(हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार अमृतलाल नागर की जयंती के अवसर पर विशेष)
अरुणाकर पाण्डेय
हिंदी साहित्य की दुनिया में अमृतलाल नागर की उपस्थिति ऐतिहासिक महत्व की है क्योंकि उन्होंने तुलसीदास और सूरदास जैसे महाकवियों की जीवन यात्रा को उपन्यास के रूप में प्रस्तुत किया | ये उपन्यास उन संत और भक्त कवियों की जीवनी तो नहीं कहे जा सकते लेकिन उन्हें पढ़ कर उनके जीवन के बारे में एक पाठक की समझ निश्चय ही बढ़ती है |
लेकिन हर लेखक की एक रोमांचक शुरुआत होती है जिसे जानना अपने आप में किसी रोचक किस्से से कम नहीं | सौभाग्य से नागर जी ने अपनी आत्मकथा हिंदी में लिखी है जिसका नाम ‘टुकड़े टुकड़े दास्ताँ’ है | इसमें उन्होंने अपने जीवन का एक प्रसंग लिखा है ‘मैं लेखक कैसे बना’| अपनी आत्मकथा के इस अंश में नागर जी ने कई प्रसंग बताये हैं जिनसे पता चलता है कि किन परिस्थितियों में वे लेखक बने | ऐसा ही एक प्रसंग उन्होंने बताया है जब वे सन 29-30 के बाद प्रसिद्द बांग्ला लेखक श्री शरतचंद्र चट्टोपाध्याय से मिलने कलकत्ता जाने लगे | वे बताते हैं कि जब भी वे उनसे मिलने जाते थे वे स्फूर्ति से भर जाते थे | वे उनसे हिंदी में बातें किया करते थे | एक बार नागर जी को शरतचंद्र जी ने लिखने के लिए कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे जो अमृतलाल नागर जी के ही अनुसार जिनका “प्रायः नब्बे फ़ीसदी मेरे आचरण पर इन उपदेशों का प्रभाव पड़ा|” इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि अमृतलाल नागर जी के लेखकीय गुरु शरतचंद्र जी थे |
शरतचंद्र जी ने नागर जी को वे चार उक्त सुझाव देने से पहले यह दृढ़ निश्चय करने को कहा था कि “तुम आजन्म लेखक ही बने रहोगे |” नागर जी ने तब शरत बाबू के दिखाए गए इस संकल्प पर वहीँ हामी भरी थी और अजिसे यह वचन दे दिया था कि वे पूरे जीवन पर्यंत लेखक बने रहेंगे अर्थात् इसे छोड़ेंगे नहीं और इसी के माध्यम से अपनी जीविका चलाएंगे | यह कोई आसान बात नहीं थी कि एक पल में कोई इतना बड़ा वचन ले ले | लेकिन नागर जी ने सोत्साह यह निर्णय लिया और कहना न होगा कि इसके पीछे शरतचंद्र जी के व्यक्तित्व का बहुत बड़ा प्रभाव है | यह सुनिश्चित करने के बाद शरत बाबू ने उन्हें वे चार गुर बताये जो कभी उनके गुरु पांच कौड़ी बाबू ने उन्हें बताए थे | वास्तव में पांच कौड़ी बाबू ने उन्हें तीन गुर बताये थे और चौथा उन्होंने स्वयं अर्जित किया था |
पहला सुझाव यह था कि “जो लिखना अपने अनुभव से लिखना |” अनुभव माने अपना खुद का अर्जित किया हुआ जिसे खुद लेखक ने अपने जीवन को जीते हुए या उसकी यात्रा करते हुए प्राप्त किया हो | यदि लेखन में औरों के अनुभव से ही लिखा तो वह अपनी समझ में प्रामाणिक नहीं हो सकता और इसलिए फिर वह बहुत प्रभावी नहीं हो सकता | दूसरे शब्दों में यदि लिखना है तो अपनी शर्तों पर जीना भी जरुरी है | दूसरा सुझाव जो शरत जी के माध्यम से नागर जी को मिला वह यह था कि “अपनी रचना को लिखने के बाद तुरंत ही किसी को दिखाने,सुनाने या सलाह लेने की आदत मत डालना | कहानी लिखकर तीन महीने तक अपने दराज में डाल दो और फिर ठंडे मन से स्वयं ही उसमें सुधार करते रहो |इससे जब यथेष्ट संतोष मिल जाए तभी अपनी रचना को दूसरों के सामने लाओ |” शरत