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रावण द्वारा ब्रहमर्षि कन्या वेदवती का तिरस्कार एवं शापित होना

ठाकुर प्रसाद मिश्र

Thakur Prasad Mishra

श्रीमदवक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि ।

मृगनयनी के नयन सर को जग लाग न जाय़ ।

संपूर्ण मानव सृष्टि आदि से लेकर अंत तक महात्मा तुलसीदास द्वारा मानस में वर्णित मानवों का चरित्र इन्हीं उपरोक्त तीन शब्दों के इर्द-गिर्द घूमता है । भौतिक जगत में श्री यानी (धन संपत्ति ) प्रभुता ( स्वच्छंद स्वामित्व ) किसी भी  कृत्य के बदले कोई आवाज उठाने वाला न हो उसकी प्रवृत्ति के वशीभूत होना और प्रभुता और श्री संपन्नता के द्वारा प्रभावित कर संसार की सर्वसुंदरी एवं सर्वश्रेष्ठ नारियों का उपभोग ही सब क्षमताशाली पुरुषों की प्रवृत्त्ति रही है । आदि काल हो कल हो आज हो मानव मन इसी के खोज में रहता है । औऱ यही सांसारिकता में व्याप्त होने का परम कारण है। जिसे ज्ञानी जन माया का परम दुर्गुण मानते हुए भी इस प्रवृत्ति को रोकने में सक्षम नहीं हुए । जो संसार में यदि कोई इससे बचा जो सर्व समर्थ रहा हो उस अकेले विरक्ति के मानक को  हनुमान कहते हैं, और जिसने सबसे अधिक इसका उपभोग किया उसे रावण कहते हैं । आज की सहज भाषा में कभी-कभी लोग किसी झगडे के कारण को विश्लेषित करते हुए जर, जोरू ,और जमीन का झगडा कहते हैं । व्यवहारतन आज भी देखा जाए तो सामान्य व्यक्ति भी यदि धनवान बन जाता है तो उसकी अन्य सामान्य व्यक्तियों के प्रति सहज ही भेद भावना बढ जाती है । उसे किसी के सुख -दुख की परवाह के प्रति कोई संवेदना नहीं रह जाती है । उसी तरह से प्रभुता की जहां तक बात है तो वह भी देहाभिमान में इतना अनुरक्त हो जाता है , कि वह उस प्रभुत्व के स्थान पर पहुंचाने वाली सीढियों को भूल जाता है। वह स्वेच्छाचरण का वरण करता है। न तो किसी की सलाह मानता है न किसी को महत्व देता है । अर्थात किसी सामान्य व्यक्ति की आवाज सुनने के लिए उसके कान बंद हो जाते हैं । किसी दीन-हीन की आवाज उस तक पहुंच ही नहीं पाती है । अब बात रही नारी की जिसके बारे में कवि ने मृगनयनी शब्द का प्रयोग किया है । तो वह विधाता की नैसर्गिक रचना की ऐसी उच्च कृति है कि जो युवा अवस्था में किसी भी व्यक्ति द्वारा जागृत अथवा स्वप्निल अवस्था में वांछित न रही हो । उसके आकर्षण से जब सामान्य मनुष्य जीव जंतु नहीं बचते जो प्रभु श्री सम्पन्नता से समर्थ है तो ऐसे ब्यक्ति के लिए  नारियों के उत्कृष्ट सौंदर्य सदा से लीला स्थल रहे हैं । देवता हो दनुज हो असुर हो गंधर्व हो किन्नर हो या मनुष्य हो कोई इससे वंचित नहीं रहा । महामाया का यह तीनों रूप भगवान की परम शक्ति की समानता सा धारण करता हुआ जगत परंपरा को संचालन करने का कार्य करता है ।लेकिन जो पुरुष इसके तत्व को समझते हैं हनुमान जैसे सर्वसमर्थ होने के बावजूद भी हृदय में सेवा भाव धारण कर  जगत का कल्याण करते हैं और रावण जैसे लोग पग-पग पर दुराचरण करते हुए जगत को पीडित करते हैं ।

