‘कैदी और कोकिला’ में अहिंसा और उत्पीड़न का द्वंद्व

अरुणाकर पाण्डेय

यह आलेख प्रसिद्ध गांधीवादी साहित्यकार एवं स्वतंत्रता सेनानी पं. माखनलाल चतुर्वेदी जी द्वारा रचित कविता ‘कैदी और कोकिला’ पर केंद्रित है | अरुणाकर जी का यह आलेख स्वतंत्रता दिवस पर विशेष  रूप से प्रकाशित किया जा रहा है जिसमें अहिंसा से उत्पीड़न का सामना करने पर दृष्टि जाती है | इससे यह भी पता लगता है कि स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़कर  हिंदी के साहित्यकार क्या रच रहे थे और साहित्य में विमर्श का आधार तत्कालीन परिस्थितियों के कारण ही बन गाय था |

१८५७ से १९४७ तक के नब्बे साल के स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गांधी के नेतृत्व में जो सत्याग्रह के प्रयोग हुए उसमें सहभागिता करने वाले अनेक सेनानियों में माखनलाल चतुर्वेदी का योगदान साहित्य और पत्राकारिता जगत द्वारा विशेष माना जाता है | उनकी विशेषता यह थी कि वे जिस स्वतंत्रता के आंदोलन को स्वयं जी रहे थे उसे वे अपने ह्रदय के भावों से लगातार रच भी रहे थे | आज उनके वे शब्द इस बात का प्रमाण हैं कि उनकी कलम कोरे कागजों को सजाने के लिए नहीं थी बल्कि एक्टिविज्म के चंद अनन्य उदाहरणों में से एक है जिसका विधिवत अध्ययन लेखन और आंदोलन के अन्तर्सम्बन्धों को न केवल उजागर करता है बल्कि उसे सशक्त बनाने के लिए शिक्षित भी करता है | एक प्रकार से यह कहना ही चाहिए कि माखनलाल चतुर्वेदी की शब्द साधना वास्तव में स्वतंत्रता आंदोलन के सत्याग्रह से निकली प्रयोगशाला मे विकसित हुयी है जिसे समकालीन विमर्शों की तुलना में एक्टिविज्म के बहुत करीब माना जा सकता है | यह प्रस्तावित करता है कि जैसे आज का विमर्श  साहित्य से अपना एक मजबूत रिश्ता बनाकर चलता है वैसे ही माखनलाल जी का साहित्य भी अपने समय के राष्ट्रवादी आंदोलनों से निर्मित होता हुआ बेझिझक संवाद कर रहा है | इस पूरी प्रक्रिया में यह बहुत महत्वपूर्ण है कि माखनलाल चतुर्वेदी जी ने लगभग तीस वर्ष जेल में बिताएं हैं और उनके रचनाकर्म का अधिकांश वहीँ निर्मित हुआ है | यानि कि उनका साहित्य सत्याग्रह के फलस्वरूप जेल में लिखा हुआ साहित्य है और इस कारण वह उनकी उससे मनोदशा का साक्षात्कार आज भी हमें करा सकने में सक्षम है |    

अपनी जिस कविता के लिए माखनलाल जी सर्वाधिक जाने-माने जाते हैं वह वास्तव में ‘पुष्प की अभिलाषा’ नाम की कविता है जो अत्यंत लोकप्रिय है | इस कविता के लिए तो उन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता लेकिन स्वतंत्रता संग्राम की दृष्टि से उन्होंने और कई महत्वपूर्ण कविताएँ लिखीं हैं जो उनके समकालीन जिजीविषा का पर्याप्त परिचय देती हैं | लेकिन इसके साथ यह भी स्मरणीय है कि ये कविताएँ सिर्फ सैद्धांतिक या भावनात्मक लेखन की पूर्ति करती हों ऐसा नहीं लगता बल्कि ये कविताएँ इतिहास के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती हुयी प्रतीत होती हैं और इसलिए अपना विशिष्ट महत्व रखती हैं | उनकी ऐसी कविताओं में ‘जलियावालाँ बाग़ की वेदी’,’अदालत में सत्याग्रही कैदी के नाते बयान’, ‘निःशस्त्र सेनानी’, ‘मरण त्यौहार’, ‘स्वर्गीय सप्रेजी की महायात्रा पर’,’राष्ट्रीय झंडे की भेंट’ जैसी रचनाये सहज ही देखी जा सकती हैं | ये अपनी समकालीन राष्ट्रीय महत्व की घटनाओं और प्रवृत्तियों को जीवंत बनाती चलती है जिससे इतिहास तो नहीं जाना जा सकता लेकिन निश्चित ही रूप से ये उन घटनाओं का अमूल्य साक्षात्कार अवश्य कराती हैं |

 एक अन्य विशिष्टता जो इन कविताओं की दिखती है वह यह कि इनमें इतिहास किसी अंतर्वस्तु की तरह तो कभी दिखता ही नहीं बल्कि वह कवि के सहज जीवन के अंग के रूप में विस्तार पाता है | राष्ट्रीय चेतनाओं की कविता में अतीत या इतिहास अपने आप में पुनर्जागरण और इतिवृत्तात्मकता के साथ बुना हुआ मिलता है और यह जयशंकर प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी कि कविताओं या अन्य साहित्यिक विधाओं में स्पष्ट दिखता है | प्रसाद जी के नाटकों के गीत, कविताओं और कहानियों में ऐसे चरित्र बहुत आते हैं जो भारतीयता को अंकित करते हैं लेकिन उनमें उनके वर्तमान सन्देश छिपे होने के बावजूद समकालीन नवीनता या नैरन्तर्य नहीं दिखता | मैथिलीशरण गुप्त के पात्र तो सर्वविदित हैं कि पुराण, शास्त्र और धार्मिक प्रसंगों से निर्मित होकर राष्ट्रीय चेतना के संवाहक बनते हैं | यदि उनकी प्रतिनिधि रचनाओं में ‘भारत भारती’ को छोड़ दें तो ‘साकेत’, ‘जयद्रथ वध’, ‘पंचवटी’ आदि अधिकतर प्रतिनिधि कविताओं में पुराण और मिथकों के चरित्र और घटनाएँ  राष्ट्रीय चेतना का संचार करने के प्रबल माध्यम बनते हैं | निराला जी की रचनाओं में भी जब राष्ट्रीय चेतना से भरी हुयी रचनाओं को देखा जाता है तो उनमें भी पुराण और इतिहास के चरित्र अपने पूरे कालबोध के साथ प्रस्तुत होते हैं | लेकिन यही बात माखनलाल चतुर्वेदी जी की रचनाओं में नहीं दिखती जबकि वे अधिकांश स्वतंत्रता संग्राम से जन्म लेकर ही पाठकों तक पहुँची हैं | उन्हें अपनी राष्ट्रीय चेतना संप्रेषित करने के लिए अतीत,इतिहास या पुराण की आवश्यकता नहीं हैं वे तो सीधे यह प्रस्तावित करती हैं कि हमारे स्वतंत्रता आंदोलन की कहानी ही हमारी सबसे जीवंत अंतर्वस्तु की तरह विद्यमान और असरकार है जिसके लिए संदर्भ नहीं, बस वह खुली आँख चाहिए जिनसे उनका समकालीन अपनी लड़ाई सीधे लड़ता हुआ दिखता था और अन्य सेनानी बनाता जाता था |

इसके साथ ही एक अन्य महत्वपूर्ण विशेषता जो माखनलाल चतुर्वेदी जी की कविताओं में दिखती है कि उनकी कविताएँ कहीं भी हिंसा से प्रेरित आंदोलन का समर्थन करती हुयी नहीं दिखतीं | वे महात्मा गांधी के पथ का अनुसरण करती हैं और अपने पाठकों को भी उसी मार्ग के प्रभाव और व्यवहार पर चलाना जानती हैं | इस अर्थ में देखा जाय तो उनकी कविताएँ गांधीवाद और गांधी जी के प्रयोगों का हिंदी में एक जीवंत दस्तावेज बनती हैं और यह समझ बनाती हैं कि अहिंसा और सत्याग्रह जैसे ऐतिहासिक आंदोलन कैसे अपने सेनानियों के मन में ऊर्जा भारती रही होंगी | वे गांधी जे के प्रयोगों के सबसे निकट स्त्रोतों में से एक लगती हैं जिनसे इतिहास को बदलने वाली शक्तियों का परिचय मिलता है | उनके समकालीन या एकाध पिछली पीढ़ी के रचनाकारों में यह बहुत कम देखने को मिलता है | वे बड़े स्थापित साहित्यिक आंदोलनों के कवि-कलाकार हैं लेकिन इस तरह से सीधे राजनीतिक-ऐतिहासिक आंदोलन के लिए उनकी कलम तुलनात्मक रूप से वैसी कर्मशील नहीं दिखती जैसी कि माखनलाल चतुर्वेदी की | फिर भी यह अवश्य है कि इतिहास और साहित्येतिहास में उनका अपना महत्व है और माखनलाल जी की कृतियों का अपना | जब रामचन्द्र शुक्ल जी का ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ प्रकाशित हुआ तब उस समय उसी के अनुसार माखनलाल चतुर्वेदी जी की कोई काव्य-पुस्तक अलग से प्रकाशित नहीं हुयी थी | संभव है कि जितनी कविताएँ मूल्यांकन के लिए चाहिए थीं तब वे शुक्लजी को नहीं मिलीं लेकिन अपने इतिहास में उन्होंने सियारामशरण गुप्त,बालकृष्ण शर्मा नवीन,सुभद्रा कुमारी चौहान,हरिवंश राय बच्चन, रामधारी सिंह दिनकर,ठाकुर गुरुभक्त सिंह जी की सूची में माखनलाल चतुर्वेदी जी को स्वच्छंद कवियों की श्रेणी में प्रथम  स्वीकार किया है | इन सबको वे आधुनिक काल खंड की नयी धारा के तृतीय उठान के अंतर्गत अनिवार्य कवि मानते हैं | उन्होंने माना है कि उन सबकी अलग-अलग विशेषता है जिसके कारण संभवतः उन्हें किससे एक आन्दोलन से जोड़ा नहीं जा सकता | एक अन्य स्थान पर अपने इतिहास में शुक्ल जी माखनलाल चतुर्वेदी का महत्व एक और तरीके से रेखांकित करते हैं जब वे काव्यखण्ड मन तृतीय उत्थान की वर्तमान काव्यधाराओं का मूल्यांकन करते हैं | स्पष्ट है कि तृतीय उठान स्वयं शुक्ल जी का समकालीन था इसलिए नयी वैश्विक परवृत्तियों के साथ उभरते नए साहित्यिक स्वरों को वे अपनी तरह से समझ रहे थे | विश्व की कम होती दूरियां और बढ़ते संपर्क पर उनकी दृष्टि थी और इसी परिप्रेक्ष्य में वे माखनलाल चतुर्वेदी जी का भी उल्लेख करते हुए लिखते हैं –

“अब संसार के प्रायः सारे सभ्य भाग एक दूसरे के लिए खुले हुए हैं | इसके एक भूखंड में उठी हुयी हवाएँ दूसरे भूखंड में शिक्षित वर्गों तक तो अवश्य ही पहुँच जाती हैं | यदि उनका सामंजस्य दूसरे भूखंड की परिस्थिति के साथ हो जाता है तो उस परिस्थिति के अनुरूप शक्तिशाली आंदोलन चल पड़ते हैं | इसी नियम के अनुसार शोषक साम्राज्यवाद के विरुद्ध राजनीतिक आंदोलन के अतिरिक्त यहाँ भी किसान आंदोलन,मजदूर आंदोलन,अछूत आंदोलन इत्यादि कई आंदोलन एक विराट परिवर्तनवाद के नाना व्यावहारिक अंगों के रूप में चले |श्री रामधारीसिंह ‘दिनकर’,बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ माखनलाल चतुर्वेदी, आदि कई कवियों की वाणी द्वारा ये भिन्न-भिन्न प्रकार के आंदोलन प्रतिध्वनित हुए |”

इस उद्धरण से यह स्पष्ट होता है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के मन में छायावाद के बाद जिन कवियों का प्रभाव प्रमुखता से पड़ रहा था उनमें निस्संदेह माखनलाल चतुर्वेदी भी एक थे | यहाँ यह याद रखना चाहिए कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल इन कवियों के समकालीन साहित्येतिहासकार थे| इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात जो यहाँ स्थापित होती दिखती है कि अपने पूर्व के साहित्यिक आंदोलनों से अलग अब जमाना ऐसी कविताओं या साहित्य का भी आ चुका था जो वर्तमान को अभिव्यक्त करने में भरोसा रखता था और इस रूप में जीवन के अधिक निकट और व्यावहारिक प्रतीत हो रहा था | गांधीजी के प्रयोग न केवल वैश्विक चर्चा के विषय थे बल्कि नए भारत के निर्माण के लिए भी आधार रच रहे थे जिनसे शुक्लजी के कथन का संबंध भी बनता दिखता है | माखनलाल चतुर्वेदी का साहित्य की इस नयी प्रवृत्ति के साथ ही संबद्ध दिखता है इसमें कोई संशय नहीं | इससे एक्टिविज्म की ही पुष्टि होती है |

ऐसी ही प्रवृत्ति की माखनलाल जी द्वारा रचित एक महत्वपूर्ण कविता है ‘कैदी और कोकिला’ | महत्वपूर्ण इसलिए कोंकी इस कविता को उन्होंने तब लिखा था जब सन 1930 में वे जबलपुर सेन्ट्रल जेल में कारावासी थे | उनकी यह कविता उनके काव्य संग्रह ‘हिमकिरीटनी’ में संकलित है जिसे साहित्य अकादेमी ने माखनलाल चतुर्वेदी रचना संचयन में डॉ.कृष्णदत्त पालीवाल के संपादन में प्रकाशित किया है | अपने संपादकीय में डॉ. पालीवाल ने इस कविता के बारे में एक अत्यंत रोचक तथ्य की ओर पाठक का ध्यान आकर्षित किया है कि जेल में एक कैदी द्वारा लिखी गयी यह कविता अज्ञेयजी को भी बहुत आत्मीय थी | दिल्ली षड्यंत्र केस में जब वे जेल में थे तभी उनका साक्षात्कार माखनलाल जी की कविता कैदी और कोकिला से हुआ | उसके पहले वे ‘पुष्प की अभिलाषा’ पढ़ चुके थे | ‘कैदी और कोकिला’ का वाचन रात के समय जेल की कोठरी में किया जाता था और उसे अज्ञेय जी ने उसे कॉपी भी किया था | इस कविता में प्रयुक्त किये गए एक विशेष पदबंध की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है- मधुर विद्रोह बीज | अज्ञेय जी को यह कविता और उसकी भाषा प्रिय होने के बावजूद इस बंध से वैषम्य भाव था | इसका कारण यह था कि वे क्रांतिकारी स्वभाव के व्यक्ति थे जो अपने विद्रोह को मधुरता के साथ रखने के हिमायती नहीं थे | अज्ञेय जी ने लिखा है –

“निःसंदेह इस कविता के उन दिनों इतना प्रिय होने में एक कारण मनोवैज्ञानिक भी रहा होगा – कोकिल के साथ एक अवचेतन एकात्मता का बोध,क्योंकि उन दिनों हम सभी बंदी क्या अपने को चुपचाप मधुर विद्रोह बीज बोने वाले नहीं मानते थे |”  

अज्ञेय जी के इस कथन से पता लगता है कि इस कविता के साथ उनका द्वंद्वात्मक संबंध था | एक तो मनोवैज्ञानिक रूप से एकात्मता थी और दूसरी ओर मधुरता से परहेज था | एक ऐसा प्रेम जो पूरी तरह स्वीकार नहीं था | लेकिन यह बात स्पष्ट होती है कि अपने पाठकों से यदि इस कविता की कोई असहमति थी तब भी वे इसे प्रेम करने के लिए बाध्य थे | यही इस कविता का जादू है | अज्ञेय जी आगे लिखते हैं कि जेल से निकलने के बाद् जब पुस्तकें रखने कि छूट मिली तब उन्होंने माखनलाल चतुर्वेदी जी के संग्रह पढ़े | एक प्रश्न जो यहाँ बनता है वह यह कि मधुर विद्रोह के बीज के पीछे क्या कारण था ! अपने शत्रु और उसके दिए जा रहे उत्पीड़न के लिये मधुर प्रतिकार और उसका मनोविज्ञान कैसे बनाया जा सकता था | इसके पीछे गांधीजी कि संप्रेषण नीति कार्य कर रही थी जिसे असंभव और अनिर्णयात्मक समझा जाता रहा और आज भी ऐसी समझ है |

‘कैदी और कोकिला’ माखनलाल जी कि एक ऐसी कविता है जिसमें कारागर में बंद एक कैदी रात को एक कोकिला के स्वर सुनता है और उससे संवाद करते हुए अपने मन की भावनाओं को व्यक्त करता चला जाता है | रात के अकेलेपन में एक बंदी जब बहुत अकेला होता है तब उसके भीतर के मानसिक द्वंद्व अक्सर अनकहे रह जाते है | ऐसे में बात करने के लिए कोई नही जिससे अपनी भावनाओं और व्यथाओं को खुल कर कहा जा सके | जब बंदी को कोकिला का मधुर स्वर सुनाई पड़ता है तब वह उससे ही इस कविता के रूप में अपने अंतर्मन की बातें कहता है | यह अपने आप  में ही कितना बड़ा उत्पीड़न है कि पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ कैदी अपने भीतर ही घुट जाने के लिए विवश होता चला जाता है | यह कोकिला ऐसे में उसके लिए अभिव्यक्ति का माध्यम बनती है | यह स्थिति इस कविता को और भी कारुणिक बना देती है | वास्तव में कोकिला एक पक्षी है और बंदी एक मनुष्य इसलिए उनके बीच मानवीय संवाद संभव ही नही है लेकिन यह कारुणिक दृश्य अभिवयक्ति की आवश्यकता को इतना अपरिहार्य बना देता है कि बंदी को इससे भी संतुष्टि मिल जाती है कि अब इस कोकिला से ही अपने मन की बात कह दे |

बंदी जब कोकिला की कूक सुनता है तब वह उसे आधार बना कर उससे प्रश्न पूछने लगता है | वह पूछता है कि तुम्हारे कूक में क्या सन्देश है ? इसके साथ ही बंदी अपने जीवन में भोग रहे दुखों का बखान करता चलता है और उससे स्पष्ट होता है कि स्वतंत्रता का मोल कितनी गहन यातनाओं के बदले समझ आया था | कवि कहता है कि चारों तरफ लम्बी काली दीवारें है और इस कारगार को संचालित करने वाले लोग भी भ्रष्ट है | इस पर उन्हें कभी पेट भर खाना नही मिलता और और इन कष्टों पर कभी मृत्यु भी नसीब नही होती | इतनी गहरी रातों में चन्द्रमा भी अंततः निराश कर जाता है, तो ऐसे निराशाजनक वातावरण में बंदी उससे पूछता है कि कोकिला तू क्यों कूकी ! कवि जानता है कि कोकिला की तरफ से कोई जवाब नही आ सकता लेकिन फिर भी वह उससे संवाद कायम किया चला जाता है | वह आगे बताता है कि कैसी ध्वनियाँ ऐसे बंदी जीवन में सुनाई पड़ती हैं ! अन्य कैदियों के श्वासों की आवाज,लोहे के दरवाजों की आवाज,संतरियों और उनके जूतों की आवाज ही उनके कानो में समा जाती है | यहाँ कवि फिर पूछता है कि ऐसे वातावरण में कोकिला क्यों अपनी मधुर ध्वनि सुनाती है | स्पष्ट है कि यहाँ वर्णित की गयी सारी परिस्थितियों में  दरवाजों, जूतों आदि की आवाज भी गहरे उत्पीड़क का काम कर रही हैं और इनके विरुद्ध यदि कवि किसी ध्वनि को महत्व दे रहा है तो वह निश्चित रूप से कोकिला की मधुर कूक है | यह मधुर कूक यहाँ अहिंसा का प्रतीक है क्योंकि एक तो यह कर्णप्रिय है और दुसरे यह मानवता  की पक्षधर है | यह एक ऐसी  समांतर प्रतिभा है जो कला और प्रकृति का बेजोड़ सम्मिलन होते हुए असमानता और अमानवीयता को चुनौती देती है | वह लगातार निर्ममता का उत्तर अपनी मधुरता से देती है और यह विश्वास भी पैदा करती है कि अंततः जीत उसी बकी होगी | यदि विमर्शों की दृष्टि से देखा जाय तो यह धारणा बनती है कि यह कविता उत्पीड़न बनाम अहिंसा की बाइनरी को जन्म देती है और इस अर्थ में यह विशिष्ट और ऐतिहासिक कविता है | यहाँ उत्पीड़न करने वालों से अधिक बल अहिंसा और सत्याग्रह के पथ पर चलने वालो का दिखता है | इसका आधार भी विश्वास है | कविता के अंत में कवि एक प्रश्न पूछते है