बाबू के अनुसार रचना की असली कहानी शुरू ही होती है एक बार उसे पूरी लिख लेने के बाद | वह एक तरह का रफ़ ड्राफ्ट होती है | लिखने के बाद लेखक उस पर बार बार विचार करता है और तब जाकर एक समय आता है जब उसे आत्म संतुष्टि होती है | वह संतुष्टि जो एक लेखक को अपनी अभिव्यक्ति के मिल जाने से होती है | जब वह मन ही मन अपने आप से कह देता है कि “हाँ !, मैं जो और जैसे कहना चाहता था मैंने वह कह दिया |” संभवतः इसे ही लेखक का आत्मसंघर्ष कहा गया है जो उसका आत्म संवाद होता है | इस प्रकिया में वह अपने करीब आता है और अपनी बात और अपने शिल्प की यात्रा करता है | यह किसी आध्यात्मिक अनुभव से कम नहीं | तीसरी बात जो शरतचन्द्र जी नागर जी को बताते है वह है कि “कलम से किसी की निंदा मत करो |” यह गुर समझना वास्तव में बहुत कठिन है क्योंकि जब हम जीवन जीते हैं तब हम ऐसी बहुत से अनुभवों का सामना करते हैं जब हमारा हृदय निंदनीय की निंदा करना चाहता है | अगर लेखक निंदनीय से टकराएगा नहीं तो वह रचेगा कैसे ? लेकिन यह बात तो शरतचंद्र अच्छी तरह जानते हैं, तो फिर इस कथन का क्या आशय लगाया जाए ? संभावना है कि यह गांधीवाद और अहिंसा का गहरा प्रभाव है | वे सामाजिक आलोचना और उसके लेखन को नहीं नकार रहे हैं लेकिन वे यह कह रहे हैं कि लेखन में आलोचना करते हुए हिंसा किसी के प्रति नहीं करनी है | आज के सोशल मीडिया के युग में तो कई बार लेखन ट्रोलिंग का पर्याय बन चूका है और साहित्यकारों में भी यह प्रवृत्ति सहज ही देखि जा सकती है | लेकिन शरतचंद्र चाहते हैं कि अमृतलाल नागर जी लेखन से निंदा न करें या हिंसा न करें |
नागर जी के अनुसार ये तीन गुर वे थे जो पांच कौड़ी बाबू ने शरत जी को दिए थे लेकिन एक चौथा गुर जो उन्हें दिया गया वह शरत बाबू के अपने अनुभव से अर्जित था | वह चौथा गुर यह था कि “यदि तुम्हारे पास चार पैसे हों तो तो तीन पैसे जमा करो और एक खर्च |यदि अधिक खर्चीले हो तो दो जमा करो और दो खर्च |यदि बेहद खर्चीले हो तो एक जमा करो और तीन खर्च |इसके बाद भी यदि तुम्हारा मन न माने तो चारों खर्च कर डालो मगर फिर पांचवां पैसा किसी से उधार मत मांगो | उधार की वृत्ति लेखक की आत्मा को हीन और मलिन कर देती है |” एक लेखक का जीवन जीते हुए यह शरतचंद्र के जीवन का निचोड़ है | धन की आवश्यकता सबको होती है लेकिन एक लेखक के जीवन में उसका प्रबन्धन कैसा होना चाहिए, यह शरत बाबू की समझ है जो नागरजी की कृपा से जानने को मिल रही है| सीधा सन्देश है कि लेखक को आर्थिक मामलों में बहुत संयमित जीवन बिताना चाहिए और यदि वह यह नहीं कर सकता तो उसकी स्थिति कर्ज लेने कि नहीं होनी चाहिए क्योंकि अगर कर्ज चढ़ गया तो वह लेखक से उसका व्यक्तित्व ही छीन लेगा और फिर वह बाज़ार के अधीन होकर ही लिखेगा और एक प्रकार से अपनी हत्या कर लेगा |
जाहिर है कि अमृतलाल नागर ने देश की कई पीढ़ियों को जिया है और उनका संसर्ग प्राप्त किया है | वे उस पीढ़ी के लेखक हैं जिनकी खुद की आत्मकथा पराधीन भारत से लेकर स्वातंत्र्योत्तर भारत तक आती है | मूल्यों के उठान से लेकर उनके गिरने तक की सारी प्रक्रिया उनके जीवन अनुभव में शामिल होती है और इसीलिए उन्हें और उनके लेखन को विशिष्ट बनाती है |
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं।