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एहसान का भार दुनिया के सभी भारों से भारी होता है

रमेश कुमार मिश्र 

शंकर बाबू चारपाई पर पड़े- पड़े रो रह थे। गर्म आंसू से गद्दे का कुछ हिस्सा भीग गया था। मोहन बाबू उन्हें सांत्वना दे रहे थे.आप धीरज रखें जो बीत गया उसका शोक  या दुख प्रकट करने का अवसर भी उसी समय चला गया. क्योंकि यह मिथ्या संसार है. यहाँ सब कुछ लगता तो अपना है परन्तु अपना शब्द ही अपना नहीं होता है. यह मोह का आवरण हमारी आंखो पर पट्टी बांधकर हमसे नाना प्रकार के कृत्य करवाता रहता है. नाना प्रकार के संबंध स्थापित करवाता है . मिथ्या लाभ – हानि से कभी हम खुशी से फूले नहीं समाते, तो कभी हम दुख में इतने  निमग्न हो जाते हैं कि… वस्तुतः यह सब मोह माया है . जिसमें उचित – अनुचित का बोध नहीं रह जाता है। जिसके लिए हम दिन एवं रात की प्राकृतिक विरासत में भी अंतर नहीं समझते. शंकर बाबू इस जीवन – जगत में हम पाने के बजाए खोते हैं। हमें जो यह प्रतीति होती है  कि हमें लाभ या अधिक हृदयस्थ संबंधी मिल रहा है, वह बस्तुत: धोखा होता है . अपने को पहचानने में हम अक्षम रहते हैं। आना-जाना खोना -पाना तो नियति चक्र। इसलिए शोक ना करते हुए हमारा ध्यान मानसिक निर्वाण के प्रति ध्यान आकृष्ट होना चाहिए। शंकर बाबू जन्म मरण ही संसार का सबसे बड़ा कष्ट है। जिसमें दोनों समय क्रमश: दुर्गति ही झेलनी पड़ती है। यही लोभ और भय मनुष्य से अनेकानेक जघन्य अपराध करा देता है। यदि अगले जन्म में उच्च कोटि में जन्म की लालसा न हो तो शायद मनुष्य अपने मूल अस्तित्व को पहचानने में सक्षम हो जाए .परन्तु यही तो उसे घोर अंधकार में रखता है. जिसके चलते वह अपने मुखौटे पर सफेद साजिश रचता है.  जो मानवता को कुंठित करता है.  

एकाएक शंकर बाबू चिल्ला पड़े. ।अरे  मोहन बाबू आपने तो मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया है। यही तो सोच- सोच कर हम दुख के अंधे सागर में गोते लगा रहे हैं.

  वर्षों पहले की बात है जब हम जवानी में थे. लम्बा हट्टा- कट्टा शरीर उद्दंड वाचाल एवं फुर्त हमारा शरीर कभी किसी के आगे झुकता था तो वह होता था कोई नेक एवं ईमानदार या भरोसेमंद आदमी। विनम्रता में मेरा कोई सानी नहीं था। शहर चला गया कुछ मनुष्यों से दोस्ती हो गई। मामला कुछ यूं था कि हम एक संस्था में नौकरी पा गये.जो कुछ लेन देन का धंधा करती थी।पाए कैसे बताते हैं? . समाचार पत्र में विज्ञापन आया देख उसकी कटिंग एवं अपने प्रमाण पत्र लेकर उस संस्था के गेट पर मैं जा पहुंचा। दरवाजे पर दरबान खड़ा था। मैंने पूछा साहब क्या यहाँ कोई इंटरव्यू चल रहा है ?  उसने कहा यहाँ नहीं ऑफिस के अंदर चल रहा है . क्या ये लोग जो तुम्हें दिख रहे हैं ये सब यहाँ लंगर लेने बैठे है ? पता नहीं कहाँ –  कहाँ से चले आते हैं. पूछने की भी तमीज़ नहीं इसीलिए तो रोजगार…

