भूत की तरह बेकाबू मन की दवा : गिरिधर कविराय

अरुणाकर पाण्डेय

आज भारत और दुनिया में मानसिक  रोग और उनके उपचार के लिए मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सकों की मांग बढ़ रही है । लेकिन यदि हम अपने एक प्रसिद्ध मध्यकालीन कवि गिरिधर कविराय की एक कुंडली देखें तो यह स्पष्ट दिखता है कि मन की चंचलता और उसके विकारों पर कविता की नजर रहती थी और कविता यहाँ लक्षण और उसके  उपचार को संजोने का फॉर्मूला बन गई है। यहां साहित्य की एक अलग भूमिका दिखती है । गिरिधर कविराय लिखते हैं 

जैसा यह मन भूत है

और न दुतीय बताल 

छिन में चढ़ै अकास में

छिन में धँसे पताल 

छिन में धँसे पताल 

होत छिन में कम ज्यादा 

छिन में सहर निवास करै

छिन बन का रादा 

कह गिरिधर बिन ज्ञान

चित्त थिर होत न ऐसा 

गुरु अनुग्रह बिना

बोध दृढ़ होत न जैसा “

इस कुंडली में कवि गिरिधर कविराय ने मन की गति और उसकी चंचलता या अस्थिरता को समझते हुए उसे स्थिर करने का उपाय बताया है। मन की गति को वे आश्चर्यचकित होकर उसे ऐसे भूत की संज्ञा देते हैं जिसके आगे कोई बेताल भी टिक नहीं सकता ।यह मन एक क्षण में तो आकाश में पहुँच जाता है तो दूसरे ही क्षण पाताल में धँस जाता है । एक ही क्षण में बढ़ जाता है और अगले ही क्षण सिकुड़ भी जाता है अर्थात उसे कोई समझ नहीं पाता । एक ही क्षण में वह नगर में रमने लग जाता है तो अगले ही क्षण उसमें वैराग्य उतपन्न हो  जाता है और वह संन्यास लेकर वन में बस जाना चाहता है।

ऐसे अस्थिर मन का इलाज गिरिधर जी यही बताते हैं कि जब उसे गुरु का ज्ञान प्राप्त होता है तब वह स्थिर होता है।गुरु के अनुग्रह से बोध दृढ़ होने लग जाता है।उससे जो ज्ञान मिलता है तब मन स्थिर हो जाता है ।यानी गुरु के दिये हुए ज्ञान से मन को स्थिर करके उसकी चंचलता से मुक्ति प्राप्त होती है ।इसमें यह जोड़ना चाहता हूँ कि यह जरूरी नहीं कि गुरु कोई व्यक्ति ही हो …वह कोई भी या कुछ भी हो सकता है (कविता भी) !

लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं

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