श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर श्री मैथिलीशरण गुप्तजी की रचना जयद्रथ वध के एक प्रसंग पर अरुणाकर जी ने यह आलेख लिखा है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण की भूमिका का उल्लेख है |
अरुणाकर पाण्डेय
मनुष्य का जीवन बहुत रहस्यमयी है | कभी तो उसे समस्त सुख,सुविधाएँ,नीति और धर्म प्राप्त हो जाते हैं और कभी वह बहुत समृद्ध होते हुए भी एक कदम नहीं बढ़ा पाता क्योंकि निराशा,अन्धकार और हारने की स्थिति देखकर वह भीतर से टूट जाता है | लेकिन कई बार तो ऐसा होता है जब अपना अन्त सामने दिखता है और मनुष्य यह स्वीकार कर लेता है कि उसकी गाथा खत्म हो गई है |तब वह उस वाणी को सुनने का आकांक्षी हो जाता है जो उसे उस अन्धकार से निकाल कर अमृतपान कराती है…और यह वाणी भगवान या सर्वोपरि परमात्मा की ही हो सकती है| वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत एक ऐसा ही महाकाव्य है जिसमें अनेक बार मनुष्यता टूटती है और सब कुछ अपने बोध के साथ इति की ओर जाते हुए दिखता है | तब उसमें भी भगवान श्रीकृष्ण अपना वचन सुनाते हैं जिससे घोर निराशा में जी रहा व्यक्ति फिर से अपने आप को समेटकर योद्धा बन जाता है |
ऐसा ही एक प्रसंग है जयद्रथ वध का | इसमें एक बार अर्जुन निराश हो जाते हैं और ऐसी स्थिति बनती है कि अब उन्हें आत्महत्या करनी पड़ेगी | उन्होंने सूर्य ढलने से पहले जयद्रथ के वध की घोषणा की थी क्योंकि उनके पुत्र अभिमन्यु का वध जयद्रथ ने चक्रव्यूह भेदते हुए कर दिया था | यदि सूर्यास्त से पहले वे जयद्रथ का वध नहीं करते तो संकल्प के अनुसार उन्हें आत्महत्या करनी ही पड़ती | इस प्रसंग को रचा है हिंदी के सर्वविदित कवि बाबू मैथिलीशरण गुप्तजी ने और उनके इस खंडकाव्य का नाम है जयद्रथ- वध | गुप्त जी को पौराणिक कथाएँ बहुत प्रिय थीं और उन्हें आधुनिक मानवतावादी दृष्टिकोण से छन्दबद्ध करने की अपार क्षमता थी | वे परंपरा और आधुनिकता के संतुलन से अपनी कविता रचते थे और सबसे बड़ी बात यह थी कि आज भी वह बहुत संप्रेषणीय हैं | उन्होंने महाभारत के आधार पर जो काव्य लिखे उनमें ‘नहुष’,’जय भारत’,’वक-संहार’,’जयद्रथ-वध’,’सैरन्ध्री’,’वन-वैभव’,’हिडिम्बा’ और ’युद्ध’ के नाम सम्मिलित हैं | बार-बार महाभारत की तरफ लौटना यह सिद्ध करता है कि गुप्तजी का तादाम्य उस महागाथा से बहुत गहरा था |
‘जयद्रथ-वध’ में ऐसी स्थिति बनती है कि अर्जुन और जयद्रथ का सामना होता है | उस समय अर्जुन एक धीर योद्धा की तरह अपना युद्ध लड़ रहे होते हैं कि तभी सूर्यास्त की घड़ी आ जाती है | उसे सामने देखकर अर्जुन एक बार सम्पूर्ण निराशा में चले जाते हैं | उस क्षण को शब्दों में बांधते हुए गुप्त जी लिखते हैं कि सूर्य को अस्त होता देखकर अर्जुन हत हो जाते हैं,और जैसे कमल का फूल मुरझा जाता है,वैसे ही वे भी मुरझा जाते हैं| उनका तन और मन गौरव विहीन हो जाता है और वे ऊंची साँसे भारते हुए अपना मुख नीचे झुका लेते है | इसके बाद वे युद्ध छोड़ कर गांडीव नीचे रख देते हैं | यह स्थिति देखकर युधिष्ठिर आदि तो शोक में आ जाते हैं लेकिन दुर्योधन आदि प्रमुदित हो जाते हैं | तब दुर्योधन जयद्रथ का हाथ अपने हाथ में लेकर उससे कहते हैं कि अब तुम भी सूर्य अस्त होने के साथ अर्जुन को भी अस्त होते देख लो | आगे गुप्तजी जो लिखते हैं जैसे वह समूची मानवता का ही प्रश्न है | वे लिखते हैं –
“क्या पाप की ही जीत होती ,हारता है पुण्य ही ?
इस दृश्य को अवलोक कर तो जान पड़ता है यही|
धर्म्मार्थ दुःख सहे जिन्होनें पार्थ मरणासन्न हैं
दुष्कर्म ही प्रिय है जिन्हें वे धार्तराष्ट्र प्रसन्न हैं !”
अधर्मी कौरव और उनकी सेना प्रसन्न है और धर्म के मार्ग पर चलने वाले पांडव और विशेष कर अर्जुन धर्म के पथ पर चलने की सजा पा रहे हैं | यहाँ पर ‘जयद्रथ-वध’ में अर्जुन पूरी तरह निराश हैं और अपनी जान देने के लिए तैयार हैं | गुप्तजी ने उनकी निराशा कि मन:स्थिति को सामने प्रकट कर दिया है जिसमें आज के मनुष्य जीवन के स्वर सुनाई देते हैं | अर्जुन कई प्रकार से विदाई और शोक के वचन कहने लगते हैं और अपने को इसके लिए धिक्कारने लगते हैं कि मुझे क्षमा करो मुझसे शत्रु का भला हो गया है | जब इस प्रकार के वचन अर्जुन श्रीकृष्ण को कहते हैं तब जयद्रथ हँसते हुए उनसे कहते हैं कि हे गोविन्द ! अब प्रण का समय टला जा रहा है अर्जुन को अब अपनी हत्या करने में देरी नहीं करनी चाहिए |
यह दृश्य आँख खोल देने वाला है क्योंकि यह स्वार्थ की बहुत बड़ी पराकाष्ठा है | घोर निराशा के क्षण हैं | लेकिन यहीं से दृश्य बदल जाता है | जब जयद्रथ यह कह रहा होता है तब भगवान श्रीकृष्ण को हँसी आने लगती है क्योंकि यहाँ एक नाटकीय मोड़ उपस्थित होता है | श्रीकृष्ण अब बोलते हैं-
“सुनके जयद्रथ का कथन हरि को हँसी कुछ आ गई
गंभीर श्यामल मेघ में विद्युच्छ्टा सी छा गयी |
कहते हुए यों – वह न उनका भूल सकता वेश है –
हे पार्थ ! प्रण पालन करो देखो अभी दिन शेष है”
कहने की आवश्यकता नहीं कि इसके बाद अर्जुन के मन में शोक और निराशा की जगह हर्ष और उत्साह का ऐसा संचार हुआ कि गांडीव के प्रहार से जयद्रथ का वध हो गया |
यहाँ यह समझने की जरुरत है कि गुप्तजी क्या सन्देश इस रचना के माध्यम से दे रहे हैं | वे अवश्य ही यह स्थापित करना चाहते हैं कि चाहे कैसी भी पराजय की स्थिति क्यों न हो लेकिन जो धर्म के मार्ग पर चल रहा है वह बहुत कठिन घोर निराशा की परीक्षा से गुजर कर भी अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा | आस्था के साथ जीना ही मनुष्य का धर्म वे बतला रहे हैं | यह रचना 1910 की है और जाहिर है कि यह पराधीन भारत को साम्राज्यवादी शक्तियों से मुक्ति के लिए उत्साह का संचार कर रही है | लेकिन यह और भी ध्यान देने की बात है कि इसमें वे आस्थावादी होने के लिए प्रेरित कर रहे हैं क्योंकि जैसी श्रीकृष्ण ने भूमिका यहाँ अर्जुन के जीवन में निभायी है वह प्रत्येक मनुष्य को याद रखनी चाहिए और उत्साहपूर्वक अपना जीवन जीने का प्रयास करते रहना चाहिए | यही वह मार्ग है जिससे स्वतंत्रता मिली और अब भी इस पर आज के अर्जुन को विचार करने की आवश्यकता है |
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं.