ठाकुर प्रसाद मिश्र
प्राचीन काल की बात है सतयुग का प्रथम चरण था, सम्पूर्ण सृष्टि सत्य स्वरूप थी। उस समय कोई भी बलवान व्यक्ति राज्य एवं प्रजा का पालन करता रहा हो, व्यवस्था धर्म की होती थी। अतः संपूर्ण जगत का सम्राट कहें या नियंता कहे धर्म ही था। हर व्यक्ति चाहे वह नृपति हो या रंक सबको धर्म आधारित व्यवस्था के अंतर्गत कार्य करना पड़ता था। जो इससे इतर कार्य करता था वह असुर संस्कृति का आचरण करता था ।अन्यथा सर्वत्र देव संस्कृति जो धर्म आधारित थी उसकी प्रधानता थी। इसमें सब पर नियंत्रण धर्म का ही था। यथा–
नवइ राज्ञम न राजासीत न दंडः न च दंडिका ।
धर्मणेव प्रजा सर्वा रक्षन्ति अस्मि परस्परम।
भगवान ब्रह्मा के सातों मानस पुत्र ऋषियों में ऋषि वशिष्ठ सर्वश्रेष्ठ थे, उनमें भगवान ब्रह्मा के समान ही तेज था। वे ज्ञान,विज्ञान, बुद्धि विवेक के निधान थे। सृष्टि के प्रारंभ में ही उन्होंने ना चाहते हुए भी पिता के कहने पर सूर्यवंश का पुरोहित होना स्वीकार किया था। ब्रह्मा जी ने उनसे कहा था हे पुत्र यद्यपि तुम पुरोहित कर्म को नीच कर्म समझकर अस्वीकार करना चाहते हो, लेकिन इसी कुल में आगे चलकर श्री हरि का रामावतार होगा। और उन्हें निहारते ही तुम्हारे द्वारा अर्जित पुरोहित कर्म का सारा पाप भस्म हो जाएगा। जगत कल्याण के लिए तुम इस कर्म का निर्वहन करो पिता की आज्ञा मानकर ही वे मनु कुल इक्ष्वाकु रघुकुल जो सूर्य कुल अगली पीढ़ी बढ़ी, उसके पुरोहित एवं कुल गुरु बने रहे और दशरथ नंदन राम के आने का पथ निहारते रहे।
एक बार की बात है सतयुगी नृपति विश्वामित्र जिनका पौरुष। समूचे भूमंडल पर विराज रहा था। जो शस्त्र विद्या के बहुत बड़े ज्ञाता थे, तमाम प्रकार के दिव्यास्त्रों के ज्ञाता थे। उनकी बराबरी करने का साहस किसी समयवर्ती नृपति में नहीं था। मृगया के लिए अपनी सेना सहित हिमालय की तलहटी वाले वन में गए। वहाँ काफी समय तक आखेट में रत रहने के कारण राजा एवं उनकी सेना भूख प्यास से व्याकुल हो उठी। अतः अनुचरों ने पता लगाकर समीप ही एक ऋषि आश्रम होने की सूचना दी। सूचना पाकर राजा जब उस आश्रम में पहुंचे,तो वहाँ की दिव्य प्राकृतिक छटा देखकर मंत्रमुग्ध हो गए। आश्रम में प्रवेश करते ही उनका सारा श्रम दूर हो गया और वे अति आनन्दित हुए।
वह आश्रम महर्षि वशिष्ठ का था। राजा को अपना अतिथि पाकर मुनि वशिष्ठ हर्षित हो उठे। उन्होंने अत्यंत प्रेम से उनकी आव भगत की तथा परिवार एवं राज्य का कुशल समाचार पूंछा। फिर उनके मन में भाव उठा तस पूजा चाहिए जस देवता अतः मन ही मन यज्ञ धेनु नंदिनी को इनकी सेवा का भार सौंपा। कामधेनु की पुत्री एवं ऋषि की यज्ञ धेनु नंदिनी के लिए कुछ भी असाध्य नहीं था। अतः उसकी प्रेरणा से ऋद्धियों-सिद्धियों ने क्षण मात्र में ही तमाम अनुचरों के साथ राजा की तथा उनकी सेना के लिए बहुत