अरुणाकर पाण्डेय
देह और मन का विश्राम लेना आवश्यक हो जाता है । यह खुद को खो कर फिर से पाने जैसा है । जब जीवन में एकाकीपन और शोर बहुत बढ़ जाए तब ऐसा लगता है कि कहीं दूर निकल चला जाए जहां हम अपने से भी अलग हो जाएं। लेकिन यह ऐसी अभिलाषा है जो या तो बहुत मानसिक श्रम से पूरी हो सकती है जो कि लगभग असंभव है या फिर पूरी नहीं हो सकती ।
यह पंक्ति कभी जयशंकर प्रसाद जी ने ‘लहर’ नाम के काव्य संग्रह में लिखी थी
“ले चल मुझे भुलावा देकर
मेरे नाविक धीरे धीरे
जिस निर्जन में सागर लहरी
अम्बर के कानों में गहरी
निश्छल प्रेम कथा कहती हो
तज कोलाहल की अवनी रे !”
यह शोर,यह कोलाहल भीतर का भी है जो व्यक्ति को पागल बना देता है,अवसाद में ला देता है। विडंबना तो यह है कि उसकी पीड़ा को समझने वाला कोई नहीं, खुद से भी वह यह उम्मीद नहीं रखता।
तब वह ऐसे नाविक की कल्पना करता है जो उसे बिना पता लगे धीरे धीरे उस शोर से दूर लेकर वहां ले चला आए जहां सिर्फ और सिर्फ प्रेम हो । यह भी ईश्वर का ही एक रूप है क्योंकि यह भटके और थके हुए मन को एक ठौर देने जैसा है । उसे पाकर जैसे दर्द और बेचैनी से तड़पता हुआ मन एक गहरी विश्रांति में ध्यानस्थ हो जाता है । यह सुख भी अनिर्वचनीय है क्योंकि यह गहरे मौन में ले जाता है ।पता नहीं मनुष्य के अलावा अन्य प्राणियों को यह सुख प्राप्त है या नहीं लेकिन मनुष्य के जीवन में यह बहुत बड़ा वरदान है । प्रसाद जी जैसा कवि भी इसकी अभिलाषा करता है तो निश्चय ही यह बहुत कीमती अनुभव है । यदि हम मनुष्य इसका अभ्यास करें तो उनकी ये पंक्तियां उपचार करने का भरोसा देती हैं ।
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं।