ, दंभ, पाखंड जैसे दोषों से पूरित हैं । जिनका मरण निश्चत है। जो स्वतः ही अल्पायु हैं । बंधु, बांधव, नात रिश्तेदार, धन दौलत और स्त्री एवं पुत्र के मोह से व्यथित हैं । वे तो स्वय़ं अपना कल्याण करने की शक्ति से रहित हैं। और निरंतर अपनी अपनी समयावधि पर काल के ग्रास में समाते जा रहे हैं । ऐसे निरीह प्राणियों के बध में तुम्हारे जैसे बलवान जिसे देवता, दानव, दैत्य, यक्ष, गंधर्व और राक्षस भी नहीं मार सकते और वीर होकर तुम इस मनुष्य लोक को क्लेष पहुंचाओ ,यह तुम्हारे लिए कदापि उचित नहीं है । इससे तुम्हारी कीर्ति बढने वाली नहीं है । क्योंकि ए सब तो केवल अपने कल्याण तक ही सीमित हैं ।यह सब तो तमाम विपत्तियों से घिरे हैं । बुढापा एवं रुग्णता से घिरे हुए होने के कारण ए तो स्वयं ही मृत्यु के समीप हैं । अतः ऐसे मनुष्यों का बध करके तुम्हें कौन से जस की प्राप्ति हो रही है । जरा इन्हें  देखो तो ए स्वयं पौरुष एवं विवेक से विहीन होकर अज्ञानता के कूप में पडे हैं । देखो तो कोई शोक संतप्त होकर विलाप  कर रहा है और कोई उन्हीं के बगल में रास रंग में अनुरक्त होकर आनंद मना रहा है । परम पुरुषार्थ को तो ए अर्थ तक नहीं समझते हैं। अतः इन जैसे लोगों का बध करके तुम्हें क्या प्राप्त होगा । पुलस्त नंदन इन सब मनुय़्यों को अंत में यम लोक ही जाना पडता है और वहां पहुंचकर ए अपने कर्मों के अनुसार यम यातना भोगते हैं और यम द्वारा विभिन्न प्रकार से दंडित किए जाते हैं । अतः यदि तुम्हें युद्ध ही प्रिय है तो अपने समान योद्धा यमरास से ही युद्ध करो जो अपने मृत्यु एवं काल के प्रहार से सर्वदा इन मनुष्यों को मारते रहते हैं । तुम्हारी असली विजय तो तब होगी जब तुम यमराज को अपने वश में कर लो । उनको जीतते ही सारे लोक तुम्हारे वश में हो जाएंगे ।

नारद जी की बात सुनकर शरद ऋतु के शुभ्र बादलों के समान अपनी हास की छटा विखेरते हुए अपने तेज से दैदीप्यमान देवर्षि नारद से बोला हे देवर्षि आप देवताओं एवं गंधर्वों के लोकों में सदा विहार करने वाले हैं ,मुझे ज्ञात है कि आपको भीषण युद्ध देखना परम प्रिय है । लेकिन इस समय मैं रसातल में जाने को तैयार हूं । वहां के निवासियों एवं नागों को जीतकर त्रैलोक्य विजयी बनने के बाद अमृत प्राप्ति के लिए संपूर्ण रसों के स्वामी संमुद्र  का मंथन करूंगा । ऐसा सुनकर देवर्षि नारद ने कहा हे शत्रु सूदन अगर तुम रसातल जाना चाहते हो तो रास्ता भटक गये हो , जिस रास्ते से जा रहे उससे रसातल पहुंचना बहुत कठिन है। रसातल जाने का सुगम मार्ग तो यमराज की यमपुरी से होकर जाता है । नारद जी की यह बात सुनकर रावण ने कहा हे ब्राहम्ण शिरोमणि मैंने आपकी सारी बात सुन ली अब मैं पहले यमराज का बध करके ही रसातल को जाऊंगा । इसलिए अब मैं दक्षिण दिशा को जा रहा जहां सूर्य पुत्र राजा यम का निवास है । ऋषिवर मैंने चारों लोकपालों को विजित करने का प्रण किया है । अतः अब मैं यमराज की पुरी की तरफ प्रस्थान कर रहा हूं और संसार के प्राणियों को मौत को कष्ट देने वाले यमराज को स्वयं मृत्यु से संयुक्त कर दूंगा ।