राज्योचित उत्तम भोग की वस्तु में उपस्थित हो गई। भोजन पान से संतुष्ट हुए महाराज विश्वामित्र मुनि वशिष्ठजी के साथ आसन पर बैठे एवं अत्यंत कुतूहल के भाव से पूछा प्रभो आपका आश्रम सारी राजसी गतिविधियों से सर्वथा निरापद है। यहाँ की शांति हृदय को पूर्ण विश्राम देने वाली है। कहीं कोई मानव कोलाहल नहीं है, फिर भी मेरे लिए और मेरी सेना के लिए मात्र कुछ ही समय में इतना सारा दिव्य भोग कैसे उपस्थित हो गया? क्या यह आपकी तपस्या से सुलभ हुआ या किसी अन्य कारक से कृपया बताएं । राजा के प्रश्न को सुनकर महर्षि मुस्काए वे बोले राजन यह सारा प्रताप स्वर्ग की धेनु कामधेनु की पुत्री इस यज्ञ से उत्पन्न नंदिनी का है। यह मेरी पूजा सामग्री को सुलभ कराने सारी याज्ञिक क्रिया को पूर्ण कराने के लिए यज्ञ कुंड से प्रकट हुई है। इसकी भी सारी शक्तियां इसकी माँ कामधेनु के ही समान है। मुनिवर की बात सुनकर विश्वामित्र अपने लोभ का संवरण न कर पाते हुए बोले, मुने आपके आश्रम में तो आप के साथ बहुत कम लोग रहते हैं। आपकी आवश्यकताओं के लिए भी कम ही बस्तुओं की जरूरत है। आश्रम की आवश्यकताएँ तो सामान्य गायों से भी पूरी हो जाएगी, जिन्हें मैं आपको उपलब्ध करा दूंगा। कृपया यह दिव्य गाय आप मुझे दे दें। मैं इसके प्रभाव से अपने संपूर्ण राज़ की प्रजा का पालन और उत्तम ढंग से कर सकूंगा। विश्वामित्र महाराज की बात सुनकर वशिष्ठजी अत्यन्त शांत भाव से बोले हे, राजन यह देव दुधा सामान्य गोशाला की पशु बनाने के लिए नहीं है। इसका उद्भव केवल देव कार्यों के संपादन के लिए ही हुआ है। अतः आप इसे प्राप्त करने का लोभ त्याग दें जो आप जैसे प्रतापी सम्राट के लिए उचित होगा।
वशिष्ठजी के बार-बार समझाने पर भी महाराज विश्वामित्र अपने हठ पर अड़े रहे। तब वशिष्ठजी ने कहा हे राजन् वह देव धेनु स्वेच्छा से ही कहीं आ जा सकती है। हम उसे कोई आदेश नहीं दे सकते। अब महाराज विश्वामित्र क्रोध के बसी भूत होकर कहा कि हम इसे बल पूर्वक ले जाएंगे। आप हमें रोक नहीं सकते और उनके सेवक जबरन गाय के गले में रस्सी बांधकर खींचने लगे और उसके आगे न बढ़ने पर उसे पीटने लगे। नंदिनी मुनिवर की तरफ देख कर रम्भाकर अपना दुख प्रकट करने लगी तो मुनिवर ने उससे कहा देवी इस समय हम तुम्हारी सहायता करने में असमर्थ हैं क्योंकि विश्वामित्र के राज्य सीमा में ही हमारा आश्रम भी है। मैं राजद्रोह कैसे कर सकता हूँ? इस समय तुम अपनी रक्षा स्वयं करो। वशिष्ठजी की बात सुनकर नंदिनी क्रोध से भरकर हुंकारने लगी। उसके नथुने फूल गए, उसने गोबर और मूत्र का त्याग किया। उसके शरीर के सारे रोम खड़े हो गए। देखते ही देखते उस गोबर, मूत्र एवं खड़े रोम कूपों से अनेक योद्धा यवन कोल भील संथाल प्रकट हुए और राजा की सेना पर टूट पड़े और उसका भीषण संहार करने लगे। यह देख विश्वामित्र अपनी सेना की सहायता करने उसके पास पहुंचे और अपनी सेना की दुर्गति देख कर विचार किया यह सब इसी रिषि की माया है। अतः हमें सबसे पहले किसी का वध कर देना चाहिए तभी यह गाय हमें प्राप्त होगी। ऐसा विचार कर उन्होंने मुनिवर को युद्ध की चुनौती देते हुए धनुष पर सर संधान किया। उनके इस आचरण से रिषिवर कुपित नहीं हुए, बल्कि अपनी रक्षा के लिए एक डंडा (ब्रह्मानंद) अपने सामने जमीन में गाड़ दिया। विश्वामित्र द्वारा किया जाने वाले हर प्रहार उस दंड से टकराकर नष्ट होने लगा। इससे कुपित होकर महाराज विश्वामित्र ने अब उन पर दिव्यास्त्रों का प्रहार प्रारंभ किया किन्तु उनका हर प्रहार विफल रहा। विश्वामित्र द्वारा सारे प्रहार विफल होने पर उन्हें तपस्या की शक्ति और तपस्वी ब्राह्मण के बल का अनुमान हो गया और पराजित क्षात्र तेज मलिन हो गया। वे क्षत्रिय बल को धिक्कारते हुए बोले—
धिक् बलम् क्षत्रिय बलम्, ब्रह्म तेजो बलं बलं ।
एकेन ब्रह्मदंडेन सर्व शस्त्रानि हतानि में।।
ऐसा कहकर महाराज विश्वामित्र ने अपना धनुष त्याग दिया। सभी शस्त्र त्याग दिया और स्वयं ब्राह्मण बनकर ब्रह्मबल प्राप्त करने की ठानी। उन्होंने अपना राजमुकुट सेनापति द्वारा राजमहल स्थित अपने वंशधर के पास पहुंचा दिया और सपत्नीक तपस्या करने के लिए निकल पड़े।
हजारों वर्ष की तपस्या के बाद भी उन्हें ब्राह्मण के रूप में जब ऋषि मुनियों का अनुमोदन नहीं मिला तो एक दिन ऋषि वशिष्ठ के प्रति पुनः उनका क्षत्रिय प्रतिहिंसक भाव जाग उठा और खड्यंत्र का आश्रय लेकर वशिष्ठ जी के परिवार पर हमला करवाकर और उनके पुत्रों के बध का कारण बन कर उन्हें पीडा देने लगे। इतनी पीडा सहने के बाद भी वशिष्ठजी ने कभी उनका अकल्याण नहीं सोचा।
और एक समय ऐसा आया जब विश्वामित्र ऋषि मंडली के नायक महामुनि वशिष्ठ की ही हत्या करने का विचार बना बैठे थे। उन्होंने कृपाण की धार तेज की और दिन छिपने के साथ ही मुनिवर की हत्या के इरादे से उनकी कुटिया के पृष्ठ भाग में जाकर छिप गए और वशिष्ठजी के सोने का इंतजार करने लगे।
पावस समाप्त होने के बाद निर्मल आकाश में आज पूर्णमासी की रात्रि थी। कुसमित वन प्रान्त से सुरभि संयुत पवन मंद-मंद चल रही थी। ऐसा प्रतीत होता था चंद्रदेव आज अपने कोष का संचित सारा अमृत अपनी प्रभा से अलंकृत अपनी प्रियतमा निशा पर लुटा देना चाहते थे। महर्षि वशिष्ठ को भी यह शोभा आकर्षित करने से नहीं चूकी और वे भी कुटी के द्वार पर धर्म प्रिया अरुंधती जी के साथ विराजे। पुलकित कर देने वाली चन्द्रप्रभा संयुत प्रिय लगने वाली रात की बेला को निहारते हुए माता अरुंधति अपने पति मुनि वशिष्ठ से बोलीं स्वामी ज़रा निहारिये तो आज की यह चन्द्रमा पूर्ण यह रजनी कितनी सुहानी लग रही है। अपने इस रूप में यह सारे जग के प्राणियों को अहलाद प्रदान कर रही है।
वशिष्ठजी बोले हाँ प्रिये यह उतनी ही शुभ एवं आनंद दायिनी है, जितनी महातपस्वी ऋषि विश्वामित्र की तपः कीर्ति। रिषिवर की यह बात सुनकर माता अरुंधति आश्चर्य में भरकर बोली स्वामी पीठ पीछे आप विश्वामित्र की इतनी प्रशंसा करते हैं, और जब सार्वजनिक रूप से उन्हें ब्रह्मर्षि की उपाधि देनी होती है तब ब्राह्मण वर्ण में शामिल करने से मना कर देते हैं। आखिर उनके साथ आप अपना दोहरा व्यवहार क्यों करते हैं? वे कब तक इस अन्याय का शिकार बनते रहेंगे? माता अरुंधति को उत्तर देते हुए मुस्कुराकर रिषिवर ने कहा तुम सत्य कहती हो प्रिये, विश्वामित्र ब्राह्मण बनने लायक हो चुके हैं, लेकिन वे ब्राह्मणोचित क्रोध का परित्याग अभी नहीं कर पाए। क्रोध को जीतते ही वे सर्वदा ब्राह्मण बनने योग्य हो जाएंगे।
हाथ में तलवार लिए रिषिवर की हत्या की जुगत में लगे हैं। विश्वामित्र झोपड़ी की दीवार से कान लगाये ऋषि दंपति का वार्तालाप सुन रहे थे। पहले तो वशिष्ठ जी के मुख से अपनी कीर्ति की प्रशंसा सुनकर वे विस्मित हो रहे थे और जब उन्होंने अपनी तपस्या में रह गई क्रोध की कमी की बात सुनी तो वे जैसे आकाश से नीचे गिर पड़े। वे बदहवास से सोचने लगे, हाय यह मैं क्या करने जा रहा था? यह तो शत प्रतिशत सत्य है कि अभी मैं अपने अहंकार जनित कोप का त्याग नहीं कर पाया, जिससे वशीभूत होकर षडयंत्र पूर्वक मैंने मुनिवर के सौ पुत्रों की हत्या करवा दी, जिनकी स्पर्धा में मैंने ब्राह्मण बनने का निर्णय लेकर हजारों वर्षों तक तपस्या की, लेकिन कभी भी अपने देहाभिमानी भावों से अलग नहीं रहा। सदा मुनिवर से शत्रुता का भाव रखा, लेकिन अति कृपालु महर्षि ने मेरा कभी अहित नहीं किया। मेरे द्वारा अनेक तरह से पीला पहुंचाई गई। पीड़ा का कभी प्रतिवाद नहीं किया और एक मैं केवल अपनी जिद पूरी करने के लिए तलवार की धार तेज कर उनकी हत्या करने के लिये उनकी झोपड़ी की पिछली दीवार के पीछे छिपकर उनको निद्रा की गोद में जाने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। क्या यह अहंकार एवं क्रोध की अतिशयता नहीं है जिसके द्वारा मैं जगत पूज्य रिषि की हत्या का दुष्कर्म करने आया हूँ। अरे मैं ऋषि नहीं महापापी और विधर्मी हूँ। मैं क्षमाशील ब्राह्मण कैसे बन सकता हूँ? मेरे अंदर तो अभी भी आखेटक क्षत्रिय की दुर्बुद्धि बनी हुई है। अरे मैं अपने इस निकृष्ट कर्म से इतना नीचे गिर गया हूँ कि मैं ब्राह्मण तो क्या, किसी धर्मात्मा क्षत्रिय़ राजा जो ब्राह्मणों को पूजता हो उसकी भी समानता नहीं कर सकता? मैं रहा देहाभिमानी का देहभिमानी ही। नहीं-नहीं बनने योग्य नहीं, मैं पापी हूँ, अपराधी हूँ। मुझे अपने अपराध का दंड पाने के लिए, रिषिचरणों में समर्पण कर अपने अपराधों की सजा मांगनी ही चाहिए। ऐसा सोचकर त्राहिमाम त्राहिमाम कहते हुए वे ईश्वर के समक्ष गए और उनके चरणों पर गिरकर बोले क्षमा प्रभु क्षमा। मैं खंडित तपस्या क्षत्रीय, एक विश्वामित्र हूँ, मैं आप सहित जगत का अपराधी हूँ। मेरी तपस्या एक पाखंड थी। मैं मद, मोह, ईर्ष्या, द्वेष एवं क्रोध से दूर नहीं रह सका । मेरी तपस्या बेकार हुई। मेरे अंदर ब्राह्मण या ब्राह्मण बनने की क्षमता नहीं है। मैं सत्य दर्शन कर चुका हूँ, मैं ब्राह्मण नहीं बन सकता। अतः आपकी शरण में हूँ, मुझे क्षमा कर दें ।
