मधुशाला मेरी नजर में

कवि- ठाकुर प्रसाद मिश्र की कलम से

आज भाग्यबश हाथ लग गयी श्री बच्चन की मधुशाला।

टपक रहे थे हर पन्नों से मधुर शब्द बनकर हाला।।

चटक चांदनी की मधु बूंदें कुमुद कोष का शुभ प्याला।

पंखी सब पीने वाले हैं बना सरोवर मधुशाला।।

शैशव की किलकार, जवानी में यौवन की अंगडाई।

प्रेयसि का तन शिथिल–शिथिल सा नैनों में उमडी हाला।।

दाख सुता बन भाव बल्लरी मद से पलकें बन्द किये।

डगमग कदम बढाती आगे पास बुलाती मधुशाला।।

जहां लक्ष्य प्रियतम बन जाये त्रिषा युक्त तन मतवाला।

कर्म कांड की जगह कहां पे सब दिखता काला काला।।

हार गया अद्वैत यहां पर एकाकी चिन्तन करता।

द्वैत तपाता है समग्र को लहन उठा भरता प्याला।।

जिसको पीकर मिट्टी का तन आधि–ब्याधि सब भूल गया।

अग–जग जडवत देख रहा है बनी सजीवनि मधुशाला।।

साकी की है चहक बताती सचमुच जीवन यहां बसे।

ईर्ष्या लोभ मोह को ढकती प्याले में बैठी हाला।।

धधक रही कामना की भट्ठी लक्ष्य दाख बन तरल चला।

तृषा देख हर मधु पायी की बिहंस उठी साकी बाला।।

बेसऊर हाथों ने उसको छू प्याला छलका डाला।

देख हंस पडी उस अनगढ को भांड स्वामिनी मधुशाला।।

मृद प्याला और मिट्टी का तन, है अनुरागी भाव यहां।

फिर क्यों जग पर न छा जाये साकी प्याला संग हाला।।

यौवन ही है मधुशाला वह हर चाहत ही है हाला।

आज दैव बस मिला है मुझको कल पर घर जाने वाला।।

जी भर इसका श्रेय लूट लूं, कल का कौन ठिकाना है।

ब्रह्म सृष्टि में केवल यौवन बाकी ताना–बाना है।।

यौवन की तीखी मदिरा को जो जी भरकर पिया नहीं ।

सांझ भये फिर क्या जानेगा क्या हाला, क्या मधु शाला।।

हाला के सारे रूपों का कवि ने चित्र बना करके।

मधु मसि में लेखनी डुबोकर लिखी रंगीली मधुशाला।।

वात्शल्य की पुष्करणी से निर्झर भाव प्रवाहों से।

कहीं किशोरी कहीं पे तरुणी, कहीं प्रौढ वय की साकी।।

कहीं जरा की साधक लकडी बनकर बैठी मधुशाला।

मैं तो मृद प्याले का साथी जिसके अंक बसे हाला।

जिसने मन को जीत लिया फिर क्या कुरूप क्या सुर बाला।।

कहीं शक्ति मद कहीं रूप मद कहीं राग मद की स्वामिनि।

विष्णु प्रिया की सगी बहन तुम हर पथ में डेरा डाला।।

प्रतिद्वन्दी है काल तुम्हारा पर तुम सदा विजयिनी हो।

सत्य सदा मरघट पर सोता वहीं बिलसती मधुशाला।।

रूप अनेक एक गुण तेरा सब पायी मतवाले हैं।

मंदिर मस्जिद भेद भुलाकर संग में पीने वाले हैं।।

जाने कितने लोग जगत में आये वापस चले गये।

युग बदले सदियां बहु बदलीं किन्तु न बदली मधुशाला।।

सत रज तम इन तीन गुणों से जग की गुथी हुई माला।

बार अनेंकों टूट चुकी है किन्तु नहीं टूटा प्याला।।

तम तो रक्त प्रवाह बना है राजस की इक्षा भारी।

सत तो कोसों दूर खडा है यहां निशा की अंधियारी।।

प्रेयसि१ आह समर्पण तेरा ज्यों प्याला उर में हाला।

हाला की ज्वाला उर भरकर दीप जलाती मधुशाला।।

हाला–हाला रटता रहता पर न कभी भी पी हाला।

मित्र समझना, इस प्याले को हाला के संग मधुशाला।।

साकी स्वयं बना बैठा हूं लिये करों में उर प्याला।

अनुभव की भट्ठी से उष्मित भाव टपकते बन हाला।।

दाख सुता बन प्रकटी हाला नहीं अकेली है हाला।

आंखे खोल निरखिये प्रियवर रूप अनेंको, मधुशाला।।

कहीं योग से कहीं कहीं भोग से कहीं दैन्य के भावों से।

कहीं शक्ति से कहीं भक्ति से कहीं सुघर ललनाओं से।।

अमराई की बौर सुरभि यह भौंर पियक्कड टोली में।

मधुमय मलय बनी है साकी प्यास बढाती मधुशाला।।

मात्र प्रशंसित काव्य नहीं यह तो जीन का सरगम है।

जिसके सुन्दर राग संजोती कण्ठ तरलिका शुभ हाला।।

अमर रहे यह काव्य अनोखा, अमर रहे लिखने वाला।

अमर रहें वे सभी पियक्कड अमर रहे यह मधुशाला।।

मैंने जितना पढा व समझा यह जीवन की गाथा है।

शाश्वत सत्य की राह दिखाती महा दार्शनिक मधुशाला।

लेखक हिंदी के प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं.
प्रकाशित हिंदी उपन्यास “रद्दी के पन्ने”

One thought on “मधुशाला मेरी नजर में”
  1. बहुत सुन्दर भैया जी
    शाश्वत सत्य की राह दिखाती महा दार्शनिक मधुशाला।,

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