यह आचरण आज रावण में मूर्तिमान हो रहा है । भगवान शिव द्वारा प्राप्त शक्ति से उसकी श्री संपन्नता दुगुणित हो उठी ।वह दंभ का आश्रय लेकर पुषपक विमान में बैठकर शिव धाम से विदा ले संपूर्ण पृथ्वी पर दिग्विजय के भाव से युद्ध के लिए प्रतिद्वंददी ढूंढते हुए विचरण करने लगा । उसका पुष्पक आकाश में था किंतु उसकी दृष्टि पृथ्वी के -ण कण पर पड रही थी । और उसी समय एक गहन बन के उपर से विचरते हुए उसकी दृष्टि वन भाग के मध्य से उठते हुए  एक  दिव्य सुखद प्रकाश  पर पडी । अतः वह उस स्थान पर पहुंचकर उस दिव्य प्रकाश को ढूंढने लगा और देखा कि वह प्रकाश एक साधना रत त्रैलोक्य सुंदरी के करीब से उठ रहा था । वह उसके आकर्षण के मोह में पडकर उसके पास गया तथा देखा कि उस सुंदरी ने काले मृग चर्म को वस्त्रवत धरण किया था। सिर के केशों को ऋषियों की तरह बांध रखा था। तथा ऋषि प्रोक्त विधि से तपस्या में लीन थी । तपः शरीर धारण करने वाली अनिंद्य सुंदरी उस कन्या को देख कर रावण काम जनित मोह के वशीभूत हो गया । वह उच्च स्वर में हास करते हुए बोला भद्रे तू इस अवस्था में शरीर को कष्ट देने वाले वृद्धाओं के लिए उचित इस कठिन तप कार्य को क्यों कर रही हो और तुम कौन हो । किसकी पुत्री हो जिसने तुम्हें इस अवस्था में इस कार्य को करने के लिए मना नहीं किया । हे कोमलांगी तुम्हारे इस रूप की कहीं तुलना नहीं है । तुम्हारा यह काम जनित उन्माद पैदा करने वाला रूप पुरुषों के हृदय को पीडा प्रदान करने वाला है । अतः तुम युवावस्था एवं इस रूपराशि की स्वामिनी होने के कारण तपस्या क्यों कर रही हो । तुप तप करने के योग्य नहीं हो । तुम किस सौभाग्यशाली व्यक्ति की पत्नी हो । वह कौन  भूलोक  का पुण्यात्मा  पुरुष है जिसके लिए तुम तपस्या कर रही हो । रावण के इस तरह से पूछने पर उस साध्वी ने उसका विधिवत आदर सत्कार करते हुए कहा, हे राजन मैं अमित तेजस्वी ब्रहमर्षि श्रीमान कुशध्वज की पुत्री हूं । जो देवगुरू बृहस्पति के पुत्र थे और बुद्धि में भी प्रायः उन्हीं के समान थे । प्रतिदिन वेदाभ्यास करने वाले उन महर्षि के वाणी द्वारा उत्पन्न उनकी वांगमयी  अयोनिजा पुत्री हूँ । इस कारण मुझे वेदवती कहा जाता है । पिता द्वारा स्नेहिल पालन पोषण से जब मैं बडी हुई तो मेरे पिता के पास मुझसे वैवाहिक संबंध स्थापित करने के लिए देवता, गंधर्व, य़क्ष, राक्षस एवं नाग आकर पिता जी से मुझे मांगने लगे । किंतु मेरे पिता जी ने उन सबकी उपेक्षा की और कहा कि मेरे जामाता श्री हरि नाराय़ण ही होंगे यही मेरी कामना है ।मैं अपनी पुत्री उन्हीं को समर्पित करूंगा । अतः मैं अपनी पुत्री का हाथ किसी अन्य के हाथ में नहीं दे सकता ।संपूर्ण लोकों को पावन करने वाले एवं संपूर्ण लोक में तेज स्वरूप से विराजने वाले श्री नाराय़ण ही मेरे जमाता होंगे ऐसा मेरा निर्णय़ है ।अतः एक शंभु नामक महान शक्तिशाली राक्षस राजा जो उनसे बैर मानने लगा और एक दिन अर्धरात्रि में सोते समय उनकी हत्या कर दी । उनके शोक से विह्वल मेरी मां ने भी उनका अनुसरण किया और उन्हीं के साथ सती हो गयीं ।

मैं ऐसी मात-पिता की संतान हूं तथा पूर्ण निराश्रित होने पर पिता की इच्छा को पूर्ण करने के लिए मैंने श्री नाराय़ण को अपना पति बनाने हेतु यह तप संकल्प लिया है । अतः वो ही मेरे हृदय मे  विराजमान हैं और मैं उन्हीं की प्रिया बनूंगी ।

