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रमेश कुमार मिश्र

माँ आज बाजार नहीं चलोगी क्या? माँ ने कहा नहीं, मेरे बच्चे।

माँ देखो तुम ने पिछले बुधवार को कहा था कि रविवार को तुम मुझे नए कपड़े दिलाओगी, पर आज आप मना कर रही हो। आखिर मैं आपकी बेटी होकर गुनाह की हूँ ? आज मेरी जगह पर आपका कोई बेटा होता तो तुम उसके एक इशारे पर कपड़े तो क्या वह जो कहता वही खरीद देती.? माँ स्कूल में बहुत से बच्चे रोज़ कपड़े बदलकर आते हैं। बहुत से हर दूसरे दिन और दो चार हम जैसे एक ही कपडा रोज़-रोज़ पहनकर जाते हैं। ये तो भला हो उस सस्ते देशी सर्फ की जो हमारे कपड़े को धोने एवं साफ रखने में हमारी मदद करता है। जिससे कपड़े का रंग धुल तो जाता है, परंतु कपड़े के तैलीय दुर्गंध से बचकर हमें कक्षा की सबसे पिछली पंक्ति के पहले की पंक्ति में बैठने को मिल जाता है।

 निर्मला की अश्रुधारा में उसकी मजबूरी साफ झलक रही थी, वे सिसकती हुईं बोलीं शालिनी तुम हमारी बेटी और बेटा दोनों हो। बेटी और बेटा का फर्क तो वो लोग समझें जिन्हें भगवान ने दोनों दिए हैं। हमारे भगवान ने हमें जो दिया है वही हमारा बेटा भी है और बेटी भी। बेटा बनकर बेटी को फर्ज निभाते तो इस संसार में मैंने सुना है लेकिन बेटी के फर्ज में बेटे के किरदार का फर्ज निभाते पाए गए हों ऐसा बहुत कम सुना जाता है। बेटी, आज के बाद अपने मुँह से कभी ऐसा शब्द मत निकालना, मेरी आत्मा को ठेस पहुंचती है। तुम हमारी परिस्थितियों को देखकर अपनी आवश्यकताओं से समझौता कर लेती हो, परन्तु मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि कोई बेटा ऐसा नहीं करता है। वो अपनी जिद को पूरा होता हुआ देखना चाहता है। बेटी में विनम्रता के भाव एवं चीजें समझने की समझ कुदरत ने दे रखी है, मैं ऐसा मानती हूँ।

 शालिनी तुम्हारे पिताजी को इस संसार से गए हुए आज चौदह वर्ष बीत गए हैं। शादी के तीसरे वर्ष ही पीलिया का ऐसा कहर उन पर टूट पड़ा कि उनका लीवर काम करना बंद कर दिया। और हम पैसे के अभाव में उन्हें किसी बड़े अस्पताल ना ले जा सके और एक दिन रात के 12:00 बजे उनकी सांसे चलना बंद हो गईं। मैं चिल्ला -चिल्लाकर मर गई। इच्छा तो हुई कि मैं भी उन्हीं के साथ चिताभस्म हो जाऊं पर तुम्हारा सलोना एवं निरीह चेहरा मुझे ऐसा नहीं करने दिया। मैंने सोचा कि यह समाज जो बिना स्वार्थ किसी को जहर भी नहीं देता है, वह हमारे बच्चे को अपने हब्शी स्वार्थ में नोच- नोचकर खा जायेगा। और उसकी इस दुर्दशा पर भी समाज का कोई उसका अपना उसकी व्यथा सुनने वाला नहीं होगा। मैं मेहनत करूँगी, मजदूरी करूँगी अपने बच्चे को पालने और पढ़ाने के लिए यही सोच लेकर मैं उसी स्वार्थी समाज में अबला विधवा बनकर जीने लगी। तुम्हारे पिताजी के क्रिया कर्म में मैंने विवाह में चढ़े जेवरातों को बेंचकर उनका क्रियाकर्म किया। इसलिए नहीं कि समाज वाले इसके लिए हमें वाह वाही देंगे, बल्कि इसलिए कि एक पत्नी होकर मैं उनके स्वास्थ्य लाभ हेतु कुछ भी ना कर सकी। जब तक मैं समझ पायी तब तक बहुत देर हो चुकी थी। और उन थोड़े से जेवरात के मूल्य से हम उन्हें शहर ले जाकर दो चार दिन से अधिक नहीं रख सकते थे। ऐसी स्थिति में उनकी आत्म सांत्वना के लिए मैंने ऐसा किया।

 जब तक मेरे आँखों में अश्रुधारा एवं मेरे चेहरे पर विधवा बनकर जीने का गम मेरी रौनक में बाधा था, तब तक इस समाज के लोग सांत्वना के दो शब्द इसलिए नहीं कहने आते थे कि कहीं निर्मला उनसे कुछ सहायता न मांग लें। परन्तु जैसे मैंने अपने आत्मबल को मजबूत कर मजदूरी कर अपना तुम्हारा पेट पालने का संकल्प लिया मेरे बहुत से हितैषी बन गए।

  बेटा यह समाज बड़ा विचित्र है दुखी को देखकर उसके गरीबी पर हंसता है और जवान विधवा को देखकर मन ही मन खुश होता है। जिससे हाल -चाल पूछना भी मुनासिब नहीं समझता है। उसके ज़रा से रंग बदलने पर वह अपना सबकुछ न्योछावर करने को तैयार हो जाता है। इससे समाज के बहशीपन का पता चलता है। घर में बीवी को दो जून की रोटी मुहैया नहीं होती और वह रखैल को आसमान से तारे तोड़ कर देने की कोशिश में न घर का होता है न घाट का। अपना जीवन तो नष्ट करता ही है, अपने परिवार का भी जीवन नष्ट कर देता है। जिसके शिकार हम और तुम भी।

 दरीबे में एक सुनार की दुकान हुआ करती थी। तेरे पिता वहीं रोज़ी-रोटी के वास्ते नौकरी करते थे। सुनार दिन-रात बाहर रहता था कभी-कभी तो वह व्यापार के वास्ते कुछ दिनों के लिए बाहर चला जाया करता था। दुकान से लेकर घर का सारा काम तेरे पिता को सौंपकर सुनार बाहर चला जाता था। सुनार के परिवार में केवल उसकी पत्नी थी, वह बहुत खूवसूरत थी, शारीरिक रूप से बहुत सौंदर्य शालिनी थी। सुनार की अनुपस्थिति का फायदा उठाकर ये दोनों पर रासलीला मनाते थे। जो कुछ कमाते थे तेरे पिता उसी के लिए।उसी के घर छोड़ देते थे घर पर तो फूटी कौड़ी ला दें तो समझो एहसान कर देते थे। उसी के यहाँ कमाना और उसी को  दे देना,अपनी मेहनत का यही मूल्य समझते थे। एक बार तो सुनार इनकी कोई इच्छा पूरी करने के लिए उन्होंने उसी की दुकान से सेठ की अनुपस्थिति में कुछ गहने चोरी कर लिए। सेठ हिसाब-किताब का बड़ा पक्का था। जब वह वापस लौटकर आया तो उसे हिसाब में कुछ गड़बड़ी लगी। उसने तुम्हारे पिता से पूछा तो उन्होंने साफ मना कर दिया। सेठजी आज तक हमने ऐसा कुछ कभी किया है क्या? बाद में उसने पुलिस को सूचना दे दिया। पुलिस के डर से उन्होंने कबूल कर लिया कि मैंने जो भी चोरी किया है वह हेमवती के लिए जो तुम्हारी पत्नी है, उसे बुलाकर पूछ लो, वह बता देगी। फिर तुम्हारी पत्नी की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हमने जो कुछ भी ऐसा किया है, वह चोरी तो नहीं है। आज तक मैंने जो कुछ भी कमाया है, वह सब अपने घर तो नहीं ले गया, सब कुछ तुम्हारा-तुम्हारे यहाँ ही रहता है। हेमवती दरवाजे में खड़ी सारी बातें सुन रही थी। उसने तेवरी चढ़ाकर कहा रे नीच हमारे लिए कमाता था क्यों झूठ बोल रहा है। अब अपनी चोरी को छुपाने के लिए तुमने मुझे और मेरे पति को अपमानित करने की योजना बना लिया है। जो अपनी बीवी बच्चे की हिफाजत और उनकी परवरिश नहीं कर सकता वह क्या खाक दूसरे को कुछ दे सकता है? और फिर क्या हमारी इतनी छोटी हैसियत रह गई है? कि हमारी ड्योढी पर झाड़ू लगाने वाला हमसे इश्क फरमाएगा। इंस्पेक्टर साहब इसे ले जाइए और चोरी के साथ साथ इस पर एक और  केस लगाइए कि इसने हमें अपमानित करने की कोशिश की है, और इससे जेल में चक्की भी पिसवाइये । 

 इंस्पेक्टर ने कहा सेठ ये सब क्या तमाशा है? तुम्हारा क्या कहना है?

 सेठ ने कहा दरोगा जी कहना क्या है? ये तो सिरफिरा है, यह नहीं जानता कि हम व्यापारी हैं, हम व्यापारियों के यहाँ मर्द बाहर व्यापार करता है और औरत घर के अंदर, यह समझता था कि मैं बाहर जाता था तो इस पर निगाह नहीं रहता था। यह इसकी भूल थी मैं पत्नी से कहकर जाता था कि…

 इंस्पेक्टर ने उन्हें जेल भेज दिया। वे रो-रो कर अपनी सफाई की गवाही देते रहे परंतु उन्हें छह महीने की सजा हो गई। ऐसे में उनका धन और धर्म दोनों गया और वे इस सदमे को सह न सके। बीमार हुए बस और चल बसे। मैंने उनके इस आचरण को जानते हुए भी उन्हें स्वीकार किया और उनके लिए यथाशक्य जो हो सका किया, जानती हो बेटी क्यों? क्योंकि मैं भारतीय नारी हूं । भारतीय समाज में एक नारी जिसे एक बार पति रूप  में वरण कर लेती है। जीवन पर्यंत उसी के नाम का सिंदूर लगाती है। पति चाहे कितना भी दुराचारी हो परंतु पत्नी के लिए भगवान होता है। इसीलिए तो भारतीय नारी देवी की संज्ञा से विभूषित है।

 खैर जो बीत गया जो, बहुत पीछे चला गया उसके बारे में शोक नहीं किया करते, क्योंकि ऐसा करने से नई योजनाएं दिमाग में नहीं आ पातीं हैं और फिर तो कुछ नया नहीं हो पाता है। बेटी हमारे दिमाग में इस समय सिर्फ, एक प्रश्न यह चल रहा है कि अब आगे इस सरकार के प्रकोप से कैसे बचा जाएगा, जो दिन- प्रतिदिन सभी वस्तुओं के साथ खाने-पीने की भी चीजें महंगी किए जा रही है। आज से कुछ साल पहले हमें मेहनत की मजदूरी बहुत कम मिलती थी, फिर भी रुपए दो रूपए हमारे पास बच जाते थे। आज सरकारी ऐलान से ही मजदूरी दर में कुछ वृद्धि होने पर भी हमें जो कुछ भी मिलता है, उससे हम दो माँ बेटी दो जून की रोटी ढंग से नहीं खा सकते हैं। यह सरकार है या महंगाई की मशीन, जो दिनों-दिन प्रत्येक वस्तु की कीमतों में भारी वृद्धि करती जा रही है।

 शालिनी ने कहा माँ सरकार को दोष देने से पहले हमें अपने गिरेबान में झांककर देखना चाहिए। इसके लिए सबसे बड़े दोषी हम सब हैं। हम वही कुर्ता पहनना चाहते हैं जो हमें सबसे अधिक गर्मी देता है, जानती हो क्यों? उसमें चमक ज्यादा होती है, अब ऐसी स्थिति में शरीर में फफोले न पडेंगे तो और क्या होगा? हम किसी ईमानदार एवं साधारण आदमी को वोट नहीं देना चाहते शहर या जवार का जो सबसे भ्रष्ट व्यक्ति चुनाव मैदान में होता है हम उसे अपना नेता चुनते हैं, क्योंकि वह उस समय हमें कुछ तात्कालिक उपहार दे देता है, जिसके पीछे उसकी क्या मंशा है। हमें इससे कोई मतलब नहीं होता है। फिर जब वह जीतकर हमारे देश की सरकार का प्रतिनिधित्व करेगा तो चुनावों में खाली किये हुए अपने खजाने को सौ गुना न करना चाहेगा क्या? अगर किसी साधारण आदमी को हम वोट देते तो उसके सीने पर चढ़कर हम अपने पक्ष में नीत-निर्धारण करवाने में समर्थ होते, क्योंकि वह हमारे बीच का होता। वह हमारे जैसा दुखों को झेला हुआ होता। ऐसे में उसका कलेजा मोटा होने में कम से कम पांच साल से अधिक का समय लगता। तब तक हमारे ही बीच में और कोई अपना नेता बन जाता। और इस प्रकार हमारी जनता और देश दोनों में तरक्की होती । फिर ही इस देश से गरीबी जा सकती है अन्यथा ये मोटे मोटे लोग जो खाते हैं तो महीन हैं परंतु गरीबों पर मोटा जुर्म ढहाते हैं।

