“फिर हिंदी की किताबें कौन पढ़ेगा ?” डॉक्टर रामविलास शर्मा
हिंदी के वरिष्ठ आलोचक डॉक्टर रामविलास शर्मा जी ने यह प्रश्न सन् 93 में एक साक्षात्कार में उठाया था । आज 10 अक्टूबर को उनका जन्मदिन है और वे सन् 1912 में पैदा हुए थे। अतः इस प्रश्न को उन्होंने तब सबके सामने रखा जब वे लगभग 81वर्ष के हो गए थे और आर्थिक उदारीकरण की नीति उनके सामने ही लागू हुई थी।एक नए तरह का अमरीकी माहौल भारत में बन रहा था और तभी रामविलास जी ने किताबों में अंग्रेजी की तुलना न केवल हिंदी से की बल्कि उस समय नई पीढ़ी के साथ टीवी के संबंधों को देखते हुए वे पुस्तकों की संस्कृति को सशंकित भाव से वे देख रहे थे । उनका यह साक्षात्कार संजीव क्षितिज ने लिया था जो सन् 93 में प्रभात खबर के दीपावली अंक में प्रकाशित हुआ था ।
आज 31वर्षों के बाद 2024 में भी रामविलास शर्मा जी का यह प्रश्न वैसे ही बना हुआ है,बल्कि कहना यह चाहिए कि उनकी शंका अब पहले से अधिक संबलित दिखती है क्योंकि इन बीते वर्षों में हिंदी की पुस्तकों के पढ़े जाने में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई,उल्टे पत्र-पत्रिकाओं की पठनीयता,उपलब्धता,स्थाई चरित्र और लोकप्रियता में भी भारी कमी दिखती है। टीवी की जगह अब जैसा कि सर्वविदित है,मोबाइल और नेट ने ले ली है । यह भी सब जानते समझते हैं कि इस पर उपलब्ध सामग्री या अंतर्वस्तु कोई वैसा सांस्कृतिक वातावरण निर्मित नहीं कर रही हैं जैसा कि रामविलास जी को अभिप्रेत था। अर्थात् सांस्कृतिक संकट पहले से अधिक गहराया है क्योंकि हिंदी की साहित्यिक और वैचारिक पुस्तकों के प्रति अब भी कोई गंभीर माहौल नहीं कहा जा सकता,बल्कि अब तो वह और दूर की कौड़ी ही दिखती है। क्या यह मान लेना चाहिए कि हिंदी पुस्तकें अपना जनाधार खो चुकी हैं क्योंकि इंटरनेट का सांस्कृतिक वर्चस्व लगातार मजबूत होता चला गया है और प्रत्येक नागरिक को अब इसी का नशा हो चुका है !
उक्त साक्षात्कार में रामविलासजी ने तत्कालीन मध्यवर्ग और प्रबुद्ध वर्ग की भाषा के चुनाव के आधार को प्रकट किया है । उन्होंने कहा है कि अब जिसे आगे बढ़ना है वह कॉन्वेंट स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ता है और टीवी देखता है । वह अच्छी अंग्रेजी बोलता है और अमरीकी मूवीज़ और संगीत अच्छे से समझता है लेकिन लिख नहीं पाता। इसलिए एक तो वह अंग्रेजी में जीता है और उस पर भी वह अंग्रेजी में अमरीकी प्रभाव के मीडिया में ही रमता है,पुस्तकों में नहीं, तो फिर हिंदी की पुस्तक पढ़ने का प्रश्न ही कहाँ बनता है ? मजेदार यह है कि इस संदर्भ में उन्होंने अपने बड़े पौत्र का उदाहरण सामने रखा है जो अंग्रेजी ही बोलते थे और इनके कहने पर हिंदी की पुस्तकें पढ़ते थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि रामविलासजी अपने जीवन में घटित होने वाले प्रत्येक सांस्कृतिक परिवर्तन के प्रति सचेत रहते थे और आलोचना तथा साहित्यिक मूलयांकन में वे अपने व्यावहारिक अध्ययन को स्थान देते थे । इसलिए वे और उनका लेखन सदैव समाज के लिए सजगता का माध्यम बने रहेंगे यदि समाज उन तक जाए। आज यह भी एक बड़ी चुनौती है कि कैसे समाज को हिंदी की पुस्तकों के बहुत करीब लाया जाए !
फिलहाल आदरणीय डॉक्टर रामविलास शर्मा जी को उनके 112वें जन्मदिन पर सादर नमन ।
लेखक – दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं