गत 22अगस्त को परसाई जी के सौ वर्ष हो गए हैं। हिंदी जगत में बहुत धूमधाम से विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए गए,इसकी अपेक्षा और आशा भी थी । इस अवसर पर प्रस्तुत है अरुणाकर जी का यह आलेख
अरुणाकर पाण्डेय
जब हम शिक्षा प्राप्त करने स्कूल में जाते हैं तभी से हमें अक्सर बहुत से विषयों में परिभाषा पढ़ाई
जाती है | उससे हम किसी भी विषय के उन शब्दों का वह अर्थ जानते हैं जो उसका वैज्ञानिक या
शब्दकोषीय अर्थ होता है | साहित्य पढ़ते हुए भी हम ऐसे कई शब्दों की अकादमिक परिभाषा पढ़ते और
समझते हैं जैसे कि कविता,उपन्यास,कहानी इत्यादि की परिभाषा | ऐसे में एक ऐसी विधा से हमारा
सामना होता है जिसे व्यंग्य कहा जाता है | यह व्यंग्य अंग्रेजी के सटायर (sattire) शब्द के करीब माना
जाता है और हिंदी में हरिशंकर परसाई जी इसके पर्याय हैं | उन्होंने एक बार व्यंग्य विधा की सैद्धांतिकी
और उसकी उपस्थिति पर जो लिखा वह अवश्य पढ़ना चाहिए |
एक बार परसाई जी को एक साहित्यिक पत्रिका में नियमित व्यंग्य लिखने का आमन्त्रण मिला | पत्रिका
थी ‘कल्पना’ और संपादक थे श्री बद्रीविशाल पित्ती | उन दिनों भी परसाई जी यह अनुभव करते थे कि
जितना महत्व और स्थान साहित्य की अन्य विधाओं को मिलता था उसका थोड़ा भी वयंग्य को नहीं |
यह भी अन्य गद्य विधाओं की तरह कमजोर समाजशास्त्र का शिकार थी | जबकि आधुनिक विधाओं में
इसे अपनी मारक क्षमता और तिलमिला देने की शक्ति के कारण केंद्रीय स्थान बना लेना था | लेकिन
ऐसा कुछ भी परसाई जी को नहीं लग रहा था, जैसे कि इस विधा के साथ सौतेला व्यवहार पत्रिकाओं या
आलोचना के द्वारा बरता जा रहा था | ऐसे में जब ‘कल्पना’ पत्रिका द्वारा उन्हें नियमित रूप से व्यंग
स्तंभ लेखन का आमंत्रण मिला तो इस पर एक प्रतिक्रिया देते हुए उन्होंने ‘और अंत में’ नाम के व्यंग्य
पत्र संग्रह (1968) की भूमिका में लिखा था “कुछ असामान्य लगा |साहित्यिक पत्रिकाएँ ब्राह्मण होती
हैं,व्यंग शूद्र वर्ण का माना गया है | उसने कभी ब्राह्मण को नहीं छुआ | साहित्यिक पत्रिकाओं को उठाकर
देख लीजिए|मुझे लगा बद्रीविशाल अछूतोद्धार के काम में जुट गए हैं |या शूद्र का रुतबा बढ़ गया है | जो
भी हो,मुझे खुशी है कि यह स्थिति आ गई है कि अध्यात्म और धर्म की पत्र –पत्रिकाओं में भी कुछ
व्यंग आने लगा है | पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग का स्तंभ अनिवार्य सा हो गया है |”
यह कहना तो सही नहीं होगा कि यहाँ परसाई जी ने व्यंग की कोई व्यावहारिक परिभाषा दी है लेकिन
निश्चय ही उन्होंने इस विधा की दयनीता कर केंद्रित कर उसके वास्तविक चरित्र को तमाम परिभाषाओं
पर हावी कर दिया है | स्पष्ट है कि परसाई जी ने व्यंग्य की भाषा में ही व्यंग्य को लेकर साहित्यिक
वातावरण पर ही लाजवाब व्यंग्य कर दिया है | जब हम समाजशास्त्र या विमर्श पढ़ते हैं तब ऐसी भाषा
से अक्सर सामना होता है और वह हमें जागृत करने के लिए ही पढ़ाया जाता है | यदि समाज में व्यंग्य
जैसी विधा का महत्व हो तो उससे एक आशा बनी रहती है कि सच या यथार्थ को जानने,समझने और
देखने के लिए एक माध्यम बचा हुआ है | विश्व के इतिहास में एक ऐसा ही बड़ा नाम चार्ली चैपलिन का
मिलता है जिन्होनें अपनी मूक फिल्मों से तत्कालीन यूरोपीय समाज की पड़ताल सारी दुनिया के सामने
की| यहाँ तक कि खुद हिटलर भी उनके काम से परेशान रहते थे और उन्हें डराने धमकाने के प्रयास