 माँ महंगाई हमारे देश की समस्या नहीं है। सबसे बड़ी समस्या है उसके पीछे छुपा भ्रष्टाचार, भ्रष्ट नेताओं की भ्रष्ट मानसिकता, जो रहते तो इस देश में हैं और सोचते विदेश की हैं। कुछ तो राजनीति को खानदान का व्यापार समझ बैठे हैं । राजनीति को अपने खानदान का अखाड़ा समझते हैं । नवयुवक विदेशी कंपनियों के लॉलीपॉप के पैकेज में अपनी प्रतिभा का शोषण कर वाते हैं, जो इन्हीं नेताओं की महती कृपा की देन है । मैं तो कहती हूँ मां इस व्यवस्था को सिरे से हटाया जाना चाहिए नव युवकों को आगे आकर देश की कमान संभालना चाहिए। इस शांति प्रिय देश में कुछ नेता जाति की जो गंदी राजनीति कर केवल अपने परिवार को बढावा देने में लगे हैं उनकी इस साजिस को नाकाम करने की कोशिश में लग ही जाना चाहिए। देश में फैले जाति-पांति ऊंच -नीच का भेदभाव भुलाकर देश की कमान संभालना चाहिए। देश की जनता को उसके कर्तव्यों के प्रति सचेत करना चाहिए। सही शासक जो अपने बीच का हो जनता में उसे चुनने में दिलचस्पी जगानी चाहिए। नहीं तो ये खानदानी राजनीति के खिलाडी लोग जिन्होंने हम गरीबों की मेहनत की उपज को विदेशों में जमा कर लिया है। अब कुछ ही दिन और महंगाई और अन्य भ्रष्टाचारी नीतियों से देश का शोषण करेंगे और वहीं जाकर विदेश में बस जाएंगे। हम देखते ही रह जाएंगे। हमारे हाथ कुछ भी नहीं लगेगा हम अपनों द्वारा चोरी हो जाएंगे । हम पुनः विदेशी ताकतों के हाथों गुलाम हो जाएंगे और गुलामी का त्रास हम भारतीयों से अधिक और कोई नहीं जानता। कितनी माताओं ने अपने सपूतों को बलि की वेदी पर चढ़ाया? तब जाकर हमें आजादी मिली है। उस गुलामी के दौर में हमें अपनी मर्जी से सांस लेने की स्वतंत्रता नहीं थी। उस गुलामी के पीछे भी हमारे सामंती शासकों की आपसी कलह ही थी । आज फिर वही प्रवृत्ति हमारे यहाँ बलवती हो रही है माँ मुझे तो बहुत उत्तेजना आ रही है। मैं कल से स्कूल न जाकर लोगों को इस विदेशी मानसिकता की गुलामी से बचने के लिए जागृत करने का प्रयास करूँगी। मैं यह जानती हूँ कि हमारे अकेले प्रयास का तात्कालिक कुछ लाभ नहीं होगा। लेकिन एक दिन जरूर होगा । प्रकृति का नियम है कि जो कुछ  भी बोला जाता है वह कुछ भी नष्ट नहीं होता है ।एक दिन लोग जागेंगे ही । फिर बचेंगे भारतीय संस्कृति और परंपरा की गरिमा को बचाकर रखने वाले हमारे भारतीय नेता । कल प्रातः हमारा नारा होगा जागो प्यारे देशवासियो, घर में ही शैतान है खाता जो मानवता को ऐसा यह इंसान है । अहिंसा का मंत्र साधकर आगे को बढते जाना है , भारत माता की आन को जयचंदों से बचाना है। जय हिंद।

  माँ ने कहा, बेटी शालिनी तुम अपनी भावनाओं में न बहो। यथार्थ और आदर्श में बहुत अंतर है । कितने बदलने का ढोंग रचकर आए और अपने को ईमानदार कहते रहे और बाद मे सबसे भ्रष्ट वही साबित हुए हमने अपनी उम्र में बहुत कुछ देखा है। फिलहाल तो हमारे घर में इस समय कुछ भी खाने का सामान नहीं है। आज हम क्या खाएँगे। शालिनी ने कहा माँ क्या बात कर रही होे? क्या हम एक दिन भोजन ना करेंगे तो मर  तो नहीं जाएंगे। इस देश में न जाने ऐसे कितने लोग रहते हैं जो महीनों भूख की आग में जलते रहते हैं। अब हमें उनके बारे में भी सोचना होगा और आने वाली पीढ़ी भूख से न मरे, उसके बारे में भी सोचना होगा कि भ्रष्चार का पिशाच हमें खा रहा है। अब हम एक प्रण करते हैं कि हम इस भ्रष्टाचार के कारकों को उखाड फेंकेंगे । माँ फिलहाल आज हम प्रकृति द्वारा प्रदत्त अमृत गंगा जल पीकर सो जाएंगे तो कैसा रहेगा?

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