भारतेंदु दिवस का एक अर्थ स्त्री आधुनिकीकरण भी है

भारतेन्दु हरिश्चंद्र

भारतेंदु दिवस के अवसर पर विशेष

अरुणाकर पाण्डेय

अरुणाकर पाण्डेय

पिछले कई दिनों से स्त्री अपराध से संबंधित मुद्दे भारत के मानस और राजनीति का केंद्र बने हुए हैं | स्त्री लगातार राजनीति के केंद्र में है चाहे वह खेलकूद का मामला हो या फिर कलकत्ता के मेडिकल कॉलेज का मामला हो | जन संचार माध्यमों में लगातार इन विषयों को लेकर बहस होती है और चर्चा में स्त्री विषयों के जानकार और आंदोलनकर्ताओं से लेकर राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ता भी एंकरों से संवाद करते दिखते हैं | इनमें कई बार तो प्रतिभागी पार्टियों की स्त्री प्रवक्ताओं को आपस में एक दूसरे पर नीतियों को लेकर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला दिखाई देता है लेकिन अंततः बहस स्त्री के पक्ष से फिसलकर राजनीतिक पाले में ही जाती दिखती है | धीरे धीरे इस बहस की चाल भी ढीली पड़ती चली जाएगी और फिर कोई अन्य विषय इसे अपदस्थ कर देगा और सब सामान्य हो जाएगा | लेकिन बात वहीँ रह जाएगी कि एक समाज के रूप में हम स्त्री और उनके अवसर को क्या महत्व देते हैं और उसके स्थायी समाधान क्या करेंगे !

लेकिन इस मामले में आधुनिक हिंदी के निर्माता भारतेंदु हरिश्चन्द्र का पुण्य स्मरण करते हुए बहुत कुछ ऐसा याद कर सकते हैं जिससे हमें आज प्रेरणा लेनी चाहिए | भारतेंदु जी जब मात्र पंद्रह बरस के थे तब संवत् 1922 में वे जगन्नाथ जी की यात्रा पर अपने परिवार के साथ गए थे |वह यात्रा उनके लघु जीवन के लिए निर्णायक साबित हुई | उस यात्रा में उन्हें बंगाल की साहित्यिक गतिविधियों को जानने का अवसर मिला |उन्हें उस यात्रा में ज्ञात हुआ कि उस समय बंगाल में नए तरह का साहित्य रचा जा रहा था और इसके साथ ही यह तीव्र बोध भी उन्हें हुआ कि हिंदी साहित्य में इस नव साहित्यिक लहर का घोर अभाव है | यह बोध उनके भीतर इतना सघन हो गया कि अगले तीन वर्षों में ही उन्होंने बंगला नाटक ‘विद्यासुंदर नाटक’ का अनुवाद हिंदी में किया जिससे हिंदी का सशक्त रूप भी सामने आया | इसके साथ ही उन्होंने ‘कविवचनसुधा’ पत्रिका का प्रकाशन किया जिसमें अब पुरानी तरह की कविताओं के साथ गद्य लेख भी छपने लगे | इसके बाद संवत् 1930 में उन्होंने ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ का प्रकाशन किया जिसे आठ बरस के बाद ‘हरिश्चन्द्रचंद्रिका’ नाम दिया गया | आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा है कि इसी पत्रिका ने हिंदी का परिष्कृत रूप सबसे पहले निर्धारित किया | लेकिन भारतेंदु जी केवल साहित्य और पत्रकारिता का ही विकास नहीं कर रहे थे बल्कि वे समाज सुधार के लिए भी अपना योगदान दे रहे थे क्योंकि उन्होंने ‘काव्य समाज’,’तदीय समाज’ और ‘सार्वजनिक सभा’ जैसी संस्थाओं की स्थापना की थी | इसलिए उनका महत्त्व साहित्य और समाज दोनों में ही सार्वकालिक माना जाएगा |

भारतेंदु जी ने इसी क्रम में स्त्रियों को लिए सन 1874 में एक पत्रिका निकाली थी जिसका नाम ‘बालाबोधिनी’ था | इसका सिद्धांत था

“जो हरि सोई राधिका, जो शिव सोई शक्ति |

नारी जो सोई पुरुष , यामैं कछु न विभक्ति ||

सीता अनसूया सती,अरुन्धति अनुहारि|

शील लाज विद्यादि गुण ,लहौ सकल जग नारि||

पतु,पति, सुत-कर ताल कमल लालित ललना लोग|

पढ़ैं-गुनैं सीखैं-सुनैं नासैं सब जग सोग||

वीर प्रसविनी बुध वधू होइ हीनता खोय |

नारी नर अरधंग की – साँचोहिं स्वामिनी होय ||”

‘बालाबोधिनी’ के इस मोटो से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि हिंदी में भारतेंदु स्त्री को स्वामिनी के पद पर देख रहे थे और यह भी चाह रहे थे कि हिंदी समाज भी स्त्री के प्रति अपने दृष्टिकोण को बीसवीं शती के पहले सुधारे | लेकिन यह बात सिर्फ बालाबोधिनी के सिद्धांत से ही प्रकट नहीं होती बल्कि जो साहित्य वे लिख रहे थे उसमें भी वे यह संदेश देना चाह रहे थे | उन्होंने इस विषय पर एक नाटक लिखा था जिसका नाम ‘नीलदेवी’ है | यह नाटक रानी नीलदेवी के रणनीति कौशल पर केन्द्रित है जिसमें रानी अपनी चतुराई से विदेशी राजा से अपने पति की हत्या का बदला लेती है और अपने राज्य की पुनर्स्थापना करती है | यह भारतेंदु का स्त्री पक्ष है या यह भी कहा जा सकता है कि उनकी आकांक्षा है | इस नाटक की भूमिका में भी उन्होनें जो लिखा है उससे यह सपष्ट हो जाता है कि वे भारतीय स्त्री की तुलना उस समय की यूरोपियन स्त्री से कर रहे है | भूमिका में वे लिखते हैं

“आज बड़ा दिन है,क्रिस्तान लोगों का इससे बढ़कर कोई आनंद का दिन नहीं है |किंतु मुझको आज उल्टा और दुःख है | इसका कारण मनुष्य स्वभावसुलभ इर्षा मात्र है | मैं कोई सिद्ध नहीं कि रागद्वेष से विहीन हूँ |जब मुझे अँगरेज रमणी लोग मेद सिंचित केशराशि, कृत्रिम कुंतलजूट, मिथ्यारत्नाभरण,विविध वर्ण वसन से भूषित ,क्षीण कटिदेश कसे, निज निज पति गण के साथ प्रसन्नवदन इधर से उधर फर फर कल की पुतली की भाँति फिरती हुई दिखाई पड़ती हैं तब इस देश की सीधी सादी स्त्रियों की हीन अवस्था मुझको स्मरण आती है और यही बात मेरे दुःख का कारण होती है |”  

  ‘नीलदेवी’ नाटक की भूमिका से यह पता चल जा रहा है कि भारतेंदु जी की दृष्टि में अंग्रेजी स्त्री का स्वरुप बहुत सौन्दर्यपूर्ण और स्वभाव स्वतंत्र है क्योंकि वे अपना मन पसंद श्रृंगार कर रही हैं और अपने पति के साथ बराबरी का व्यवहार कर रही हैं और बहुत प्रसन्न दिखाई देती हैं | लेकिन जब वे भारतीय स्त्री की बात कर रहे हैं तो वह बहुत दबी कुचली और परजीवी का जीवन जीने वाली अभिशप्त दिख रही है | यह तुलना बता रही है कि उनका अंतर्मन इससे बहुत पीड़ित है संभवतः वही पीड़ा जो भारतीय स्त्री के मन को भी मलिन कर रही है | यही कारण है कि भारतेंदु जी की आकांक्षा है कि भारतीय नारी यूरोपियन नारी की तरह स्वतंत्र हो और यह कोई साधारण लक्ष्य नहीं है | उस सपने को बरकरार रखने के लिए ही जैसे उन्होंने ‘नीलदेवी’ जैसी रचनाएँ लिखी हैं | स्त्री अपराध को लेकर जो हाल-फिलहाल नृशंस घटनाएँ देखने सुनने को मिल रही हैं उनसे यही प्रतीत होता है कि आज भारतेंदु युग के बीत जाने के लगभग सवा सौ साल बाद भी उनका स्वप्न फिर से जीवित करने की आवश्यकता है क्योंकि कई बार राजनीतिक इच्छाशक्ति से अधिक जरुरी सामाजिक इच्छाशक्ति होती है जिसके बगैर हम क़ानून तो बना लेते हैं लेकिन वह शिक्षा नहीं दे पाते जिसकी वास्तविक आवश्यकता है | कैसी विडंबना है कि जिस बंगाल की यात्रा ने उन्हें आंदोलित किया था आज वही बंगाल एक मेडिकल छात्रा का हत्या स्थल है | सोचने की आवश्यकता है कि क्या भारतेंदु और उनकी दृष्टि इस विषय में हमसे कहीं बेहतर और अधिक मानवीय थे !

रचनाकार दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक हैं

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