उपरोक्त बातें कहकर रावण ने नारद जी को प्रणाम किया और अपने योद्धा और मंत्रियों के साथ दक्षिण दिशा की तरफ चल दिया । इसके बाद ध्यान मग्न होकर नारद जी ने विचार किया कि आयु क्षीण होने पर जिन धर्मराज द्वारा इन्द्र सहित तीनों लोकों के चराचर प्राणी दंडित होते हैं वे काल स्वरूप यमराज को भला यह निशाचर कैसे जीतेगा । जो जीवों के दान और कर्म के साक्षी हैं जिनका तेज द्वितीय अग्नि के समान है जिन महात्मा धर्म राज से चेतना पाकर संपूर्णँ विश्व नाना प्रकार की चेष्टाएं करता है । जिनके भय से तीनों लोकों  के प्राणी उनसे दूर भागते हैं। उन्हीं यमराज के पास यह राक्षस स्वयं कैसे पहुंचेगा । इस तरह विचार करके राक्षस राज रावण और यमराज का युद्ध देखने की अभिलाषा, से महामुनि नारद अत्यंत तीब्र वेग से यमपुरी की तरफ चले । यमराज को यह बताने के लिए कि आप सतर्क हो जाएं कि राक्षसेंद्र रावण आपसे युद्ध करने आ रहा है । वहां पहुंचकर नारद जी ने देखा कि यम देवता अग्नि को साक्षी के रूप में सामने रखकर बैठे हैं और जिसका जैसा कर्म हैं उसी के अनुसार फल देने की व्यवस्था कर रहे हैं । अपने यहां आया हुआ नारद जी को देखकर भगवान यमराज ने अतिथि धर्म के अनुसार उनकी आवभगत की और बोले देवताओं और गंधर्वों से सेवित कुशल तो है । मृत्यु लोक मे धर्माचरण में कोई कमी तो नहीं आ रही । लोकों में कहीं धर्म का नाश तो नहीं हो रहा है । आखिर आज हमारे यहां आपके शुभागमन का कारण क्या है । महर्षि नारद ने कहा हे पितृराज सुनिए मैं आपको एक आवश्यक सूचना देने आया हूं कि आपके युद्ध के प्रतिकार की व्यवस्था कर लें । यद्यपि आपको जीतना अत्यंत दुष्कर है तथापि यह दसग्रीव नामक निशाचर आपको अपने वश में करने के लिए आपकी पुरी पर आक्रमण करने आ रहा है। यही कारण है कि मैं तीव्र गति से यहां आया हूं कि आपको इस संकट की सूचना दे दूं । वैसे तो आप काल दंड रूपी शस्त्र को धारण करने वाले हैं आपका वह निशाचर बिगाड ही क्या पाएगा , यमराज और ऋषिवर की बातें हो ही रहीं थीं कि रावण का सूर्य के समान तेजस्वी विमान दूर  से आता हुआ दिखायी दिया । राक्षस राज रावण के पुष्पक विमान की प्रभा से पापियों को दंडित करने के लिए सृजित अंधकार को शून्य करता हुआ अत्यंत निकट आ गया ।

दशानन ने वहां पहुंचकर देखा कि बहुत से प्राणी अपने-अपने कर्मों के अनुसार फल भोग रहे हैं । उसने यमराज के सेवकों औऱ सैनिकों को भी देखा और यमराज द्वारा पीडित जीवधारियों को भी देखा उग्र प्रकृति वाले भयानक यमदूतों द्वारा बहुत से प्राणियों को मारते और क्लेश पहुंचाते देखा । जिसकी वेदना से वे सारे प्राणी चीख रहे थे । उन्हें विभिन्न प्रकार के दारुण नरकों में भेजकर दंड दिया जा रहा था –

 असिपत्रवने चैव भिद्यमानानधार्मिकान् ।

रौरवे क्षारनद्यां च क्षरधारसु चैव हि ।।

पानीयं याचमानांश्च तृषितान् क्षुधितानपि

शवभूतान् कृशान् दीनान् विवर्णान मुक्तमूर्धजान्

मलपंकधरान् दीनान् रुक्षांश्च परिधावतः

ददर्श रावणो मार्गे शतशोथसहस्रशः।

 इस प्रकार नर्क की पीडा भोगते हुए प्राणियों को देखा। तथा दूसरी तरफ पुण्य कर्मा जीवों को उत्तम भवनों मे रहते हुए संगीत और मनोहर वाद्यों के संगीत से आनंदित होते हुए देखा । मृत्यु लोक में जिसने जो दान किया था यमलोक में उसी वस्तु का उततम स्वरूप उसे मिला हुआ था । कुछ धर्मात्मा पुरुष सुवर्ण मणि और मुक्ताओं से अलंकृत हो यौवन के मद से मत्त रहने वाली युवतियों के साथ अपनी अंग कांति से प्रकाशित हो शोभा पा रहे थे । यह सब देखकर रावण ने पाप कर्मों के द्वारा पाए गये दंड भोगने वाले प्राणियों को रावण ने बल पूर्वक मुक्त कर दिया । जिसके कारण कुछ देर तक उन पापियों को बडा सुख प्राप्त हुआ । जिस बात की कभी कल्पना तक नही  की जा सकती थी वैसै क्षण उन्हे प्राप्त हुआ । रावण को ऐसा करते देख क्रुद्ध यम दूत रावण पर टूट पडे और  शूरवीर यमदूतों के कोलाहल से वातारण गूंज उठा । वे सब अपने-अपने अमोघ अस्त्र- शस्त्रों को लेकर फूलों पर टूटने वाले भौरों के झुंड के समान पुष्पक विमान पर टूट पडे । और देवताओं द्वारा अधिष्ठान भूत वह पुष्पक विमान यम दूतों के अस्त्र-शस्त्रों से तोडा जाने लगा प्रासों,परिघों,शूलों और मूसलों की शक्तियों द्वारा वे यम दूत पुष्पक को नष्ट करने लगे वे उसके आसन -शयन कक्ष वेदी और फाटक को शीघ्र ही तोड डाले किंतु वह दैवी शक्तियों से मंडित विमान ब्रह्मा जी के प्रभाव से पुनः जस का तस हो गया । वह नष्ट होने वाला विमान ही नहीं था ।

भगवान यम की सेना असंख्य थी जिसमें तमाम शूर वीर आगे बढकर राक्षस सेना से युध्द करने लगे । यमदूतों के आक्रमण करने पर रावण के महावीर मंत्री और सेनाध्यक्ष  वहां उपस्थित पर्वतों के शिखरों और यमलोक के प्लासादों को उखाड कर उन्हीं के अनुसार युद्ध करने लगे । राक्षस राज रावण के सारे मंत्रियों का शरीर यम दूतों के आघात से रक्त रंजित हो उठा , किंतु फिर भी वे भीषण युद्ध करकते रहे । दोनों दल में महाभीषण युद्ध प्रारंभ हो गया भगवान यम के महावीरों ने अपने-अपने अस्त्रों से रावण पर भीषण प्रहार किया जिससे वह रक्त रंजित हो उठा । ऐसा प्रतीत होता था कि पुष्पक विमान पर खडे अशोक के वृक्ष पर लाल-लाल फूल लगे है जिससे कुपित हुए रावण ने यमराज के सैनिकों पर भीषण प्रहार किया था । रावण द्वारा प्रहार किए गय़े अस्त्र-शस्त्र भूतल पर खडे यमराज के सैनिकों पर पडने लगे । अतः वे सारे सैनिक एकत्र हो करके केवल रावण को लक्ष्य करके युद्ध करने लगे । जैसे बादलों के समूह पर्वत पर चारों तरफ से वर्षात करते हैं उसी प्रकार सब तरफ से घिरे हुए रावण पर यम दूतों के आयुधों की वर्षा हो रही थी । सैनिकों के प्रहार से रावण का शरीर छिन्न-भिन्न हो गया था उसका कवच कट कर धरती पर गिर गया था । और उसके शरीर से रक्त की धारा बहने लगी थी। अतः कुपित रावण पुष्पक से उतरकर धऱती पर खडा हो गया । दो घडी तक उसने अपने को संभाला फिर वह धनुष व बाण हाथ में लिए समरांगन में मयमराज के सामने खडा हुआ । और उसने अपने धनुष पर पाशुपत नामक दिव्यास्त्र  का संधान किया ।  औऱ क्रोध में भरकर धनुष की प्रत्यंचा कानों तक खींचकर यम सेना पर छोड दिया । धनुष से छूटते ही वह महान दिब्यास्त्र भीषण ज्वालाओं से घिरा हुआ सामने आए हुए पशुपक्षी और वनस्पतियों को जलाते हुए आगे बढा और उसके पीछे- पीछे मांसाहारी जीव दौडने लगे । पाशुपत अस्त्र के प्रहार से उसके तेज की ज्वाला में यमराज के सारे सौनिक भष्म होकर जमीन पर गिर पडे । उसके बाद अपने सैनिकों के साथ जोर-जोर से सिंहनाद करने लगा जिससे पृथ्वी कंपने लगी, रावण के उस सिंहनाद को सुन करके यमराज ने समझ लिय़ा कि शत्रु विजयी हुआ और उनकी सेना परास्त हो गयी। जिसके कारपण उनके नेत्र क्रोध से लाल हो गये और उन्होंने अपने सारथी से रथ लाने को कहा । सारथी तत्काल रथ साज कर ले आया और जिस पर  यम देवता आरूढ हो गये। हाथ में प्राश,मुकदर और अन्य भीषण अस्त्र -शस्त्र लेकर स्वयं मृत्यु देवता उनके आगे खडे हुए जो निरंतर इस त्रिभुवन का संहार  करते रहते हैं । उनके रथ के पीछे काल दंड मूर्तिमान होकर खडा हुआ जो यम राज का मुख्य आयुध है । उसके तेज से अग्नि ज्वाला उत्पन्न हो रही थी और उनके बगल में दोष रहित काल पाश खडे थे जिसका स्पर्श अग्नि के समान दुख-दायी था । समस्त लोकों को भय देने वाले साक्षात काल को कुपित हुआ देख तीनों लोको में खलबली मच गया समस्त देवता भय से कांपने लगे सारथी ने यमराज का रथ हांका जो अत्यंत भयानक आवाज करता हुआ आगे बढा और जहां रावण खडा था वहां पहुंचा । मृत्यु देवता के साथ यमराज का वह भीषण रथ देखकर राक्षस राज रावण के सचिव और सेनानी वहां से भाग खडे हुए । उनका बल पौरुष रावण जैसा नहीं अतः वे विभिन्न दिशाओं में भाग गये । परंतु समस्त संसार को भयभीत करने वाले वैसे विकारल रथ को देखकर भी दशग्रीव के मन में न तो क्षोभ उत्पन्न हुआ और न ही वह भयभीत हुआ । अत्यंत क्रोध से भरे हुए यमराज ने अपने तीखे नोकों वाले अस्त्रों से के द्वारा उसके मर्म स्थानों को छेद डाला । तब रावण ने भी संभलकर मेघ वर्षा के यमराज के रथ पर बाणों  की झडी लगा दी । तदनंतर युद्ध में रावण की क्षाती पर अनेंकों महाशक्तियों की मार पडने लगी जिसके कारण रावण इतना व्यथित हो गया कि यमराज से युध्द करने में समर्थ नहीं रहा ,। इस तरह यमराज और रावण का सात दिन और रात तक युद्ध चलता रहा । यम के प्रहार से कुछ समय के लिए रावण अपनी सुध-बुध खो बैठा लेकिन वह दोनों योद्धा रण भूमि से हटने वाले नहीं थे । और दोनों ही अपने विजय पथ पर अडिग थे । अतः पुनः एक बार फिर से यमराज और रावण में घोर युद्ध होने लगा इस युद्ध को समाप्त होता न देखकर देवता गंधर्व सिद्ध महर्ष गण प्रजापति की अगुआई में समरांगण में इकट्ठे हुए । प्रेत राज यम और राक्षस राज रावण का यह युद्ध तीनों लोकों का नाश करने पर अमादा था । रावण के बाण से युद्ध समरांगण का आकाश वाणों से ठसाठसा भर गया जहां तिल भर भी जगह बाकी न रही । रावण ने भीषण बाणों के प्रहार से मृत्यु को और कई बाणों से यम के सारथी को पीडित कर दिया ।फिर लाखों बाणों द्वारा यमराज के मर्म स्थानों में गहरी चोट पहुंचायी ।  तब यमराज के क्रध की सीमा न रही उनके मुख से भयंकर अग्नि प्रज्ज्वलित होने लगी जिससे सारा समरांगण धूम्र एवं ज्वालाओं से भर गया । तब मृत्यु देव ने यमराज से कहा कि अब उसके उपर मेरा प्रहार कीजिए । मैं अभी इस पापी का नाश कर देता हूं । क्योंकि यह मेरी स्वभाव सिद्ध मर्यादा है । कोई मुझसे लडकर जिंदा नहीं रह सकता। श्रीमान समय के साथ इतने महावीर जैसे हिरण्य कशिपु, नमुचि , संवर, निसंदि धूमकेतु , विरोचन कुमार बलि तथा बाणा सुर जैसे अनेक योद्धा नाग, नर, और गंधर्व दुर्जेय वीर मेरे द्वारा नाश को प्राप्त हो चुके हैं । तब यमराज ने कहा रुको मैं खुद ही इसे मारे डालता हूं फिर काल बोले महाराज मेरा प्रहार कीजिए । मेरी दृष्टि पडते ही रावण दो घंटे भी जिंदा नहीं रहेगा । तब क्रोध से लाल आंखे किए हुए सामर्थ्यशाली यम ने अपने अमोघ काल दंड को हाथ से उठाया जो अपने विशिष्ट शस्त्रों के कारण संसार के समग्र प्राणियों को नष्ट करने में सक्षम था। सामान्य प्राणी तो स्पर्श मात्र से ही दम तोड देता । ऐसा कालदंड दिब्य तेज से प्राकशित हो चुका उसके उठते ही समरांगण में खडे हुए बहुत सारे सैनिक भयभीत होकर भाग चले ।

यमदेव के हाथ में काल दंड देख सभी देवता भी भयभीत हो गये । यमराज उस दंड से रावण पर प्रहार  करना ही चाहते थे कि साक्षात पितामह ब्रह्मा वहां ततत्काल प्रगट हो गये उन्होंने वैवस्वत से कहा कि तुम इस काल दंड द्वारा रावण का बध मत करो हे देव श्रेष्ठ यम मैंने इसे देवताओं से अबध्य घोषित किया है । मेरे द्वार दिए गये आशीर्वाद को तुम्हें भंग नहीं करना चाहिए । जो देवता अथवा मनुष्य मुझे असत्यवादी बना देगा उसे समस्त लोकों को मिथ्याभाषी बनाने का दोष लगेगा . यह कालदंड समस्त लोकों के लिए भयंकर है । इसे छोडे जाने पर यह अपने और पराए का भेद नहीं करेगा और संपूर्ण सृष्टि का नाश हो जाएगा । पूर्व काल में मैंने ही इस कालदंड का निर्माण किया था । अतः आप इसका रावण पर प्रहार न करें इसके प्रहार करने पर सामने का योद्धा एक मुहूर्त भी जिंदा नहीं रहेगा काल दंड पडने पर यदि रावण न  मरा तो अथवा मर गया तो दोनों ही दशाओं में मेरी बात कट जाएगी । इसलिए हाथ मे लिए हुए इस काल दंड को रावण के तरफ से हटा दो । यदि समस्त लोकों का कल्याण चाहते हो तो रावण पर प्रहार न कर मेरी बात रखो । ब्रह्मा जी की यह बात सुनकर यमराज ने काल दंड रावण के तरफ से हटा लिया । आप हम सबके प्रभु , सवामी हैं अतः आपकी आज्ञा का पालन करना हमारा धर्म है । और जहां तक रावण की बात है वरदान के कारण जब मैं इसका बध कर ही नहीं पाऊंगा तो मेरा इससे युद्ध करने का अभिप्राय ही क्या रह गया । अतः मैं यहां से चला । यह कहकर यमराज अपने सैन्य के साथ  दृष्टि से ओझल  हो गए । इस तरह दंडक वन की भूमि पर हुए संग्राम में रावण ने अपने विजय की घोषण की और पुनः पुष्पक विमान पर आरूढ होकर पुनः पुष्पक विमान से आगे बढ गया । यमराज के रण भूमि छोडने से यमराज पर विजय प्राप्त करने की घोषणा की और अन्य लोकों को जीतने के निमित्त से आगे बढ गया ।

अस्तु

अगला भाग 6 जल्द ही ……                          

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