अरुणाकर पाण्डेय
हिंदी के लोग कौन हैं जो हिंदी दिवस मनाते हैं ? देखा जाए तो इसमें मूलत: वे सब लोग शामिल होते हैं जो उसमें लिखते,पढ़ते और रचते हैं । इनमें साहित्यकार, पत्रकार या मीडियाकर्मी,अध्यापक,अनुवादक,प्रकाशक और प्रचारक होते हैं। इनमें से अधिकतर यह चाहते हैं कि जन साधारण उनको समझे और उनकी बातों पर विचार कर उनका अनुसरण करें। लेकिन ऐसा होता नहीं है क्योंकि जनसाधारण अपनी तरह से भाषा को जीती और बरतती है। कई बार ये लोग सफल हो जाते हैं लेकिन उसमें स्थाईत्व नहीं आ पाता और कुछ विशेष अवसरों जैसे कि हिंदी दिवस आदि के अलावा बात हाथों से फिसलती हुई दिखती है। हिंदी से जुड़े उपरिलिखित लोग जैसे ठगे से रह जाते हैं और कभी संतुष्ट नहीं हो पाते ।
ये लोग जानते हैं और अक्सर यह अभिव्यक्त भी करते हैं कि व्यावहारिक रूप से तो हिंदी की व्यापकता दिखती है लेकिन जब पढ़ने लिखने की बात आती है तब यह जनता अपनी रुचि के अनुसार अपने लिए भाषा का चयन करती है । क्या हिंदी के लोग वहां उसके साथ तब होते हैं जब वह अपनी भाषा का चयन करती है,यह सोचने की बात है । हिंदी के लोगों के लिए ही कभी मैथिलीशरण गुप्त जी ने एक पद्य लिखा था जो उनकी रचना पद्य प्रबंध में मौजूद है । उन्होंने एक पद्य लिखा है
नये नये बहुपत्र यदपि हैं नित्य निकलते
पर उनमें से अधिक चार ही दिन
हैं चलते ।
इसका कारण नहीं पाठकों का
अभाव ही
वे समाज पर डाल नहीं सकते
प्रभाव ही ।
कुछ इधर उधर से नकल कर
काम चलाना और है ।
पर भावों पर अधिकार कर
आदर पाना और है ।।
यह सरस्वती में प्रकाशित हुआ था और सन 68में स्वतंत्र पुस्तक पद्म प्रबंध में प्रकाशित हुआ । यह सरस्वती में प्रकाशित हुआ था और सन 68में स्वतंत्र पुस्तक पद्म प्रबंध में प्रकाशित हुआ । यह वह समय था जब हिंदी को राजभाषा बनाने के लिए पंद्रह वर्ष की अतिरिक्त समय सीमा निर्धारित की गई थी । यदि गुप्तजी के इस पद का अवलोकन किया जाए तो पता चलता है कि वे उस समय के हिंदी के लेखकों इत्यादि पर एक सघन टिप्पणी कर रहे हैं। पहला तो यह है कि उनमें उत्साह तो बहुत है लेकिन लंबी यात्रा करने का दृढ़ संकल्प नहीं है ।वे शुरुआत जितनी जोर शोर से करते हैं उसे बहुत निभा नहीं पाते । इसके साथ ही वे यह भी इंगित कर रहे हैं कि हिंदी में पाठकों का अभाव नहीं है लेकिन उन पाठकों पर हिंदी के रचनाकारों का कोई बहुत गहन प्रभाव नहीं है। इसके बाद जिस बात को वे उद्घाटित कर रहे हैं वह वास्तव में एक बहुत बड़ा आक्षेप है कि उनकी कोई मौलिकता नहीं है तथा वे नकल कर के अपना लिखने का काम चलाते हैं लेकिन इन सबके पीछे वे एक मूल कारण रेखांकित करते हैं जिसे समझने की आवश्यकता है । वह कारण यह है कि हिंदी के ये लेखक एवम अन्य कर्मी दरअसल जनता के भावों को नहीं जानते । यह संकेत इस बात का है की ये लोग जनता के बीच नहीं रहते और अपने लेखन के द्वारा मानो अपने विचार उन पर लादने की कोशिश करते हैं ।
यह आवश्यक नहीं कि इन शब्दों के माध्यम से गुप्तजी ने जो आलोचना तत्कालीन लेखक समाज की की है,वह आज भी शब्दशः लागू हो लेकिन जो आलोचना की जो दृष्टि उन्होंने दी है ,उससे अब भी बहुत लाभ निस्संदेह लिया जा सकता है ।इसकी वजह यह है कि आज भी हिंदी को लेकर ऐसी समस्याएं व्यक्त की जाती हैं ।
यह हिंदी के लेखकों और अन्य कर्मियों को समझना होगा कि आज भी हिंदी भाषा में जो कुछ लिखित और दृश्य माध्यम में प्रस्तुत किया जा रहा है वह देखा,सुना और पढ़ा जा रहा है । इसका अर्थ है कि गुप्तजी की यह बात सही है की पाठक का अभाव नहीं है ,वह प्रभाव नहीं है जिसका अपेक्षा एक लंबे समय से की जा रही है।शायद तब हिंदी के लोग में और अधिक लोग सहर्ष जुड़ सकें और इस खाई को पाटा जा सके ।
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं