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रमेश कुमार मिश्र

एक दिन शाम का वक्त थ मैं अपने घर से बाजार की तरफ जा रहा था । रास्ते में एकाएक हमारे एक पुराने मित्र आते हुए दिख गये। हाथ देकर उन्होंने हमसे रुकने के लिए कहा और मैं उनके हाथ देने के पहले ही मोटर साइकिल में ब्रेक लगा दिया था। हमारे रुकते ही वे बोल पडे कि ए मत पूछना कि हमारा क्या हाल-चाल है। मैंने भी पूछा नहीं कि ऐसा आप क्यों कह रहे हैं। मैं उनके साथ रोड किनारे बरगद के पेड के नीचे बैठ गया ।वसंत का महीना था और दूर दूर तक सरसों और सूरजमुखी के सुहाने फूलों से

सस्ती जिंदगी
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धरती पटी हुई थी । मनोरम दृश्य मेरे मन को आहलादित कर रहा था , धरती दूल्हन की तरह सजी धजी धरती का सौंदर्य मनोरम लग रहा था, दूर क्षितिज तक पीलिमा का ऐसा मनोहर दृश्य मुझे पुरानी यादों में लेकर चला गया ।कुछ दिन पहले मैं पर्वती यात्रा पर गया हुआ था ।हिमालय की घाटियों की श्रृंखला पर चलते हुए मैंने देखा कि हिम श्वेत वस्त्र में पटे पर्वतीय प्रस्तर पर सूर्य अपनी रश्मियां विखेर रहा था। सब तरफ सोना ही सोना है ऐसा प्रतीत हो रहा था ।ऐसा मनमोहक दृश्य मैंने जीवन में पहली बार ही देखा था। आगे ज्यों- ज्यों बढता गया प्रकाश तेज होता हुआ, उस आभा में चार चांद लगा रहा था । किनारे -किनारे देवदारु और चीड के विशालकाय विराजमान वृक्ष मानो उन पर अपनी परछाई के रूप में सब कुछ निछावर कर देने को आतुर थे । पक्षियों का चीं चीं चूं का कलरव गान कर्ण प्रिय मधुर संगीत को जन्म दे रहा था , जिसे के कारण हृद तंत्री झंकृति के आगोश में खोकर स्वर लहरी के तानों का सजीव लुफ्त उठा रही थी। आगे बढा एक सरोवर देखा जिसमें झरनों के पानी गिरने की कल- कल  मधुर ध्वनि मे पानी गिर रहा जो पक्षियों के सुर के साथ अपनी राग मिला रहा था ।

मन आह्लादित होते होते एक वर्फ शिला पर जा पडा । दो जीव काम क्रीडा में मग्न एक दूसरे पर अपने को निछावर करते हुए असीमानंद की अनुभूति में सराबोर थे मैं इस दृश्य को दूर से देखकर रास्ता बदलते हुए  सरोवर के तट जा पहुंचा ।हरे पत्तों पर हल्के गुलाबी स्वेत पत्रों के साथ प्रमुदित कुमुदिनी एवं कमल की मोहकता का वर्णन जे शवेतनील जल में अद्भुत दिख रहे थे । मैं उसी सौंदर्य में खोया नौका विहार करने के लिए एक नौका पर बैठ गया और पतवार को धीरे- धीरे गति देना शुरू कर किया ही था कि सहसा मैंने देखा कि अभी-अभी जिन्हें देख मैं आह्लादित हो रहा था वे ही हमारी नवका तल से रौंदे जा रहे थे ।सौंदर्य दिल में बसता है वस्तु में नहीं , मैं अपनी वुद्धि तर्क पर बहुत देर तक स्थिर नहीं रह सका और एकाएका नवका को किनारे लाकर पुनः उसी प्रकृति सुषमा में खो गया ।अपने क्षणिक  मनः शांति के लिए उन सुकुमार प्राकृतिक पुष्पों  को रौंदना मैंने उचित नहीं समझा ।अहम की तुष्टि में मानव कितने संगीन अपराधों का जनक बन जाता है। इसी बीच मित्र ने मुझसे कहा भैया आप तो जाने कहां खोए हैं ।इतने दिनों बाद मुलाकात होने के बाद भी हम दोनों चुप बैठे हैं । मैंने कहा क्षमा करना मित्र शेखर मैं तो ये दूर तक फैली हरियाली एंव उस पर उग रहे पीले-पीले पुष्पों की मोहकता में खो गया था। जरा तुम भी देखो इन्हें उनसे जुडकर तो सारे ताप विकार दूर हो जाते हैं। मन तरह -तरह के रंगों की मेहमान नवाजी करने लगता है । बडा ही मनोरम दृष्य हैजो मन मोहित कर ले रहा है । और कहिए…

शेखर ने कहा कहना क्या है। दास्तां तो बहुत है, समय का सूरज पश्चिम दिशा में अस्ताचलगामी होने की राह में है। मित्र  जब आप यहां से गये  सब कुछ ठीक चल रहा था । व्यापार अच्छा बढा लिया था ।लेकिन धीरे- धीरे व्यापार की एक निश्चित कमाई ही हाथ आती थी ।आवश्यकताएं सुरसा के बदन की तरह बढने लग गयीं थीं। जहां खुले हाथों खर्च करने में कोई परहेज नहीं होता था और अब किसी आवश्यक कार्य पर खर्च करने को भी सौ बार सोचना पडता था। जमा पूंजी में सेंध मारी लगने लगी और एक दिन ऐसा आया कि वह सब कुछ भी खत्म हो गया । हताशा और निराशा के बीच झूलता मैं व्यापार में भी असफल होने लगा । दिन बीतते गये उम्र बढती गयी । जिम्मेदारियां अपना संसार विस्तार करने लगीं । कर्ज बढता गया । मैं कर्ज के भार तले इस कदर दब कि नित सुबह उठकर जब कोई नयी योजना सोचता तभी मांगने वालों की आवाज समस्त नयी योजनाओं को विराम दे दे देती थी, और मैं इधऱ से उधऱ की जुगाड में नये लोग नयी पहचान में चल देता था । संस्कार में बेईमानी है नहीं , बापू ने सिखाया है एक समय भोजन न मिले कोई बात नहीं पर किसी से बेईमानी नहीं करना बेटा ।समय की धारा अपने निर्बाध गति से चली जा रही थी पर मैं जहां था वहां से पीछे गर्त की तरफ जा रहा था । एक दिन पत्नी की तवियत अचानक खराब हो गयी मैं डाक्टर को बुलाने गया । डाक्टर आया देखा और बोला इनंहें जल्द से किसी अच्छे हास्पिटल ले जाना होगा , जहां आपरेशन की सुविधा हो ।मैं सोच में पड गया वो तो ठीक है डाक्टर साहब पर मैं इस समय कैसे….डाक्टर ने एक इंजेक्शन दिया और कुछ दवा तात्कालिक लाभ के लिए . पत्नी को उससे कुछ आराम तो मिल गया परंतु दो चार दिन बाद उनकी तवियत पुनः खराब हो गयी , और मैं उन डाक्टर को बुलाने के अलावा कुछ और न कर सका और पत्नी …     

पत्नी की मृत्यु ने मेरे हौसले और भी पस्त कर दिए, और व्यापार तो ठंडे बस्ते में जा ही चुका था।आर्थिक तंगी ने मेरे सारे हौसले को पस्त करके रख दिया था । उसके बाद तो मुझे भी नौकरी की सूझी  मरता क्या न करता , खेती भी तभी संभव है जब कि उसमें लगाया जा सके कुछ । बच्चे सब छोटे-छोटे दो बेटियां और एक बेटा दोनों बच्चियां इस सूरजमुखी की कली जितनी सुकोमल और सुंदर। एक सेठ के यहाँ नौकरी पर लग गया जो पैसा मिलता था उससे देनदारों के ब्याज की रकम भी पूरी नहीं होती थी। ाप तो जानते हैं कि भारत में न जाने कितने लोग साहूकारों के व्याज तले अपनी जिंदगी गंवा देते हैं और फिर भी साहूकार का ब्याज खत्म नहीं होता ऐर हमारी सरकारें मूक दर्शक बनीं देखती रहती हैं,न जाने किसके दबाव मे रहती हैं कि कोई कडा कानून ही नहीं बना पाती हैं और ये ब्याज खोर 10 से 15 प्रतिशत का ब्याज सरकार की नाक के नीचे वसूलती हैं ।खेती से खाने के लिए उतनी मात्रा में अन्न भी पैदा नहीं होता था, क्योंकि खेती भी व्यापार हो गयी है। वह भी अब पूंजी मांगती है। इसी बीच हैजा बीमारी का कहर टूट पड़ा। दोनों बेटियां हैजै की बिमारी से ग्रसित हो गईं और मैं फिर उसी डॉक्टर के पास गया और उसने मुझसे कहा कि उन्हें शहर के किसी बड़े अस्पताल में ले जाओ,क्योंकि इनकी बिमारी ने गंभीर रूप ले लिया। अपने सभी रिश्तेदारों पड़ोसियों के यहाँ उधार मांग मांग कर मैं थक गया पर कोई भी फूटी कौड़ी देने को राजी नहीं हुआ। एक निकटस्थ   संबंधी ने कहा कि यदि अपनी जमीन हमारे पास गिरवी रख सको तो पैसे अभी ले जाओ, जबकि उन्होंने कुछ पल पहले ही मना किया था, कि बेटा हमारे पास एक पाई भी नहीं है। परिवार प्रॉपर्टी से बढ़कर है ए सोचकर मैंने कहा चाचा आपकी शर्त मुझे स्वीकार है । मैं आँखों में आंसू लिए उनके पैर पर अपना माथा रख दिया। तब उन्होंने कहा चलो गांव के पांच लोगों के सामने लिखा पढ़ी हो जाए, क्या पता कल तुम मुकर जाओ । मैंने कहा चाचा अभी पैसे दे दो, बच्चों हालत बहुत नाजुक है, उनका इलाज हो जाए, तो जमीन यहीं है आकर सब कुछ खुद कर दूंगा, पर वे माने नहीं । साथ गए पेपर पर समझौता तैयार हुआ और मैंने दस्तख्त किए फिर उन्होंने मुझे पैसे दिए। पैसे पाकर दोनों बच्चों को लेकर मैं शहर की तरफ  इलाज के लिए बढ़ा ही था कि उनकी स्थिति क्षण-प्रतिक्षण खराब होती जा रही थी और वे मेरी दोनों बेटियां हमें और स्वार्थी संसार को छोड़कर मुझसे दूर चलीं गयीं। अब उन पैसों का महत्त्व उनके लिए कुछ भी नहीं था। क्योंकि वे अपनी जिंदगी धनाभाव में छोड़ चुकीं थीं। मैं उदास रहने लगा ।हर क्षण यही सोचता रहता हूं कि कितना अभागा और एक अकेला हूं इस संसार मेँ मैं, जो धनाभाव का भाग्यशाली हूँ। कुछ दिन बदहवास घूमता रहा ठिकाना मेरे साथ चलता था मैं ठिकाने के साथ में। आधी जमीन गिरवी हो गई थी। दोनों बच्चियों मृत्यु के बाद मैं चाचा को पैसे लौटाने गया तो उन्होंने कहा नहीं, अब हमें पूरे पैसे एक साथ चाहिये तब ही हम तुम्हारी जमीन से कब्जा हटाएंगे। जब पूरा हो जाए तो दे जाना मैं, अपना सा मुंह लिए वापस आ गया। समय बीतता रहा….

 एक दिन सहसा सुबह एक सेठ दरवाजे पर आ धमके, क्रोध की ज्वाला में से सूरज की गर्मी निकल रही थी मैं उन्हें देखकर सहम गया । बनते हुए मैंने कहा आइए सेठ रामधनी जी बैठिए  चाय पीजिए। उन्होंने आव देखा न ताव तपाक से बोले शेखर हमारा पैसा दे रहे हो या नहीं। मैंने कहा सेठ जी कुछ दिन और इंतजार करने का कष्ट करो, जल्द से जल्द प्रबंध करूँगा। उसने गाली देते हुए कहा, मेरा पैसा पंद्रह दिन के अंदर ना मिला तो मैं तुम्हें जिंदगी से खलाश कर दूंगा। मैंने उनसे विनती भाव से कहा सेठ जिंदगी से खलाश करने के बाद पैसे किससे लोगे ? सेठ ने कहा पैसा मिले न मिले पर तुम्हारी जिंदगी मैं तबाह करके रख दूंगा। मैंने कहा नहीं सेठ मेरे जितना सुखी और खुश आदमी इस दुनिया में तुम्हें दूसरा कोई ढूंढे ना मिलेगा। मेरी बसी बसायी ज़िंदगी न उजाड़ो। अरे तबाह तो उसे करो, जो तबाह हो, मैं तो खुश इंसान हूं, बाजार में जितनी भी खानी-पीने की सभी वस्तुएं हैं इतनी महंगी होने के बाद भी मैं सबसे महंगी वस्तुओं का सेवन करता हूँ। फिर वे बेचारी रोएंगी । तबाह उसे करो जो इन वस्तुओं का सेवन न कर रहा हो।

 सेठ धमकी देकर चला गया । फिर मैंने भी फैसला कर लिया कि अब अपनी जमीन बेंच कर सारा कर्जा चुका दूंगा। चाचा को जाकर जमीन दे दिया । चाचा ने भी मेरी मजबूरी का फायदा  उस समय भी उठाया कारण कि आधे से अधिक जमीन उन्हीं के पालस गिरवी थी । आधे पर जमीन का सौदा हुआ। सेठ का पूरा कर्ज न उतर सका । बेटा भी चौदह पंद्रह साल का हो गया था। मैं बेटे को लेकर सेठ के यहां गया कि सेठ मुझे कुछ और समय की मोहलत दे दो । जल्दी ही तुम्हारे पैसों के प्रबंध में हूं। सेठानी ने कहा कि नहीं ऐसे नहीं चलेगा, अब तुम्हारा बेटा बडा हो गया है इसे यहीं छोडकर जाओ और जब तक तुम हमारे पैसे लेकर नहीं आओगे तब तक यह हमारे यहां ही मजदूरी करेगा। तुम पैसे लेकर आना और तब अपने बेटे को लेकर जाना। मैं उसे वहीं यह सोचकर छोडकर चला आया कि कम से कम इसका पेट तो सेठ के यहां भरेगा । उस समय न आंख में आंसू थे और ना हृदय में दर्द । था तो अपने गरीब होने पर अफसोस।

 एक माह बाद पगार पाने पर जब कुछ पैसे लेकर मैं सेठ को देने उसके घर गया तो देखा कि सेठ की पत्नी उसे ये कहकर पीट रही थी कि तू तीन रोटी मांगता है, कमीने तू नहीं जानता कि तेरे बाप ने मुझे ने तुझे हमारे यहाँ गिरवी रखा है । वह चिल्लाए जा रहा था, चाची भूख लगी होती है तो मांग लेता हूं। आगे से जो दोगी वही खा लूंगा और मुझे मत पीटो। मुझे देख सेठानी ने बच्चे को पीटना बंद कर दिया और कुछ कहते हुए अंदर चली गई। बेटा मुझे दैन्य भाव से देखता रहा और बाद में आकर मुझ से लिपट गया। बाप बेटे दोनों ने खूब आंसू बहाए।  बेटे ने बडी उम्मीद से पूछा बापू आज मेरे यहाँ से ले चलोगे क्या । मैं कुछ कह सकने में असमर्थ था फिर भी उसे सांत्वना देकर आ रहा हूं कि बस वह दिन करीब है बेटा जब तू यहां से आजाद हो जाओगे ।  तुझे इस कैद से रिहा कराकर ही तेरा बाप रहेगा। वहाँ से चला तो बेटा रोए जा रहा था, मैं भी रो रहा था। उतना दुःख तो मुझे उस दिन न हुआ था जब मैं उसे वहाँ छोड़ कर आया था तब से आज दस दिन बीत गए रात दिन मेहनत मजदूरी कर रहा हूँ कि उसे किसी तरह वहाँ से आजाद करा लूं और उसे लेकर गांव से शहर चला जाऊं…

 मैं रो रहा था इस सुंदर प्रकृति की गोद में मानव जीवन किन -किन मूल्यों की कसौटी पर कसा जाता है। एक तरफ यह प्राकृतिक सौंदर्य है तो दूसरी तरफ यह जिंदगी । समता जैसे जैसे शब्दों का क्या अर्थ है, सोचते हुए मैंने कहा तुम्हारा बेटा आज और अभी आएगा। अभी मैं सेठ के पैसे चुकाता हूँ शेखर बोला मित्र, अब आपके पास गिरवी रखने जैसी मेरे पास कोई वस्तु नहीं है। मैंने कहा मुझे किसी भी चीज की कोई जरूरत नहीं है मित्र । गजब है एक तरफ तो मित्र कहते हो और दूसरी तरफ उसका मोल भी लगा रहे हो।अनमोल रिश्तों का मोल नहीं लगाया जाता मित्र और मित्रता तो इह लोक से परलोक तक अनमोल है। मित्र होने के नाते से वह मेरा भी बेटा है और मेरे कोई औलाद भी नहीं है तो तुम और वह मेरे साथ ही रहोगे । उसे आब मैं ही पढाऊं लिखाऊंगा । यही सबसे बड़ा धर्म व्रत एवं तपस्या है। वह विश्वास नहीं कर रहा था पर मैंने गाडी स्टार्ट कर दी और फिर उसे बैठाकर चल पडा। हम दोनों सेठ के घर पहुंचे तो वही शेखर जो पहले बयां कर चुका था सेठ सेठानी दोनों बच्चे को बेरहमी से पीट रहे थे कारण था उसने भूख के चलते दुकान से दो मुट्ठी चने की दाल चुराकर खा लिया। मैंने सेठ को डांटते हुए कहा, रुक जाओ अन्यथा आभी जेल जाओगे सेठ । सेठानी ने कहा कि मेरी अमानत है यह, इसका बाप इसे हमारे पास गिरवी रख गया है। विश्वास नहीं हो तो सामने ही उसका बाप है, पूछ लो। मैंने कहा तुम्हें कुछ कहने की जरूरत नहीं है। अपना पैसा लो,  और बच्चे को मुक्त करो। बच्चे को लेकर जब हम वहाँ से चले तो मुझे समझ में आया कि पैसा मानव जीवन से ज्यादा अहमियत रखता है, अर्थात सस्ती है जिंदगी की उकित चरितार्थ होती है। बाजार में मैंने बच्चे और शेखर के लिए कपड़े खरीदे और उन्हें  घर लाकर भर  पेट भोजन कराया। बाप और बेटे दूसरे के गले में हाथ डालकर चांदनी निशा में सो गए और मैं यही सोचता रहा कि जिंदगी सस्ती है, पैसा मंहगा, पैसा है तो जिंदगी खरीदी जा सकती है या खत्म की जा की जा सकती है। सामने दूर तक वही हरियाली, ओस से भीगे फूल चांदनी रात में अपनी छटा बिखेर रहे थे । उन दोनों बाप बेटों को देखते-देखते मैं भी सो गया।

रचनाकार–दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी में पी .जी व हिंदी पत्रकारिता में पी. जी डिप्लोमा हैं

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