ठाकुर प्रसाद मिश्र
सनातन सर्वत्र है सम्पूर्ण धारा सनातन युक्त है.जहाँ तक प्रकृति एवं पुरुष का संयोजन है वहाँ तक सनातन है.हम भाग्यशाली हैं कि इसका प्रमुख चिंतक हमारा देश भारत है.इसकी अवधारणा किसी मत पंथ और समुदाय से ऊपर है.इसमें हम वैभिन्न्य तलाशते हैं तो यह उस स्थिति की तरह है जो किसी भारतीय सनातनी का भाई ब्रिटेन, अमेरिका चला जाए वहाँ जाकर बस जाए और वहाँ की जीवन पद्धति अपना ले तो क्या वह उसका भाई नहीं रहेगा है,तो वह भी सनातनी माता- पिता की संतान है न. हम अपनी जीवनशैली की तुला पर तौलकर उसमें दोष निकालें, यह बात अलग है किंतु या तो सत्य ही है कि
जड़ चेतन गुण दोषमय विश्व कीन्ह करतार
संत हंस गुण गहहिं सब परिहरि बारि विकार.
अपनी – अपनी सोच मत पंथ के अनुसार लोग परिभाषा गढ़ते हैं .माँ को माँ के भाव से ,पिता
को पिता के भाव से ,बेटी बहन बेटी या बहन के भाव से,भाई को भाई के भाव से देखने का ढंग
तो सर्वत्र है.विवाह संबंध की सोच तो सभी मनुष्यों में है तो वे सनातन से अलग कैसे हैं? हां
स्वमति निर्मित कालिख मुख में पोतकर कोई यदि कोई अपने को अलग दिखाता है तो यह
अलग बात है .
अब आती है बात धर्म की तो “धारयते इति धर्म:” की बात समझ में आती है क्योंकि पूरे जीवन
भर हम जिन कृत्यों को करते हैं वह सभी धर्म का अंग हैं. बस इसकी विवेचना गुणदोष के
आधार पर करने पर इस के दो स्वरूप उभरते हैं सकारात्मक एवं नकारात्मक जो मानव की सोच
पर निर्भर करते हैं. अपने को या किसी अन्य को सुंदर जीवन देने की सोच सकारात्मक मानी
जाती है तो वहीं आत्महत्या या किसी की हत्या करने की सोच को आप क्या कहेंगे ? सनातन
की कोख में पलने वाले धर्म का आकार सनातन के समान ही इतना विराट है चिंतन करते
जीवन बीत जाएगा किंतु मर्म समझ में नहीं आएगा.
सनातन को किसी देश की सीमा में बांधना इसके अपमान जैसा है.इस पर जितना बड़ा चिंतन
होगा यह उससे कहीं विशाल दर्शित होगा .धरा की खंडीय परिस्थितियों के अनुसार ही इसका
प्राकट्य और तिरोहन होता रहता है . आज के परिवेश में यह प्रसन्नता का विषय है ये विदुष
समाज समाज में इस पर पुनः चिंतन और मनन प्रारंभ हो गया है. अतः भटकी हुई मानवता को
पुनः सत्य पथ पर लाने का संबल मिलेगा.सनातन को जानने की पूर्णता के पथ पर अग्रसर
मानव पुनः कभी दोष बीच में नहीं फंसता.