चरणों में पड़े अपने अपराधों की तलवार फेंककर क्षमा मांगते विश्वामित्र को उठो ब्राह्मण कहते हुए ऋषि वशिष्ठ ने उन्हें बांहों में भर लिया और बोले, आज आपने ब्राह्मण होने के सारे मानक पूरे कर लिए हैं। आज से आप सम्पूर्ण धरा पर ब्राह्मण के नाम से जाने जाएंगे और अपने प्रचंड तप प्रभाव के कारण त्रेता युग में होने वाले श्री हरि के रामावतार में कुछ समय तक उनके गुरु होने की भूमिका में भी रहेंगे। आवभगत एवं तोष परितोष के साथ विश्वामित्र को संतुष्ट कर मुनि वशिष्ठ ने उन्हें विदा किया और वे तप हेतु गुनाह वन के अन्य भाग में चले गए।
रिषि वशिष्ठ जी विश्वामित्र द्वारा पूर्व में अवध नरेश कल्माषपाद पर आरोपित राक्षस द्वारा मारे गए अपने सौ पुत्रों का स्मरण कर कभी- कभी अति दुखी हो जाते और तब और अधिक जब वे आश्रम में प्रवेश कर वहाँ रोती कलपती और सौ विधवा पुत्र वधुओं को देखते । आतः एक दिन सोचा की हाय, मैं कितना अभागा हूँ कि मैं अपने सौ पुत्रों की मृत्यु के बाद भी इस निःसार। शरीर का पालन करते हुए जीवित हूं। क्यों न मैं भी या शरीर त्यागकर इस पीड़ा से मुक्त हो जाऊं? यद्यपि वशिष्ठ जी चाहते तो अपने तप प्रभाव से अपने पुत्रों को जीवित कर लेते, किंतु वे इसे विधि विधान का अपमान समझते थे। आतः इस पुत्र शोक को स्वीकार करना ही उन्होंने उचित समझा।
जीवन त्याग की इच्छा से हिमालय की ऊंची पहाड़ी से कूदकर प्राण देने की योजना बनाई और एक अति उत्तुंग शिखर पर चढ़कर नीचे कूद गए। ये जहाँ कूदे उसके नीचे एक सरिता प्रवाहमान थी। जब नदी ने देखा कि उसके ऊपर तप्त सूर्य सी तेजवान कोई वस्तु गिर रही है तो वह भयभीत होकर सहस्र धार होकर भागने लगी। वशिष्ठजी उसके मध्य धार में गिरे लेकिन न तो इन्हें चोट लगी और ना ही इनकी मृत्यु हुई। तब से वह नदी सहस्रधारा कही जाती है। विफल मनोरथ अनमने भाव से उठे और गंभीर वन में इस आशा से घुसे कि कोई हिंसक पशु उनका शिकार करके अपनी उदरपूर्ति कर लेगा और उन्हें इस जीवन से छुटकारा मिल जाएगा। किंतु जो भी हिंसक पशु उनके सामने पडता सिर झुकाए हुए दूसरी दिशा में चला जाता। फिर जब वे आगे बढ़े तो देखा उस गंभीरवन में दावाग्नि में लगी हुई थी। अतः उन्होंने सोचा चलो इस अग्नि में प्रवेश कर जल कर प्राण त्याग दूंगा। लेकिन वशिष्ठजी की उपस्थिति देख अग्निदेव उस इलाके को छोड़कर अन्य दिशा की ओर बढ़ गए और वशिष्ठजी के साथ ही तमाम वन्यजीवों का भी जीवन बच गया।
पुनः मरण मनोरथ पाले महर्षि जब वन्य प्रांत के किनारे पहुंचे तो उस समय पावस की घनघोर वर्षा के कारण सारी नदियां उफान पर थीं। सामने एक अति वेगवती सरिता को देख वशिष्ठजी एक गिरते हुए कगार के निकट पहुंचे और वनलता की डोर से पहले अपने दोनों पैरों को जकड़कर बांधा और दांतों की सहायता से दोनों हाथ बांधे और उस कगार पर लेटकर नदी की तेज धार में लुढ़क गए। जब नदी ने देखा कि ये तो मुनिवर वशिष्ठ हैं, यदि इन्होंने मेरी जलधारा में प्राण त्याग दिया तो मेरी बड़ी अप कीर्ति होगी। अतः उसने इनके हाथ पांव को बंधनमुक्त कर अपने धारा के वेग के प्रभाव से एक जगह अपने ऊंचे किनारे पर फेंक दिया। प्रकृतिस्थ होने के बाद वशिष्ठजी ने सोचा, मेरा मरण शायद ईश्वर को स्वीकार नहीं है। उन्होंने अपने हाथ और पैरों की गांठ खोलकर उन्हें विस्तार देने वाली उस बेगवती संरिता की ओर देखा और उसे व्यास नदी का नाम दिया ।
मरण से निराश मुनिवर अब आगे के प्रयास का विचार त्याग अपने परिवार का हाल समाचार लेने के लिए अपने आश्रम पहुंचे। वहाँ बहुत दिनों के आश्रम में आए श्वसुर को देख विधवा बहुओं का संवेत करुण क्रंदन सुन और उनकी दशा निहारकर महर्षि का हाल फिर बेहाल हो गया। बहुएं बोली हे पिता हम सभी अभागिनी का एक आप ही सहारा हैं आप इतने दिनों तक बाहर रहेंगे तो हम सब अपना जीवन कैसे धारण करेंगे? वशिष्ठ जी उनकी बातें सुन मौन रहें उनका हृदय व्यथा से फटा जा रहा था। उन्होंने तुरंत आश्रम त्यागने का निर्णय लिया और उन सबको उनकी नियति को सौंप आश्रम से चल पड़े। यह देख उनकी बड़ी बहू शक्ति की पत्नी यह कहते हुए उनके पीछे चल पड़ीं कि मैं भी आपके साथ चलूँगी। आप जहाँ रहेंगे आपकी सेवा करूँगी। मैं यहाँ रह कर क्या करूँगी? वशिष्ठजी बोले नहीं मौन रहे। अतः उनकी बहू अदृश्यन्ती उनके पीछे चल पड़ीं। कुछ दूर बन मार्ग पर चलने के बाद वशिष्ठजी चौंककर चारों तरफ देखने लगे जब उन्हें कोई तीसरा दिखाई नहीं पड़ा, तो वे अदृश्यन्ती से बोले बेटी मैं मार्ग में जैसे -जैसे आगे बढ़ रहा हूँ, मेरे कानों में शाम वेद गायन की अति मधुर ध्वनि सुनाई पड़ रही है। यह आवाज मेरे बड़े पुत्र शक्ति तुम्हारे पति जैसी लग रही है पर कहीं कोई दिखाई नहीं पड़ रहा। तब अदृश्यंती ने कहा हे पिता यह आवाज़ मेरे गर्भ में स्थित आपके पौत्र की है जिसे मैंने स्वामी की मृत्यु के कुछ दिन पहले ही धारण किया था। समय पूरा होने पर भी मैंने इसे योगबल से गर्भ में रोक रखा है और वहीं इसे सारे वेदों की शिक्षा दे रही हूँ। पितृ हंता के भय से रोक रखा है कि कहीं बाहर आने पर वह राक्षस बना राजा इसका भी बध कर इसे खा ना जाए।