ऋषि कन्या की बात सुनकर अट्हास करता हुआ रावण बोला कमल नेत्रे धीरु सुंदरी यह तुमने कौन सा व्रत लिया है । कौन है विष्णु । क्यों उसके लिए भटक रही हो । तुम जिसे चाहती हो वह बल, पराक्रम, भोग, वैभव में मेरी समानता नहीं कर सकता । अतः तुम मेरी पत्नी बन जाओ और लंका की स्वामिनी होने का राजसुख प्राप्त करो ।ऐसा सुनकर वह कन्या बोली हे राक्षस राज आप पुलस्त कुल के चमकीले रत्न हैं ।मैं अपने तप बल द्वारा आपके बारे में सब कुछ जान रही हूँ। आपको बताने की आवश्यकता नहीं है ।मैंने आपका यथोचित सत्कार किया है और चाहती हूं कि श्री नाराय़ण के बारे में ऐसा कथन न करें ।और आब आप यहां से चले जाएं।  मैं उन्हीं नाराय़ण की हूं और उन्हीं की रहूंगी । ऐसा सुनकर कामोत्तेजना के वशीभूत हुआ वह राक्षस आगे बढकर उस कन्या का केश पकडकर खींचने लगा । । रावण को ऐसा करते देख उस ऋषि कन्या ने अपनी हथेली की असि मुद्रा द्वारा एक झटके में सारे बाल काट दिए और रोष में भरकर बोली दुर्मति राक्षस तुमने मुझे दूषित करने का प्रयास किया । यदि मैं तुम्हें शाप देती हूं तो मेरी तपस्या शक्ति नष्ट हो जाएगी । अतः आज मैं तुम्हें छोडती हूं इस कथन के साथ कि भविष्य में मुझ पर आसक्ति के कारण ही तुम्हारा नाश होगा और तुम भी काल कवलित हो जाओगे । तुम्हारे द्वारा स्पर्श किया हुआ यह शरीर अब मेरे काम का नहीं रहा । अतः मैं अभी इसका त्याग कर रही हूं ,और अग्नि ज्वाला उत्पन्न कर उसने कर भष्म हो गयी ।

 कुछ समय के बाद उस कन्या ने कमल वन मे एक कमल कोष से जन्म लिय़ा ।उसकी शरीर की कांति भी कमल के आंतरिक भाग की भांति ही सुकुमार एवं सुंदर थी । आकाश मार्ग से विचरण करने वाले रावण की दृष्टि पुनः उस पर पडी और  वह उस सुंदर शिशु कन्या को निहारकर उसके प्रति अत्यंत करुणा भाव दर्शाते हुए उसे अपने साथ लंका ले गया । वहां पहुंचकर उसने अपने तमाम गुणज्ञ मंत्रियों को से कन्या को दिखाया । उसके मंत्रियों में एक बाल्य गुणों को पहचानने वाला  अति बुद्धिमान मंत्री था । उसने कन्या के सारे लक्ष्णों को निहारा और कहा हे राजन यदि कन्या लंका में रही तो यह राक्षसों के कुलनाश का कारण बनेगी । अतः आप इसका तुरंत त्याग कर दीजिए । मंत्री की बात सुनकर रावण ने उस कन्या को समाप्त करने के भाव से उसे समुद्र में फेंक दिया । संमुद्र की गहराइयों में जाने के बाद माता पृथ्वी ने उस कन्या को प्राप्त किया और से अपने अंक में स्थान दिया।

समय आने पर उस कन्या की इच्छानुसार कि मैं अपने अगले जन्म में किसी महापुण्यात्मा एवं धर्मात्मा की अयोनिजा पुत्री बनूंगी ,। जब महाराज जनक ने संतान हेतु यज्ञ करना प्रारंभ किया तो हल के अग्र भाग के द्वारा खींचीं हुई गहरी लकीर से उस कन्या की उत्पत्ति हुई । हल द्वारा खींची गयी लकीर को सीता कहते हैं ।महाराज जनक ने तथा उनकी धर्मपत्नी सुनैना ने उस दिव्य कन्या को परामात्मा द्वारा प्रदान की हुई भेंट के रूप में स्वीकार किया और अपनी पुत्री बना लिया ।

भगवान श्री राम को यह कथा सुनाते हुए महामुनि अगस्त्य कहते हैं, हे रघुनंदन जनक पुर में शिव धनुष का खंडन कर आपने जिस जनक पुत्री को पत्नी के रूप में प्राप्त किया, यह वही कन्या है, जो वेदवती थी । अपने तप प्रभाव से इसने आपके शत्रु रावण को तो पहले ही मार दिया था , तथा सेना सहित जिसके शरीर का आपने बध किया और पत्नी सहित अयोध्या आए वही जनक तनया परमेश्वरी सीता आपकी धर्मपत्नी हैं ।और आप स्वयं इस संपूर्ण जगत की आत्मा स्वरूप इसे दैदीप्यमान करने वाले परम प्रभु श्री नाराय़ण हैं ।

हे राम, हे जगत कर्ता संपूर्ण जगत को पवित्र करने वाले हे करुणा, वरुणालय आप अनंत हैं , अखंड हैं, अभेद हैं, अछेद हैं । आप स्वंय को जानने वाले स्वंय ही हैं। अतः आपको बारंबार प्राणाम । रावण के दिग्विजय यात्रा का यह खंड यहीं समाप्त हो उसका अभियान आगे बढा । भाग दो से आगे क्रमशः——                 

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