निर्धन पुरुष का त्याग वेश्या भी कर देती है
रमेश कुमार मिश्र
निर्धनं पुरुषं वेश्या प्रजा भग्नं नृपं त्यजेत्.
खगाय: वीतफलं वृक्षं भुक्त्वा चाभ्यागतो गृहम्
भारतीय मनीषा के परम पंडित आचार्य चाणक्य कहते हैं कि यह जगत व्यवहार लेन देन से चलता है. उपर्युक्त श्लोक में कुछ उदाहरण के माध्यम से वे कहते हैं कि वेश्या उसी पुरुष से संबंध बनाती है जिसकी अंटी में धन हो, और प्रजा उसी राजा का मान सम्मान करती है जो विजयी होता है, पराजित प्रभावहीन होकर प्रजा के मध्य अपना सम्मान खो देता है. वे कहते हैं कि मनुष्य तो मनुष्य पक्षी भी उस वृक्ष को छोड़ देते हैं जिसमें पल समाप्त हो जाता है. अतिथि भी नाश्ता व भोजन के बाद घर का त्याग कर देते हैं अधिक समय तक नहीं रुकते हैं.
आचार्य चाणक्य यह बताना चाहते हैं कि वेश्या में अनुरक्ति रखने वाला पुरुष भी तभी तक एक वेश्या से अनुराग रखता है जब तक कि उसमें रूप और यौवन की मादकता है. और ठीक ऐसे ही वेश्या भी उसी पुरुष को अपने रूप यौवन का रसपान कराती है जिस पुरुष की गांठ में दाम होता है.
आचार्य चाणक्य कहते हैं राजा कभी पराजित मानसिकता का नहीं होना चाहिए, उसे अपने राज्य की सीमा की रक्षा का विस्वास अपनी प्रजा के साथ बनाए रखना चाहिए अन्यथा अविस्वास से प्रभाव खत्म और बिना प्रभाव सम्मान की कल्पना तक नहीं की जा सकती है.
पुरुष स्त्री राजा प्रजा की बात करने के बाद आचार्य चाणक्य पक्षी और वृक्ष की बात करते हैं वे बताना चाहते हैं कि जो मैं कह रहा हूँ उसका प्रमाण दर्शन आप प्रकृति और पक्षियों में भी पाएंगे. एक पक्षी तभी तक किसी वृक्ष पर टिकता है जब तक कि उस पर फल लगे होते हैं .अर्थात यह व्यवहार स्वाभाविक है. वे अतिथि को लक्ष्य करके बताना चाहते हैं कि अतिथि भी वहीं जाना चाहते हैं जहाँ उन्हें अच्छा भोजन और नाश्ता मिलता है, यह सब होने पर भी वे ज्यादा दिन वहाँ न टिकते घर को छोड़ ही जाते हैं.
आचार्य चाणक्य के इस श्लोक में एक संदेश छुपा है कि यह संसार जो एक हाथ ले और दे पर टिका है, इसमें भावना का मोल बहुत अधिक नहीं है, एक दूसरा संदेश है कि यदि आपको सब कुछ चाहिए तो आप सामर्थ्यवान हैं तभी संभव है. अन्यथा आपके पास इच्छा तो होगी लेकिन उसे पूरा करने का साधन नहीं होगा.