अदृश्यंती की बात सुनकर वशिष्ठजी की प्रसन्नता की सीमा न रही। वे हर्षित स्वर में बोले, तब तो बेटी मेरे कुल का नाश नहीं हुआ है। यह तो महान हर्ष का विषय है तो अब हमें वन-वन शांति ढूंढ़ने की क्या आवश्यकता? चलो वापस आश्रम चलते हैं। अपनी देवरानियों सहित समस्त आश्रम वासियों को इस शुभ समाचार से अवगत कराओ। वे दोनों हर्षित मन से हर्षित मन से वापस आश्रम की तरफ मुड़कर जा ही रहे थे कि उन्हें एक भीषण अट्टहास सुनाई पड़ा, जिसे सुनकर भयभीत अदृश्यंती बोली पिताजी सामने देखिए आपके पुत्रों का हन्ता राक्षस कलमाषपाद है आपको देखकर दहाड़ता हुआ आपकी तरफ आ रहा है। आज यह आपको और मुझ को भी खा जाएगा। वशिष्ठजी ने अपनी तरफ दौड़कर आते कलमाषपाद को देखा तो बोले डरो मत पुत्री, आज मैं इस कंटक को ही समाप्त कर देता हूँ। पास आए कल्माषपाद को मुनिवर ने तेजोमय बाड़ी में डांटा तो वह जहाँ पहुंचा था वहीं खड़ा रह गया। फिर मुनिवर ने कमंडल के अभिमंत्रत जल को हाथ में लेकर उसी पर छींटे मारे तो उसके शरीर से चीत्कार करती हुई एक ज्वाला उठी, और आसमान में विलीन हो गई और कलमाषपाद की दशा मद उतरे गजराज की तरह हो गई। वह सिर नीचे किए कुछ देर खड़ा रहा और उसके उत्तरीय के कोने को पकड़े उसकी मलिनमुख रानी देख अवाक थी। मुनिवर को पहचानकर वे दोनों पति- पत्नी उनके चरणों पर गिर पड़े और अपने अपराधों के लिए क्षमा मांगने लगे। रिसीवर उन्हें समझाते हुए बोले, इसमें तुम्हारा दोष नहीं, तुम्हें मिले शाप एवं विश्वामित्र द्वारा तुम पर आरोपित राक्षस का था। अब तुम पुनः पवित्र हो और अपने राज्य अयोध्या लौट जाओ। वहाँ राजा विहीन प्रजा बहुत दुखी हैं। वापस जाकर प्रजा के कल्याण के लिए कार्य करो और राज्य के उत्तराधिकारी दो। ऐसा सुनकर राजा बोले प्रभु राक्षस आरोपित होने के बाद मैंने एक संभोग रत तपस्वी को मारकर खा लिया था। तब तपः अग्नि द्वारा अपनी जीवनलीला समाप्त करने वाली उसकी पत्नी उस ब्राह्मणी ने हमें शाप दिया था कि अब से तुम जब भी अपनी पत्नी से संसर्ग करोगे, तुम्हारा सिर फट जाएगा और तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी। उत्तराधिकारी कैसे दे पाऊंगा? अब आप ही इसके लिए कोई उपाय करें, रिषिवर ने उन्हें सांत्वना देकर और समय आने पर कार्य संपन्न करने का वादा कर उनके राज्य के लिए उन्हें विदा किया।
आश्रम में पहुंचने पर अदृश्यंती ने अपने गर्भ में स्थित बालक को निर्भय वातावरण में जन्म दिया। आश्रम में प्रसन्नता की लहर दौड़ पड़ी। वशिष्ठजी ने अपने संरक्षण में उस बालक का पालन किया और सभी विद्याओं में निष्णात बनाया। शक्तिपुत्र बालक का नाम ही पराशर पड़ा। जिन्होंने द्वापर में योजन गंधा से नौका पर सरिता मध्य संबंध बनाया था।जिससे कृष्णद्वैपायन अर्थात वेदव्यास का जन्म हुआ, जिन्होंने वेदों को विस्तार पुराणों महाभारत, श्रीमद्भागवत की रचना की जिसमें गीता ज्ञान समाहित हैं। इनके पुत्र सुखदेव जी ने ही परिक्षित के उद्धार के लिए सर्वप्रथम श्रीमद् भागवत कथा सुनाई थी।