                “क्या ! घुस जाएगा रुदन

                तुम्हारा निश्वासों के द्वारा

                कोकिल बोलो तो

                और सवेरे हो जाएगा

                उलट-पुलट जग सारा

               कोकिल बोलो तो !

माखनलाल जी की यह कविता करुणा के द्वारा ह्रदय परिवर्तन पर आधारित है | बंदी को पता है कि कोकिला कोई स्पष्ट उत्तर नहीं देगी बल्कि हमेशा की तरह कूकेगी | लेकिन वह उससे यह संवाद करके भी यह विश्वास बनाये हुए है कि सुबह उलट-पुलट हो सकती है यानि कि स्वतंत्रता मिल सकती है | भारतीय समाज और इस बंदी के मन का लक्ष्य पूरी तरह स्पष्ट है कि उसे स्वतंत्रता चाहिए | वह इस लड़ाई को अहिंसा से ही जीतना चाहता है | परंतु इस क्रम में उसे यह स्पष्ट नही है कि स्वतन्त्रता का लक्ष्य उसे कैसे मिलेगा क्योंकि भारतीय समाज की यह लड़ाई कई वर्षों से लगातार लड़ी जा रही है जिसमें कोई यह नही कह सकता कि कब और कैसे पराधीनता का यह अन्धकार छटेगा और स्वाधीनता का प्रकाश फैलेगा | कविता की अंतिम पंक्तियाँ यही कहती है कि बंदी सशंकित है | वह प्रश्न की भाषा में सोच रहा है जिससे संशय की ही पुष्टि होती है | लेकिन कब और कैसे जैसे प्रश्नों से सशंकित होने के बावजूद जिस एक बात के लिए वह पूर्णतः आश्वस्त है वह यह है कि वह निराश नही है और अपने इर्द-गिर्द की हर क्रिया को अपनी इसी आशा से जोड़ता है कि वह पल कभी भी उन्हें मिल जाएगा जब आजादी का स्वाद उन्हें चखने को मिलेगा |

यहाँ यह भी विचार करने की बात है कि इस कविता में उत्पीड़न को विज्ञान और योजना का समर्थन है और अहिंसा को आस्था और सहनशक्ति का ! अंग्रेज राज के पास अपने समय की सशक्त तकनीक और प्रौद्योगिकियाँ है जिनसे यह उम्मीद की जा सकती थी कि वे मनुष्य मात्र के उत्थान में सहायक होंगी | लेकिन इन सब का दुरूपयोग इस तरह से है कि कैसे अपने से इतर मनुष्य को रेखांकित कर उसे बलहीन किया जाय और फिर उसे गुलाम बनाकर अपने राज का वर्चस्व कायम किया जाय | इसे आधुनिक समझ कहने में परहेज होना चाहिए क्योंकि क्योंकि यह महज एक प्रकार का यंत्रीकरण जिसमें मनुष्य के प्रति कोई संवेदना नही है | इसके विपरीत यदि अहिंसा पर विचार किया जाय तो आस्था, आत्मबल और सहनशक्ति कुछ पुराने विचार जान पड़ते है या कहा जाय कि वे मनुष्य के पुराने साथी है लेकिन फिर भी वे उसी मानववाद और संवेदना को केंद्र में रखते है जिससे आधुनिकता सही मायने में अपना आधार प्राप्त करती है | इस अर्थ में देखें तो यह प्रतीत होता है कि काल की यात्रा में मनुष्य आधुनिकता के समीप पहले आया है और जब वह यंत्र और तकनीकों के सम्पर्क में आया तब वह अधिक खूंखार और अमानवीय होता चला गया है | माखनलाल जी की यह कविता बंदी के रूप में जैसे उससे आधुनिक मानव को अहिंसा और सत्याग्रह के द्वारा यांत्रिकता और उत्पीड़न की ब्रटिश-यूरोपीय व्यवस्था के समक्ष एक बहुत बड़े जवाब की तरह प्रस्तुत करती है |इसमें कोई संशय नही कि इसके पीछे महत्मा गांधी के दिखाए हुए मार्ग का वे अनुसरण कर रहे है |

इस कविता के बहाने एक बात और उभरती है कि क्या गांधीजी का मार्ग एक विचारधारा है या फिर उसमें भी विमर्श की विशेषताएँ दिखती है | इतिहास की यात्रा में विचारधाराएँ पहले स्थापित होती हैं  और विमर्श बहुत बाद में | विचारधाराएँ बहुत लम्बे समय तक मार्गदर्शन करती है और दुनिया को व्यवस्था देती है और फिर स्थानीय और छोटे-छोटे कारणों से उनके प्रति एक विद्रोह या एंटी-डिसिप्लिन जन्म लेते है और विमर्शों का युग आने लगता है जिसमें सत्ता और उसके वर्चस्व की पोल खोली जाती है और उनका पुरजोर विरोध किया जाता है | इसमें किसी ऐसे समाज या समूह से सहयोग की अपेक्षा नही की जाती जो पहले की व्यवस्थाओं की उपज हो | इसमें उनलोगों का साथ अधिक अपेक्षित होता है जी व्यवस्थाओं के द्वारा शोषित हों और उसकी सत्ता को चुनौती देने के लिए सतत प्रयत्नशील हों | इसके बाद वे अपनी सत्ता की स्थापना के साथ एक नई व्यवस्था भी प्रस्तावित करती है | यदि इस आलोक में माखनलालजी कि इस कविता ‘कैदी और कोकिला’ को देखा जाय तो यह किसी थ्योरी पर बहुत जोर नही देती बल्कि लगातार संघर्ष की ही स्थिति को यथार्थ मान कर  उसे बरतती है | अर्थात यदि उनकी इस कविता को अपने तत्कालीन समय की रिपोर्ट की तरह देखा जाय तो यह स्पष्ट करती है कि लेखन कर्म किसी साहित्यिक सिद्धांत या शास्त्र का मोहताज नही है बल्कि वहा अनुभव और लक्ष्य के प्रति समर्पित एक सांस्कृतिक कर्म है | यह कविता अपने समय की एक जीवंत झांकी प्रस्तुत करती है जो समाज में हो रही वास्तविक घटनाओं से जुड़ी भावना को उजागर करती है | आश्चर्यजनक रूप से यह उत्पीड़न और अहिंसा के बाइनरी का निर्माण कर यह आज के विभिन्न विमर्शों जैसी एक बीती हुई घटना लगती है |

लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं।

                                                               

2 thoughts on “ ‘कैदी और कोकिला’ में अहिंसा और उत्पीड़न का द्वंद्व”
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