ठाकुर प्रसाद मिश्र
नाम छोटा वृतांत बड़ा यहाँ यह उक्ति चरितार्थ होती है। जब हमारी वाणी से शिक्षक शब्द
निकलता है।
शिक्षक यानी गुरु! प्रथम शिक्षा “गुरू” माता दूसरा पिता। उसके बाद नाम लिया जाता है उस
विराट व्यक्तित्व वाले गुरु का जो अपनी शिक्षा से प्राणी को अंधकार से प्रकाश की ओर पशुता
से मानवता की तरफ ले जाता है। जिसकी दी गई शिक्षा मनुष्य को हर कदम पर अच्छी एवं
कल्याणकारी राह दिखाती है। हमारे शास्त्रों में गुरु महिमा संसार की सर्वश्रेष्ठ निधि के रूप में
वर्णित है। महात्मा तुलसी दास ने गुरु को भवसागर पार करने वाला बताया है–
गुरु विनु भव निधि तर न कोई.
जौ बिरंचि शंकर सम होई.
गुरु साक्षात्, ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर के स्वरूप हैं.
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरा.
गुरू साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः.
डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन् भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति एवं दूसरे राष्ट्रपति रहे। कई विषयों
के साथ वे दर्शनशास्त्र के उद्भट विद्वान थे। राष्ट्रपति से अधिक उनका नाम दर्शनशास्त्र के
अप्रतिम विद्वान एवं शिक्षक के रूप में जाना जाता है। उस समय के विद्यार्थियों की मांग पर
शिक्षक दिवस उनकी याद में मनाने के लिए सरकारी मान्यता है। लेकिन शिक्षक शब्द केवल
इसी इतिहास तक ही सीमित नहीं है। शिक्षा शिक्षक की परम विशेषता रही है। जीवन में शिक्षा
किसी भी मूल्यवान वस्तु से कहीं मूल्यवान है। प्राचीन भारत में शिक्षा देने का कार्य ब्राह्मणों
की जिम्मेदारी थी जिसे लोक जीवन से लेकर सत्ता तक अति सम्मान से देखा जाता था. और हर
ब्राह्मण से यह उम्मीद रखी जाती थी वह गुणों व उन गुणों से पूर्ण हो. जो लोक कल्याण के
लिए शिक्षक कार्य करें। ब्राह्मणों के छ: कर्तव्य नियत थे। दान-देना, दान-लेना, पढ़ना-पढ़ाना और
यज्ञ करना यज्ञ कराना। अर्थात प्रथम छात्रवृत्ति से स्वाध्याय किए हुए ज्ञानार्जन को शिष्यों लोगों
तक पहुंचाना था. दूसरा जीवन वृत्त के लिए लोगों द्वारा स्वेच्छा से दिए दान की वस्तु को लेना
अपनी आवश्यकता से अधिक वस्तु का अन्य जरूरत मंदों को दान द्वारा संतुष्ट करना था।
तीसरा यज्ञ इत्यादि क्रियाओं पर्यावरण एवं वातावरण की शुद्धि परमात्मा के प्रति सात्विक भाव
जागृत करना क्षमतानुसार कल्याणकारी कार्यों की संचालन व्यवस्था सुनिश्चित करना और कराना
था। निर्लोभी ब्राह्मण का सबसे बड़ा धर्म होता था निर्लोभी ब्राह्मण का सबसे बड़ा धर्म संतोष
था। विषयों एवं वस्तु संग्रह से दूर रहना था। कुल मिलाकर ब्राह्मण जीवन तपश्चर्या का जीवन
धारण करने वाला रूप ही शिक्षक बनने की अहर्ता मानी जाती थी। एक वीतरागी जीवन ही
अपने को शिक्षक कहने का अधिकारी था, जिसकी एक झलक नरोत्तम दास द्वारा सुदामा चरित्र
में सुदामा द्वारा धनाकांक्षी पत्नी के जवाब में कही ये पंक्तियाँ हैं
शिक्षक हौं सिगरे जग को तिय ताको कहाँ अब देति है शिक्षा.
जे तप कै परलोक सुधारत सम्पत्ति को तिन्हको नहिं इच्छा.
मोरे हिए प्रभु के पद पंकज वार हजार लै देखु परीक्षा.
औरन को धन चाहिए बावरि ब्राह्मण को धन केवल भिक्षा.
लेकिन समय के दूषित प्रभाव से आज शिक्षक यानी गुरु की परिभाषा बदल गई है। आज हर
जाति के लोग शिक्षा को व्यवसाय मानकर आर्थिक लाभ प्राप्त करने के लिये इससे जुड़ गए हैं.
शिक्षक के ऊपर वर्णित गुणों से इन सब का कोई लेना देना नहीं है. इस पवित्र शब्द अपवित्र
करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रख रहे हैं.
ऐसे शिक्षक गुरुओं के लिए मानस में कहा गया है- हरइ शिष्य धन सोक न हरई .
सो गुरु घोर नारक महं परई.
आज की स्थिति ए है कि तुच्छ स्वार्थ साधने के लिए अपनी अच्छे संस्कारों की बलि देकर पाप
कर्मों की तरफ उन्मुख है.क्या आती सारथियों की नीती से हम समाज एवं देश का भला कर
सकते हैं.
जिस देश में अमीर गरीब सबके बच्चों को गुरुकुलों में सब को मुफ्त शिक्षा दी जाती थी. वहाँ
अधिकारी विद्या देने के बदले में विद्यालय प्रबंधन द्वारा अभिभावकों के शरीर से उनका रक्त
तक चूस लिया जा रहा है और परिणाम-
आन्हर गुरु बहिर चेला
मांगे भेली थमावें ढ़ेला.
केवल जीविका चलाने के लिए येन- केन प्रकारेण शिक्षक बनने की मुहिम भारतीय समाज को
कहाँ ले जाएगी. शोचनीय विषय है..
एक शिक्षक का चरित्र जाति-पांति धर्म सम्प्रदाय, अर्थोपार्जन के भावों हटकर अपने शिष्य में योग्यता
पनपाने की होनी चाहिए तभी वह शिक्षक बनने योग्य होगा. और शिष्य उसे गुरुदेव कहने में संकोच नहीं
करेंगे.
बदलते युग की आवश्यकता ये है कि देश के सभी लोग शिक्षक पद के लिए योग्यता को समर्थन
दे। एक योग्य व्यक्ति चाहे वह किसी भी जाति वर्ण का हो वह शिक्षक बनकर गुरुपद का
अधिकारी बने, जिसके द्वारा उत्तम शिक्षा प्राप्त करके हमारे समाज की युवा पीढ़ी के लोग अच्छे
नागरिक बनकर देश में सुख शांति ला सकें. आज के इस अवसर पर बहुत-बहुत बधाई एवं
शुभकामनाएं.
लेखक प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं.
प्रकाशित हिंदी उपन्यास “रद्दी के पन्ने”