किये जाते थे | उनकी फिल्में व्यंग्य का ही रूप हैं जिनसे व्यंग लेखकों को बहुत से व्यंग्य कौशल सीखने
को मिलते हैं | हिंदी में परसाई जी ने भी यही काम किया | एक जगह लिखा है कि उन्हें भी व्यंग्य के
कारण पाठकों से धमकियाँ भी मिली हैं | लेकिन इस सब के बावजूद परसाई जी ने व्यंग्य विधा को
स्थापित करने में ‘कल्पना’ पत्रिका की भूमिका को ऐतिहासिक माना है, उसके योगदान को मुक्त कंठ से
स्वीकृति दी है |
परसाई जी की उपस्थिति हिंदी साहित्य में व्यंग्य को केंद्रीय महत्व दिलाने कि भी रही जो उनके
जीवनकाल में संभव हुआ था | जब 1973 में उनका व्यंग्य संग्रह ‘वैष्णव की फिसलन’ प्रकाशित हुआ
तब पांच वर्षों के बाद भी वे व्यंग्य के बारे में लिखते हैं “व्यंग्य पर मैं पहले बहुत कुछ लिख चुका हूँ |
व्यंग्य की प्रतिष्ठा इस बीच साहित्य में काफी बढ़ी है – वह शूद्र से क्षत्रिय मान लिया गया है
|व्यंग्य,साहित्य में ब्राह्मण बनना भी नहीं चाहता क्योंकि वह कीर्तन करता है |” दलित विमर्श की दृष्टि
से देखें तो परसाई जी की यह टिप्पणी विवादित मानी जाएगी और इसका विश्लेषण भी संभवतः आगे
कभी विमर्श करेंगे | लेकिन इसमें व्यंग्य को लेकर जो बात दिख रही है कि पांच वर्षों के अंतराल में इस
विधा के प्रकाशन और उपस्थिति में काफी सुधार हुआ और पाठक व्यंग्य की और आकर्षित हुए | विधा
को प्रतिष्ठा दिलाने में यह परसाई जी कि उपलब्धी मानी जाएगी | लेकिन आज जब साहित्यिक
पत्रकारिता को देखते हैं या फिर हिंदी की अधिकांश लोकप्रिय ब्रांडेड पत्रिकाओं को देखते हैं ऐसा लगता है
कि साहित्यिक पत्रिकाओं में व्यंग्य और और लोकप्रिय समाचार पत्रिकाओं में साहित्य कि उपस्थिति
लगातार घटती चली गई है | उस समय तो परसाई जी और बद्रीविशाल पित्ती जी ने एक ऐतिहासिक और
निर्णायक कदम उठाकर व्यंग्य विधा को नई धार दी थी लेकिन आज के समय में अब यह विषय पुनः
उपेक्षा का शिकार हो गया है |लघु पत्रिकाओं के माध्यम से हिंदी में बहुत से वयंग्य लेखक अपने प्रयास
करते हैं लेकिन आलोचना और बहस के केंद्र में व्यंग्य को लेकर आना उसे केंद्रीय महत्व दिलाना आज
फिर एक बड़ी चुनौती दिखती है | लेकिन यह सिर्फ व्यंग्य के साथ ही नहीं बल्कि साहित्य की ही बड़ी
समस्या लगती है |
लेकिन एक बात यहाँ देखने की है कि 68 वाली भूमिका में विधा के लिए ‘व्यंग’ शब्द का उपयोग किया
गया है जबकि 73 की भूमिका में वह ‘व्यंग्य’ हो गया है | दोनों ही भूमिकाएँ परसाई जी की लिखी हुई हैं
और दोनों ही ‘परसाई रचनावली’,राजकमल प्रकाशन से उद्धृत हैं| संस्करण 2012 का है | या तो स्वयं
परसाई जी ने इन दोनों शब्दों का उपयोग विधा के लिए किया है या फिर यह सम्पादकीय त्रुटि है |
लेकिन नागरीप्रचारिणी सभा के रामचंद्र वर्मा द्वारा ‘संक्षिप्त हिंदीशब्दसागर’ में व्यंग्य शब्द का ही
उल्लेख मिलता है जिसका पहला अर्थ शब्द शक्ति के संदर्भ में है और दूसरा ताना,बोली और चुटकी के
संदर्भ में है | स्पष्ट है कि विधा के लिए दूसरे अर्थ का सामीप्य है और यही आगे चलकर एक
साहित्यिक और भाषाई विशेषता से बढ़ कर एक स्वतंत्र साहित्यिक विधा का रूप ले लेता है | इस पर भी
और विचार होना चाहिए | लेकिन यह ऐतिहासिक स्थिति दिखती है कि परसाई जी हिंदी व्यंग्य का पर्याय
बने हुए हैं और उनके बाद जैसे वह जगह अब भी किसी की राह देखती है |
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं.