तिलोत्तमाIMAGE SOURCE META aI

ठाकुर प्रसाद मिश्र

Thakur Prasad Mishra

जड़ चेतन गुण दोषमय विश्व कीन्ह करतार।

संत हंस गुण दोष गहहिं सब परिहरि वारि विकार।।

 सृष्टि की रचना ही गुण एवं दोषमय तत्वों से हुई है। इसे रचकर विधाता ने तर्क एवं ज्ञानशील जीवधारियों को नीर-क्षीर विवेचना के लिए छोड़ दिया। कॉल चक्र के साथ कभी विनाशकारी दोष गुण पर भारी पड़ता है,तो कभी शुभ कर्मा गुण दोष के व्यूह का भेदन कर उसे पददलित कर । कालचक्र के साथ कदमताल मिलाता हुआ चलता है। इसी तरह उद्भव और विनाश का क्रम आदि से अंत तक चलता रहता है।

 आदिकाल की बात है। दो महान असुर जो सगे भाई थे, संपूर्ण संसार को जीतकर एवं अमरता प्राप्त कर संपूर्ण लोकों पर राज्य करने की मंशा से विंध्य पर्वत पर तप करने गए। उन दोनों भाइयों की आपसी प्रीति इतनी प्रगाढ़ थी, जितनी शरीर एवं आत्मा की होती है। एक क्षण का अलगाव उन्हें स्वीकार नहीं था। वे सारे दैहिक एवं व्यावहारिक कार्य एक साथ ही करते थे। उनमें बड़े भाई का नाम सुंद और छोटे भाई का उपसुन्द था। वे दोनों घोर तपस्या में लीन थे। भगवान ब्रह्मा उन दोनों की भावना समझ कर उनके पास प्रकट होकर वरदान देने नहीं जाना चाहते थे, क्योंकि वे जानते थे कि ए असुर दोनों भाई जो वरदान मांगेगे वह सृष्टि के हित में नहीं होगा। अतः उनकी प्रसन्नता में विलंब हो रहा। लेकिन उन दोनों भाइयों के तप के कठोर इरादे पर कोई असर नहीं हुआ, बल्कि उनकी तपस्या की उग्रता और अधिक बढ़ गई। जैसे -जैसे उनकी तपस्या की, उग्रता बढ़ती गई, आस -पास के वातावरण का ताप भी बढ़ता गया। एक समय ऐसा आया कि पूरे पर्वत से धुआं निकलने लगा। पर्वत की वनस्पतियां मुरझाने लगीं, जल स्रोत सूखने लगे। अतः विवश होकर भगवान ब्रह्मदेव को उन्हें वरदान देने के लिए उनके पास जाना पड़ा।

 भगवान ब्रह्मा को देखकर उन दोनों भाइयों के हर्ष की सीमा नहीं रही। ब्रह्मदेव द्वारा वर मांगने की बात सुनकर सर्वप्रथम उन दोनों ने अमर होने का वरदान मांगा। और दूसरा वरदान उन दोनों ने संपूर्ण सृष्टि में अजेय होकर राज्य करने का मांग। प्रथम वरदान तो ब्रह्मदेव ने यह कहकर मना कर दिया कि भूलोक में रहने वाले प्राणी के लिए यह वरदान अदेय है। दूसरा वरदान हमने तुम्हें दिया। पहले वरदान के बदले कोई दूसरा वरदान मांग लो तो उन्होंने पृथ्वी के किसी भी बलशाली योद्धा, नर, नाग, किन्नर, असुर या किसी भी देवता द्वारा हमारा बध संभव न हो सब हमारे बसवर्ती रहे, हमें कोई मार न सके मांगा। ब्रह्मा जी ने कहा यह मृत्युलोक है इसमें जो आया है उसे एक दिन मरना ही पड़ता है अतः तुम लोग अपने मृत्यु का मार्ग स्वयं चुन लो। तब दोनों ने बहुत सोच विचार कर यह वरदान मांगा कि जब कभी हम दोनों भाई आपस में एक दूसरे पर मारक प्रहार करें तभी हमारी मृत्यु हो। उन दोनों की सोच थी कि हम दोनों का प्रेम इतना प्रगाढ़ है कि किसी भी वस्तु के लोभ में पडकर भी हमारी आपसी लड़ाई हो ही नहीं सकती। अतः ना हम लड़ेंगे, न मरेंगे तो वैसे ही अमर हो जाएंगे।

 भगवान ब्रह्मा ने एवमस्तु कहा और अंतर्ध्यान हो गए। फिर क्या था? दोनों राक्षस राज भाई तपस्या से पूर्ण काम हो अपने नगर लौट आए । नगरवासियों ने उनका भव्य स्वागत किया और अब वे भयमुक्त हो परम स्वतंत्रता के साथ निज मंत्र से राज्य करने लगे। राज्य में किसी भी प्रकार के सत्कर्म पूजा पाठ की मनाही हो गई। संसार के सारे कार्य इनकी संस्तुति के बिना  बिना होने बंद हो गए। सर्वत्र अनीति का बोलबाला हो गया। यज्ञ इत्यादि क्रियाएं ना होने से देवलोक दुखी रहने लगा। उनकी शक्तियां क्षीण होने लगी। सर्वत्र हिंसक कर्मों का बोलबाला था। असुर अनुचरों पर लगाम लगाने वाला कोई नहीं रहा। उन दोनों असुर भाइयों और उनके अनुचरों द्वारा किए जा रहे अनाचार से पृथ्वी लोक से लेकर देव लोक तक हाहाकार मच गया। और अंत में दुखी देवता एकत्र होकर ब्रह्मा जी के पास गए। और अति विनम्र भाव से करबद्ध प्रणाम करते हुए बोले हे जगत पिता ब्रह्मदेव आपके वरदान से दर्पित दोनों भाई राक्षस भू लोक देव लोक के साथ अन्य लोकों के लिए भयदायक ग्रहण बन चुके हैं। उनके अन्याय से सभी लोकों में त्राहि -त्राहि मची है। वे संपूर्ण ब्रहम सृष्टि के लिए काल बन गए हैं। अतः अब आप ही कोई उपाय इनसे हमें मुक्ति दिलाने के लिए करें,क्योंकि वे दोनों तो हम लोगों द्वारा आप के वरदान के कारण अवध्य हो गए हैं। देवताओं की पीड़ा सुनकर जगत पिता ब्रह्मा जी ने उन्हें आश्वासन देकर वापस भेजा। और उन राक्षसों से पृथ्वी को मुक्त करने का विचार करने लगे।

 भगवान ब्रह्मा ने विश्वकर्मा को बुलाया और एक अति सुंदर लोक मोहिनी नारी शरीर की रचना करने को कहा। भगवान विश्वकर्मा ने पृथ्वी से लेकर स्वर्ग तक के सारे अनुपम रत्नों को इकट्ठा किया और उनके सार भाग को तिल-तिल काटकर अलग किया और उस संग्रह के सुंदर संयोजन से एक त्रय लोकसुंदरी नारी मूर्ति की सर्जना की तथा उसे लेकर वे ब्रह्मधाम गए। भगवान ब्रह्मा उस रचना से अति प्रसन्न हुए और उस प्रतिमा में प्राण डालकर अतुलनीय छवि की स्वामिनी नारी के रूप में बदल दिया। क्योंकि उसका शरीर तिल-तिल बराबर काटे गए रत्नों के सार अंश से बना था अतः उसे तिलोत्तमा नाम से अभिहित किया गया।

 जिस समय भगवान विश्वकर्मा वह मूर्ति लेकर ब्रह्मधाम गए तो उस समय भगवान शिव ब्रह्मा जी की सभा में उपस्थित थे। और उनके पास  ही बैठे थे तिलोत्तमा नारी शरीर धारण करने के बाद पिता ब्रह्मा की परिक्रमा करने लगी। भगवान शिव बिना पलकें झपकाए उसके अनुपम सौंदर्य को निहार रहे थे, किंतु तिलोत्तमा की स्थिति परिक्रमा करने के कारण दिशा बदल रही थी। और ब्रह्मधाम की मर्यादा का ध्यान रखने के कारण भगवान शिव गर्दन मोड़ कर उसे निहार नहीं सकते थे। तिलोत्तमा अतः जिस तरफ जाती,  उस तरफ भगवान शिव का एक सिर प्रकट हो जाता था और चारों दिशाओं में तिलोत्तमा के जाने के कारण शिव के चार शीश और प्रकट हो गए। एक शीष पहले का कुल मिलाकर पांच शीश के शिव हो गए उनके सिरों की संख्या बदलने की दशा में भगवान ब्रह्मा ने उन्हें पंचानन कहा और तब से भगवान शंकर का एक नाम पंचानन भी है।

 अब भगवान ब्रह्मा, तिलोत्तमा से बोले तिलोत्तमे अब तुम संसार के कल्याण हेतु एक उत्तम कार्य करो। मेरी आशीष से प्रबल होकर दोनों भाई राक्षस सुंद और उपसुंद जिनका नगर विंध्य पर्वत के सभी समीप है। अत्यंत दुराचारी सृष्टि एवं देव पीड़क हो गए हैं। वे दोनों जब तक आपस में लड़ेंगे नहीं तब तक मरेंगे नहीं ऐसा उन्हें वरदान मिला है । तुम वहाँ जाकर युक्ति पूर्वक अपने सौंदर्य से उन्हें मोहित कर उनमें आपसी वैर भाव पैदा करा कर युद्ध कराओ। वरदान के आधार पर उनका मरण आपसी द्वंद प्रहार से ही नियत है। जब तुम यह कार्य कराने में सफल हो जाओ तब वापस लौटकर इन्द्र लोक जाकर उनकी सभा में अप्सराओं में श्रेष्ठ पद धारण कर स्वर्ग सुखों का उपभोग करना।

 ब्रह्मा जी की आज्ञा से तिलोत्तमा कुछ सखियों के साथ विंध्य पर्वत पर गई और सखियों के साथ मधुर संगीत की झंकार के साथ प्रातः  पुषिपत पुष्पों की सुगंध भी लेती हुई विचरण करने लगी। कुछ समय के बाद वन एवं पर्वत पर खिले पुष्पों की उन्मत्त कर देने वाली सुरभि युक्त वायु का सेवन करने दोनों भाई सुन्द उपसुंद भी उस स्थल पर पहुंचे। मन को झकझोर देने वाली संगीत जब उनके कानों में पड़ी तो वे आकुल भाव से उस तरफ बढ़े और कुछ ही दूरी पर उपस्थित नक्षत्रों के बीच चंद्रमा के समान शोभा पाने वाली तिलोत्तमा के पास पहुँच गए। और निर्भीक भाव से दोनों भाइयों ने उसकी एक- एक भुजा पकड़ ली और बोले यह मेरी रानी बनेगी। दोनों बोले सुंदरी हमें इस बात की कोई चिंता नहीं है कि तुम कौन हो, किसकी पुत्री हो? हम इस संसार के स्वामी हैं। हमारे लिए कोई भी वस्तु अप्राप्य नहीं है। हमारा मार्ग रोकने वाला कोई नहीं है। आतः तुम हमारा प्रणय स्वीकार करो, हम तुम्हें अपनी रानी बनाएंगे। इस पर तिलोत्मा बोली, लेकिन आप तो दो लोग हैं, मैं तो किसी एक की ही रानी बन सकती हूँ, आप दोनों निर्णय कर लें। सुंद बोला मैंने तुम्हारी बांह पहले पकड़ी है, तुम मेरी पत्नी हुई और उसकी भाभी भला वह अपनी भाभी का वरण कैसे करेगा? ऐसा सुनकर उपसुंद बोला नहीं भैया इसका हाथ पहले मैंने पकड़ा है यह मेरी पत्नी हुई और आपकी अनुज बधू । अतः छोटे भाई की पत्नी पर आप अपना अधिकार कैसे कायम कर रहे हैं? इस तरह यह मेरी करते हुए दोनों उसे अपनी तरफ खींचते रहें। परेशान तिलोत्तमा बोली पहले मेरा हाथ छोड़ आप दोनों मेरी बात सुनो। तभी मैं तुम दोनों में से किसी एक की बन पाऊंगी। दोनों ने उसका हाथ छोड़, निर्णय भी उसी पर छोड़ दिया। अब तिलोत्तमा बोली वीर वीरवरों श्रेष्ठ स्त्रियाँ श्रेष्ठ पुरुषों को ही वरण करती हैं। अतः आप दोनों में जो अधिक बीर होगा मैं उसकी ही पत्नी बनूँगी। अब आप दोनों युद्ध प्रतियोगिता द्वारा अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कीजिए। जो जीतेगा मैं उसीको वरण कर लूंगी। दोनों तिलोत्तमा के सामने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए अपनी -अपनी गदा उठा लिए। दैव इच्छा से ब्रह्मा जी का वरदान उन्हें भूल गया और अपनी मृत्यु का सामान स्वयं इकट्ठा करने में लग गए।

 दोनों समान योद्धा तथा युद्ध कला के धनी थे। काफी देर तक दोनों प्रतियोगी भाव से अपनी गदाएं टकराते रहे, किंतु कोई भी निर्बल नहीं पड रहा था। दोनों की समान ऊर्जा बनी हुई थी। अतः निर्णायक मोड़ पर युद्ध कला पहुंचाने की नियत से दोनों में रोष उत्पन्न होने लगा। और दोनों कुपित भाव से आपस में प्रहार करने लगे और अंत में अति क्रोध में आकर दोनों ने अत्यंत बल पूर्वक एक दूसरे के सिर पर गदा मारी। और दोनों एक साथ ही भू लुंठित हो गए। उन दोनों का मरण देख तिलोत्मा अपनी सखियों के साथ इंद्रलोक चली गई और पृथ्वी एवं स्वर्ग का सारा संकट समाप्त हो गया। यह कथा यह संदेश देती है कि आपस में कितना भी प्रेम हो किंतु उस प्रेम रूपी दूध में स्वार्थ की खटास पड़ते ही जैसे दूध फट कर नष्ट हो जाता है, वैसे ही स्वार्थ की देहरी पर प्रिय संबंधों की बलि देने पर दोनों पक्ष निर्बल होकर नष्ट हो जाते हैं। अतः विचारवान पुरुष हमेशा इस बात का ध्यान रखें बंटे नहीं, क्योंकि वस्तुएँ तो प्रयत्न करने पर पुनः मिल जाएंगी, लेकिन वह से स्नेहिल अपनत्व तो सदा के लिए तिरोहित हो जाएगा। जैसे-

 जल पय सरिस बिकाय देखउ प्रीति की रीति भलि।

 विलग होय जल जाए, कपट खटाई परत ही ।

लेखक – सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं । प्रकाशित हिंदी उपन्यास रद्दी के पन्ने ।

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