 मैं कुछ देर तक उससे घूरता रहा .उसने कहा बैठ जाओ अपना जीवन विवरण पत्र लाए हो क्या? मैंने कहा जी साहब लाए हैं. लाओ मुझे दे दो। नंबर आएगा नाम पुकारूंगा तो अंदर चले जाना। मैं वही जमीन पर बैठ गया . मेरे सामने वाला हर बंदा अपना- अपना नाम सुनकर अंदर जाता और कुछ ही देर पश्चात बाहर आ जाता। उसके बाहर आते ही मेरे चेहरे का भाव विवर्ण हो जाता। शायद अबकी बार मेरी बारी हो। धीरे- धीरे एक- एक करके सभी चलते बने। मैं कभी उस दीवार को जो उस संस्था की थी जिसपर लिखा था विश्वास जगत का मूल है दुनिया में सभी को ईमानदारी से रहना चाहिए. और इसी का प्रचार- प्रसार करना चाहिए  बातें अच्छी थीं। परंतु मुझे बहुत  ज़ोर की  भेख लगी थी। कुछ समझ नहीं आ रहा था। जाना भी खतरे से खाली नहीं था. एक बार नाम पुकारने के बाद शायद दोबारा नंबर नहीं  आता . इसी उहापोह में मैं अंत तक बैठा रहा। गार्ड भी अंदर चला गया। अब किससे पूछ्ताछ करता कि भाई मेरा तो नाम ही नहीं पुकारा गया। थोड़ी देर बाद गार्ड बाहर आया और मुझे इशारे से पास बुलाकर बोला आज तो साहब बहुत थक गए हैं। कल आना कल तुम्हारा इंटरव्यू होगा। वहाँ से चला  तो कभी खुद को कोसता तो कभी उस साहब को जिसे देखा भी नहीं था। कभी उस गार्ड पर शक करता कि शायद उसे मैंने घूरकर देखा तभी तो वह हमसे जरूर नाराज हो गया होगा ,और मेरा बायोडाटा जमा ना किया होगा। 

 खैर मैं उसी रास्ते पर चल पड़ा जिधर से आया था। रास्ते में यह सोचता रहा कि क्या है मानव जीवन ? कहाँ से आए पता नहीं ? कहाँ जाना है पता नहीं?इतने में आवाज आई ओ भाई ज़रा होश में चल कहाँ उड़ रहा है? कुछ बिना खाये पिए घर पहुँच गया .भूख तो तब होती है जब आशा होती है . निराशा मिलने पर थकावट साथ रहती है. भूख निराशा की वादियो में सिमट जाती है।

सूरज अपनी  किरणों का जाल अभी धारा पर बिछा भी  नहीं पाया  था कि मैं नहा – धो कर नैराश्य भाव से तैयार तो हुआ, परंतु मेरा तैयार होना आशावादी था .कहीं न कहीं मेरे मन में यह जरूर था कि हो सकता है कि आज साहब मुझे इंटरव्यू के लिए अंदर बुला ही लें, या हो सकता है कि मुझे बाहर से ही वापस आना पड़े . तीन पदों के लिए ऐसा मेला लगा था , उसमें तो बहुत योग्य लोग उन्हें मिल ही गए होंगे। फिर भी मानव स्वभाव परिणाम के अंत तक लड़ता है और यही उसका सही मायने में पुरुषार्थ होता है. प्रयासरत और आशान्वित रहना ही मानवीय सफलता का प्रमुख अस्त्र हैं। पांव बस स्टैंड तक पहुंचने में कई बार मुड़े – खुले पर पहुंचा तो सभी बसें तो आ रही थीं परन्तु जिस पर हमें जाना था. वह नहीं आ रही थी। आज वह बस ना आएगी क्या ? आज मैं समय से नहीं पहुँच पाऊंगा क्या सोचता- सोचता मैं एक पेड़ के तने से सटकर खड़ा हो गया ?

  कुछ समय पश्चात बस आती दिखी , मैं अपनी आँखों पर विश्वास न कर पा रहा था मैं भागा मुझे लगता था  एक तो इतनी देर बाद आई है और कहीं छूट न जाए…। खैर वह मिल ही गई टिकट लेकर में बैठ गया।  कंडक्टर से कह दिया कि भाई निराला नगर आ जाए तो बता देना, हर दो मिनट  बाद मै उससे पूछता कि निराला नगर आया? जब कई बार हो गया तो वह भाई झुझलाकर  बोला उतर जा आ गया है मैं देखा नहीं और उतर गया। जगह अपरचित थी। अफसोस हुआ शायद मैं ही जल्दबाजी में था वह बेचारा तो…..

अब समय काफी हो गया.अब यह बस भी चली गई अब पहुंचना होगा जल्दी से जल्दी । दूसरी तरफ से एक सज्जन आए बोले भाई क्यों बहुत परेशान दिख रहे हो क्या बात है? मैंने कहा नहीं ऐसा कुछ भी नहीं है बस मुझे निराला नगर जाना है कुछ जरूरी काम  है.मैं उस आदमी को यह नहीं बताया कि इंटरव्यू देने जा रहा हूँ क्योंकि वह भी अपने हाथ में फाइल लिए था और नवजवान था. उसने कहा भाई जाना तो मुझे भी वही है परन्तु अभी मुझे बाजार में कुछ काम है। मैं  उसे घूर कर देखा और मुस्कुरा दिया. उसने कहा आप यहीं डटे रहिए यहाँ से बहुत से ऑटोरिक्शा निराला नगर जाते हैं। समय हो रहा है अभी मिल जाएंगे. जाना तो मुझे भी उसी इंटरव्यू में है लेकिन अभी मुझे बाजार में कुछ काम है. मैं स्तब्ध रह गया और सोचने लगा कि इसको तो हमने बताया भी नहीं कि हम कहाँ इंटरव्यू देने जा रहे हैं ? और यह कह कर रहा है कि हमें भी वहीं जाना है। मैं सोचने लगा शायद यह भी उसी भीड़ में रहा होगा इस ने मुझे पहचान लिया होगा.मैं तो अपने आप में खोया था।और देश में इतने बेरोजगार हैं कि कौन किस किस को पहचानता चले. सोचा था अकेले समय से वहाँ पहुँच जाऊंगा पर  ऐसा न हो सका। वह चला गया। ऑटो वाला निरालानगर -निरालानगर की आवाज देते हुए मेरे धड़ के पास आटो लाकर  रोक दिया। मैं कूद कर ऑटो में बैठ गया। आखिर उस दरवाजे के बाहर पहुँच ही गया. देखा तो ताला लगा था आज गार्ड भी वह ना था कल जो था। सोचा गलत जगह में आ गया ? परन्तु संस्था का नाम धनाढ्य को ऑपरेटिव बैंक ही था . मैं स्पष्ट करने के लिए गार्ड के पास गया तो पता चला कि अभी ऑफिस खुलने में पूरे दो घंटे बाकी हैं। अब मुझे पता चला कि मैं कुछ ज्यादा ही जल्दी आ गया हूँ। गार्ड के पास  जाकर घड़ी में समय देखकर वापस अपनी जगह पर चला आता था।

इंतजार का समय बहुत  कठिन होता है। दस बजने को हुआ कुछ लोगों के आने का सिलसिला शुरू हो गया। मैं हर आने वाले को साहब नमस्ते कहकर अपनी जगह पर यथावत  बैठ जाता और यही सोचता है कि शायद यही साहब हों  कई नुमाइशी चेहरे आए कुछ तो इतनी जल्दी में थे कि सर नीचे किये अंदर चले गए पहचानना भी मुश्किल था । नमस्ते करने का अवसर ना मिला। कंडिडेट भी आना शुरू हो गए। मेरे हृदय की धड़कन बढ़ गई कि आज भी वही होगा जो कल हुआ.

पुराना गार्ड भी अपनी ड्यूटी पर आ गया . उसे देखते ही मेरा हौसला बढ़ गया . और मैं दौड़कर उसके पास गया और उसे नमस्ते करके बोला आज हमारा इंटरव्यू कराने का कष्ट  किजिएगा गार्ड भैया शायद कल मेरे से गलती हो गई थी आप मुझे माफ़ करना।  गार्ड ने कहा अंदर आइये। मैं अवाक् खड़ा – खड़ा देखता रहा. मैंने उससे लज्जित भाव से कहा आप मेरा मजाक क्यों उड़ा रहे हैं? वह मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए बोला आप मेरे साथ आइए साहब ने कल ही जाते समय मेरे से कहा था कि आज सुबह आते ही आप को अंदर भेज दूँ।

मै अदर गया केबिन बहुत बड़ी  थी टेबल पर एक सिगार राख की कटोरी रखी थी.तथा एक लाइटर एवं कुछ फाइलें एवं कागज। सामने वाली दीवार पर टंग रहा था ” विश्वासं फलति सर्वदा”।  कुर्सियां लगी  थीं जिसपर मैं गार्ड के कहने से बैठ गया. गार्ड चला गया। पंखा अपने निर्बाध गति से ढ़क ढ़क की आवाज करता हुआ चल रहा था। मैं उस पंखे को देखने लगा जो रुक तो नहीं रहा था पर हर चक्कर में एक बार ढ़क की आवाज जरूर कर देता था। एक व्यक्ति पीछे से मेरे कंधे पर हाथ रखता हुआ  बोला क्या हाल है शंकर बाबू .मैं स्तम्भित रह गया एक क्षण के लिए मैं पसीना -पसीना हो गया। मैंने कहा और रमाकांत क्या तुम भी इंटरव्यू के लिए आए हो. वह जोर -जोर से  हंसने लगे. उम्र में हमसे थोड़े बड़े थे। परंतु दोनों में कुछ प्रगाढ़ मित्रता थी। दोस्ती पढ़ाई के दिनों की थी. एक दूसरे से हम दोनों खूब मजाक करते थे। वर्षों की यादें पल भर में ताजा हो गईं। वह घूमकर बास वाली सीट पर जाकर बैठ गए । पहले तो मैं हैरान रह गया फिर मुझे सारी कहानी समझ में आ गई कि कल मेरा साक्षात्कार क्यों न हुआ? आज गार्ड मुझे यहाँ क्यों लाकर छोड़ गया ?रमाकांत ने कहा मैं तुम्हारे पिताजी का नाम और तुम्हारा पता देखकर ही समझ गया था कि तुम भी इस शहर में बेरोजगारी की लाइन में हो।जैसे देश में अनेकों लोग हैं. शंकर बाबू  जैसे जैसे देश तरक्की कर रहा है बेरोजगारों की संख्या न जाने क्यों बढती चली जा रही है. अरे हां आज से तुम्हारी तो बेरोजगारी खत्म हुई और तुम्हें ही यह पूरी ऑफिस का कार्यभार सहायक प्रबंधक के रूप में संभालना होगा। मैं फूला न समाया जो पद मैंने  कभी सपने में भी नहीं सोचा था मुझे उस पद की नौकरी मिल गयी. बस मन में सोचा कि अल्लाह मेहरबान तो गधा पहलवान.मैंने तनख्वाह जैसे शब्द की आंगिक व वाचिक अभिव्यक्ति  रमाकांत के सामने नहीं होने दिया.मैं सकुचाते हुए उनसे पूछा कि साहब तो अब चलूं कब मुझे आना है .? चलूं मतलब जाना नहीं है आज से ही सीट संभालिए जनाब. मैं तो उस पद के लायक कपड़े भी पहनकर नहीं आया हूँ. जो पहना हुआ हूँ इससे उस पद की गरिमा बरकरार नहीं रह पाएगी.  मित्र हंसते हुए बोले अभी तुम बुद्धू के बुद्धू ही रह गए। कपड़े या बेस भूषा से पद की गरिमा नहीं बनती है शंकर बाबू । उसके लिए चरित्र  की गरिमा एवं योग्यता की आवश्यकता होती है। जिसपर मनुष्य को सचेत रहना चाहिए।

मित्र मैनेजर और मैं सहायक मैनेजर खूब मेल था. मित्र अपने साथ मार्केट से सूट खरीदकर लाए थे । मुझे  देते हुए बोले पहन लो और सीट पर जाकर काम देखो। भाई  जो कुछ समझ न आए पूछ लेना गल्ती से बेहतर है पूछ लेना। जब मैं सीट पर बैठा तो रमाकांत ने मेरी सीट पर आकर मुझे बधाई दिया  और  कहा कि हाँ एक बात और याद रखना हम दोनों में कोई साहब नहीं है। सब एक दूसरे के मित्र हैं।अपना काम अपने लोग मुझसे को  कोई छुपा छुपाई  नहीं।आज ही हमने  तीन चार स्टाफ और रखें हैं । अरे यार इतने दिनों बाद मुलाकात हुई एक बात तो मैं पूछना ही भूल गया शादी वगैरह किया की नहीं। मैंने  जवाब दिया नहीं भाई अब तुम्हारे कृपा से नौकरी मिल गई है आगे कुछ दिन बाद सोचेंगे। उस दिन तो मैं पूरा दिन काम  समझता रह गया। धीरे – धीरे काम शुरू हो गया।

उसी दिन ऑफिस में हमारे  समकक्ष एक महिला की भी नियुक्ति हुई थी . एकाउंटेंट के पद पर जिसका नाम नीलिमा था.समय बीतता गया प्रतिदिन हम और रमाकांत एक दूसरे को उसके गाड़ी तक छोड़ने जाते थे। रमाकांत प्रकृति की सबसे सुंदर नारी बालाओं पर कमेंट करते तो हम चुप हो जाते थे . यह बात उनकी हमें जमती नहीं थी. लेकिन कई बार एहसान का भार अधिक होने से नैतिक मूल्यों की भी अनदेखी हो जाया करती है. एहसान का भार दुनिया के सभी भारों से भारी होता है. । रमाकांत की अच्छाई यह थी कि उनका व्यक्तित्व बहुत मिलनसार था. रमाकांत बहुत से लोगों से दोस्ती करने में विश्वास न करता था, परंतु उसे कुछ अच्छे मित्रों की तलाश जरूर रहती थी। मजाक -मजाक में कभी -कभी वह अपने अधीनस्थ अकाउंटेंट का भी नाम दोस्ती की श्रेणी में रख देता था। धीरे – धीरे वह नीलिमा से  बहुत अधिक घुल- मिल गया। अब हम सभी एक दूसरे से दूसरे के बारे में कमेंट करते और जी भरकर हंसते। वह इतना मुखर था कि नीलिमा के सामने भी जो उसकी अधीनस्थ थी पर कमेंट करने में ना चूकता था. और वह शर्माते हुए हम सभी के साथ हंस लेती थी। 

अब रमाकांत अब उसे दोस्त समझने लगा था। नीलिमा कुछ आधुनिक भ्रमित नारियों के संग रहती थी जिससे वह सांसारिक पारिवारिक प्रेम इत्यादि बंधनों या भावों में विश्वास न रखने की बात किया करती थी। हम सभी कभी एक साथ कुछ खाने पीने  की दुकान या कैंटीन चले जाते थे . कहीं हरी घास पर बैठकर गल्प लोक में खोकर लुत्फ उठाते.अंधेरा होने पर हमें ज्ञात होता है कि हमें घर भी जाना है। नीलिमा तो ऑफिस से छूटते ही घर भागने की फिराक में लग जाती थी। परन्तु रमाकांत बाबू उसे जाने की अनुमति नहीं देते थे। वह अधीनस्थ थी परंतु इतना घुल मिल गई थी कि वह उनके मना करने पर भी चली जाती थी। हम और रमाकांत फिर उसके बारे में अधिकाधिक बातें करते। रमाकांत बाबू उसके शारीरिक सौंदर्य से प्रभावित नहीं थे. वह उसके निःसंकोची स्वभाव से बहुत खुश थे। वह उसमें भारतीय नारी की छटा देखते थे। और सदैव उसकी भलाई के बारे में बात किया करते थे। उनके हर शब्द के अंत में नीलिमा की प्रशंसा ही निकलती थी. नीलिमा के लिए वह कहा करते थे कि यह लड़की एक दिन बहुत सफल बनेगी क्योंकि इसमें चीजें समझने की जो उत्कट अभिलाषा है वह इसके संस्कारित व्यक्तित्व से स्वतः टपकता है। नीलिमा की शारीरिक बनावट बहुत कुछ इस प्रकार थी वह लगभग पांच फुट पांच इंच के आसपास की थी. उसका मुख गोल हल्का गेंहुआ रंग लिए चेहरा घुंघराले बाल उठे कपोल एवं स्लिम देहयष्टि। प्रतिदिन का यही काम कभी वह रुकती कभी चली जाती। उसके चले जाने के बाद हम दोनों कुछ देर रुकते और फिर चल देते ।

आफिस का काम धाम बहुत अच्छे से संचालित हो रहा था। रमाकांत बाबू की कृपा से हमें नौकरी मिल ही गई थी । रोटी चलने में कोई दिक्कत नहीं  थी। घर पर माँ बाप के लिए भी  हर महीने कुछ न कुछ पैसे मैं भेज देता था। भाई बहनों की पढ़ाई जो धनाभाव में रुक गई थी वह भी अब सुचारू ढंग से चलने लग गई थी। खंडहर मकान भी धीरे – धीरे करके पक्का बन गया था। जब भी मैं घर आता था तभी माता -पिता एवं बड़े रिश्तेदारों का दबाव हम पर पड़ता था. शादी करने के लिए मैं कोई न कोई बहाना करके टाल देता था। एक दिन अचानक रमाकांत ऑफिस में आए और मैं ऑफिस पहुंचने में लेट हो गया। कुछ लोग ऑडिट करने आ गए थे । नीलिमा ने समझदारी से समस्त दस्तावेज उन लोगों को दिए और वे सब सभी संतुष्ट होकर अपना कार्य करते रहे. मैं जब ऑफिस पहुंचा तो गार्ड ने मुझे गेट पर ही सूचना दे दिया कि साहब अंदर ऑफिस में ऑडिट वाले दो घंटे से पहले ही आ पहुंचे हैं। मेरे होश उड़ गए बहरहाल ऑफिस के अंदर घुसा तो मैंने देखा नीलिमा सारा काम बड़ी निपुणता से निपटा रही थी। आज मैं रमाकांत की बात मैं नीलिमा को देखने लगा.यह लड़की सचमुच एक दिन बहुत आगे जाएगी। ऑडिट वाले चले गए थे सब रिपोर्ट सकारात्मक थी । मैं नीलिमा को धन्यवाद देते हुए बोला चलो मैं तुम्हें चाय और मिष्ठान खिलाता हूँ खिलाता हूँ . मुझे चाय नहीं पीना मैं घर जा रही हूँ। वह उठी और चली गई। उसकी वह अदा मुझे अंदर तक झकझोर गई। अब मैं उसके साथ अपना जीवन बिताने की कल्पना करने लगा।

दूसरे दिन रमाकांत ऑफिस आए ,और जब उन्हें  इस बात का पता चला तो वह बहुत खुश हुए। और नीलिमा से बोले चलो तुम्हें इसी बात पर एक तोहफा देता हूँ। मुझसे बोले शंकर चलो बाजार चलते हैं। हम तीनो थोड़ी दूर पर स्थित बाजार की तरफ चल दिए। पैदल लगभग 20 मिनट में हम बाजार पहुँच गए। रेडीमेड कपड़े के एक बड़े शोरूम में  जाकर हम सबने बहुत से कपड़े देखें उस में से एक उठाते हुए रमाकांत ने नीलिमा से कहा बताओ यह तुम्हारे लिए बहुत अच्छा रहेगा। तुम्हारे सौंदर्य में वृद्धि करेगा। मैंने दूसरा उठाते हुए कहा उससे अच्छा तो यह है। मैं ना चाहता था कि नीलिमा रमाकांत की पसंद के कपड़े पहने। मेरी पसंद से पहनेंगी तो मेरा जादू इस पर चल जाएगा। नीलिमा ने मेरे पसंद को प्राथमिकता देते हुए उसी कपड़े को पैक करवाने के लिए बोली। आज मैं अंदर से अपनी जीत पर बहुत खुश था। मैं वापस आते समय रमाकांत से बार बार यही कहता था कि देखा रमाकांत नीलिमा को  ऐसा सूट  दिलाया हूँ कि कल जब ऑफिस पहनकर आयेगी तो सब देखते रह जाएंगे। वह हल्की मुस्कान के साथ आगे बढ़कर कोई और बात करने लगता था. रामकांत के सामने    अपनी पसंद का मैं ढिंढ़ोरा पीट रहा था।

हम सब ऑफिस आ गए। कुछ देर बाद रमाकांत  ने नीलिमा को कैबिन में बुलाया। मैं बिना बुलाए उस समय वहाँ पहुँच गया। उन्होंने नीलिमा को समझाते हुए कहा देखो आज तुम्हारी इतनी बड़ाई हो गई है तो तुम्हारे पांव जमीन पर ही रहने चाहिए । ज्यादा उछलने की जरूरत नहीं है .किसी भी प्रकार की लापरवाही बर्दाश्त नहीं होगी। वह सहमी हुई अपनी सीट पर जाकर बैठ गयी। मैं रमाकांत  से बोला क्या यार अभी उसे बोलने की क्या जरूरत थी ?रमाकांत बोला नहीं जानते हो यह उसकी काबिलियत को पहचानने का एक नया तरीका है। क्योंकि व्यक्ति पढ़ने लिखने और काम करने में कितना भी निपुण क्यों न हो ? जब वह एक सफलता पा जाता है तो उस प्राप्ति  के झूठे दंभ में अपने को भूलकर बयानबाजी करने लगता है . उसके हितैषियों का यह फर्ज बनता है कि उसे कुछ  अनीक्षित दंडों से दंडित करें,और उसके व्यवहार को उस समय देखें, यदि उस समय भी वह सरल रह जाए तो वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल रहेगा। अन्यथा कठिनाइयों के समय वह सामंजस्य नहीं बैठा पाएगा. शंकर मेरे भाई इसलिए मैंने ऐसा किया है .  मैं उसके स्वर में स्वर मिलाता चला गया।

कुछ देर तक मैं अपनी सीट पर बैठा रहा ,पर मैं बैठ न सका नीलिमा के पास पहुंचा और उसे साहस दिया कि साहब कुछ भी कहे डरना मत मैं साथ हूँ। ओ हंसकर टाल दी। उस दिन से रमाकांत  और नीलिमा के बीच दूरियां नजर आने लगीं। रमाकांत रेवती को बुलाता पर वह दफ्तरी  कार्य के अलावा उससे बात न करती। वह भी दो- तीन दिन तक चुप रहा वह सोचता रहा कि मैंने तो मजाक किया है और इसे नसीहत दी है . यह नसीहत इसे आगे भविष्य जीवन में कठिन से कठिन परिस्थितियों का सामना करने में सक्षम रहेगी. पर बात तो ऐंठ चुकी थी। नीलिमा  रमाकांत से बोलने को राजी नहीं हुई। वह बार – बार अनुनय विनय करता रहा परंतु कुछ- कुछ वार्तालाप करीब एक सप्ताह  बाद ही शुरू हो पाया. परन्तु सहज नहीं हो पाया। बात आयी गयी ह़ो गयी ।

खैर समय बीतता चलता रहा. एक दिन ऐसी घटना हुई जिससे रमाकांत बहुत दुखी हुआ.और वह घटना थी मेरी शादी के कार्ड की जब मैंने शादी का कार्यक्रम रमाकांत  की मेज पर रखा ,तो वह एकदम अवाक रह गया। उसने कहा अरे शंकर बाबू आप नीलिमा से शादी कर रहे हो . मुबारक हो कहकर वह खड़ा हो गया और मेरे गले से लग गया और उसके आँखों से अश्रुधारा निकल पड़ी भाई तुम बहुत नसीब वाला है जो तुम्हें नीलिमा  जैसी लड़की जीवन संगिनी मिल रही है. 

उसने कहा शंकर बाबू सगाई कब मंगनी कब दिखाई कब यह सब कुछ तो आपने हमें बताया ही नहीं ? क्या मुझ पर भरोसा न था क्या मैं इतना गिरा हुआ दोस्त था जो तुम्हारे शादी जैसे सुबह अवसर एवं बंधन में विघ्न बनता।  हां नीलिमा को मैं भी पसंद करता था क्योंकि वह एक अच्छी लड़की है। मैं जब भी ऑफिस आता था तो उससे मिलने के लिए तीव्र उत्कंठा होती थी। जब भी वह यहाँ से जाती थी तो मुझे अजीब सी बेचैनी हो जाती थी। यहाँ से जाकर मैं जब कमरे में अकेले बैठता था तो उसकी स्मित हँसी मुझे प्रसन्न कर देती थी। मेरी थकान सारी थकान दूर हो जाती थी। मुझे उसकी आवाज़ में वह मधुर मिठास महसूस  होती थी जो मिठास आज तक मुझे कहीं नहीं मिलती है । उसके घुंघराले बालों को सोचकर मैं आसमान में उड़ने वाले काले मेघ के मनोहारी दृश्यों का  लुत्फ उठाता था। यह सब उसकी अठखेलियां मेरे रोम- रोम को रोमांचित कर देती थीं । यह सब क्या था मैं नहीं जानता उसके प्रति यह मेरी  श्रद्धा थी या प्रेम जो भी था मैं इसके लिए उसी से माफी माँगूँगा   तथा तुम दोनों के सुखमय जीवन की कामना करता हूँ .यह रमाकांत अपना ब्रीफ केस उठाया और तेजी से आफिस से बाहर चला गया. दूसरे  दिन उसकी टेबल पर एक लिफाफा मिला जिसमें उसने एक माह की छुट्टी मांग रखी थी. अपने गांव में जमीनी विवाद के निपटारे के लिए.

रमाकात चला गया और मैं अपनी शादी की तैयारियों में लग गया. नीलिमा और मैं साथ- साथ अपने शादी की खरीदारी में जुट गए. शादी का दिन करीब था कि एक दिन अचानक दफ्तर के फोन की घंटी बजी जिसे रश्मि ने उठाया था. और वह चीखती हुई मेरे पास आकर बोली साहब साहब नीलिमा मैडम आफिस आ रही थीं कि उनकी स्कूटी फिसल गयी और उन्होंने हेल्मेट नहीं पहन रखा था और ड्राइव करते हुए ही कान में फोन की लीड भी रखा था. कोई गाड़ी वाला उन्हें टक्कर मार गया. जिसके कारण उनके सिर में बहुत तेज़ चोट लगी है. अस्पताल से फोन है जल्दी चलिए. मैं अवाक अपनी सीट पर धंस गया.  कुछ देर बाद मेरी तंद्रा टूटी तो मैं रश्मि के साथ अस्पताल गया जहाँ उसके परिवार वाले और कुछ जानकर पहले से मौजूद थे. हमारी होने वाली सासू माँ मुझसे लिपटकर रोने लगीं. कहने लगीं कि कितनी बार इस लड़की को समझाया कि गाड़ी चलाते समय फोन से दूर रहो, हेल्मेट पहनो लेकिन इसने कभी भी मेरी बात नहीं मानी जिस बात का डर था वही हुआ. कुछ हादसे हो जाते हैं और कुछ होने वाले को हम अपनी सावधानी से बचा लेते हैं .अब क्या होगा शंकर बाबू? . मैं उन्हें सांत्वना देता हुआ बोला अम्मा धैर्य रखिए सब ठीक हो जाएगा. डाक्टर क्या कह रहे हैं? हमारे ससुर जी जो कि एक पैर से अपाहिज थे , जो  कि गलत दिशा में गाड़ी चलाने की वजह से अपना एक पैर रोड दुर्घटना में गवां चुके थे मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए बोले बेटा सिर से खून बहुत खून बह चुका है. डाक्टर कोशिश कर रहे हैं . बचा लो मेरी बेटी को. मैं भागता हुआ डाक्टर की केबिन में गया. डाक्टर से बात की तो उन्होंने कहा हम एक सर्जरी की तैयारी कर रहे हैं. उसके बाद बता पाएंगे. दो घंटे की सर्जरी के बाद सर्जरी रूम के गेट के ऊपर लगी लाल बत्ती बुझी और हरी जली तो उम्मीद जाग गयी. हम जल्दी से गेट खुलने का इंतजार करने लगे. दस मिनट बाद गेट खुला तो डाक्टर ने कहा पचास- पचास की संभावना है. शाम तक स्थिति स्पष्ट हो जाएगी . 

हम सब हर पल टूटे जा रहे थे. हमने घर पर फोन कर बताया कि नीलिमा के साथ यह दुर्घटना हो गयी है. वहाँ हमारी शादी की तैयारी में निमंत्रण कार्ड तो बंट  चुका था.सब भगवान की भरोसे टिक गया .शाम हुई अब तक नीलिमा अचेत थी . आई सी यू में थी कोई उस तक नहीं पहुंच पा रहा था. डाक्टर से बहुत विनती करने पर डाक्टर ने मुझे केवल पांच मिनट की अनुमति दी और शर्त ए कि हम न उसे छूएंगे न उसका नाम पुकारेंगे. उसके पास पहुंचते ही हम अधीर हो गये कारण कि जिस सौंदर्य के आकर्षण में हमारे दिन और रात गुजर रहे थे वह अब नीलिमा के चेहरे के साथ विकृत हो चुका था. उसका चेहरा क्षत- विक्षत था . मैं बाहर चला आया.  एक सप्ताह के इंतजार के बाद हम नीलिमा आई सी यू से बाहर तो आ गयी लेकिन वह मूक हो गयी थी. मैं रात दिन अब नीलिमा की सेवा में अस्पताल में ही रहने लगा. धीरे- धीरे नीलिमा की हालात में सुधार आने लगा. अब वह धीरे- धीरे पलकें खोलने लगी थी . वह एक दिन संकेत से मुझे अपने अति करीब बुलाई और आंखो से हंसी. मैं उसके संकेत से अति प्रसन्न हो उठा. लेकिन  नियति  को कुछ और ही मंजूर था.एक रात लगभग एक बजे नीलिमा को हार्टअटैक आया और मैं डाक्टर को बुलाने के लिए भागा डाक्टर आए और उसकी हृदय गति चेक करके बोले माफ कीजिएगा शंकर बाबू हम बचा न सके.

इधर नीलिमा की हृदय गति रुकी उधर रेलवे स्टेशन से सीधे रमाकांत अस्पताल  पहुंचे. हम दोनों एक दूसरे को पकड़ बहुत रोए. हम दोनों की पसंद चिर शांत लेटी  हुई थी.

 थोड़ी देर बाद रमाकांत बोले शंकर बाबू यह जीवन एक नाट्यशाला है । यहाँ हम सभी संसार रूपी रंगमंच पर रंगकर्मी की भाँति अपना- अपना समयबद्ध अभिनय करने आते हैं। अब यह निर्देशक पर निर्भर करता है कि वह किसके हिस्से में कौन सा रोल दे देता है? अवश्य वह पात्रता को देखते हुए रोल का बंटवारा करता है। जिसमें हम सभी उछलकूद कर अपना वर्चस्व कायम करने का प्रयास करते हैं। जीवन के चले जाने के बाद यहाँ वैसी ही शांति छा छाती है जैसे नाटक खत्म होने के बाद रंगमंच. इसलिए सबसे बड़ा सत्य है कि शरीर मरणधर्मा है यह सच जो जितनी जल्दी जान लेता है उतनी ही जल्दी दर्द से बच जाता है.

इस संसार में दोस्ती से बढ़कर कोई रिश्ता अनमोल नहीं है । जो  कि भरोसे के गाढ़े से चलती है. इसमें मान- अभिमान जैसे शब्दों के लिए कोई जगह नहीं होती है शंकर बाबू ।..संकेत में जो सौंदर्य है वही वास्तविक आनंद की अनुभूति होती है.संकेत को समझने से जीवन पथ पर चलना आसान हो जाता है. यही कहते- कहते शंकर बाबू की वाणी को विराम लग गया.

रचनाकार –रमेश कुमार की कलम से

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