hajaareeprasaad jee

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की जयंती पर विशेष

अरुणाकर पाण्डेय

लेकिन हिंदी साहित्य,भाषा और अध्यापन के इतिहास में एक गुरु ऐसे भी हुए जिनकी ख्याति जितनी ही उनके गम्भीर शोध कार्य, वैकल्पिक विचारधारा की प्रस्तुति और गहरी रचनात्मकता के लिए हुयी उतनी ही उनकी ख्याति अपने शिष्यों को पढ़ाने, शिष्य वत्सलता और अपने सहज जीवन के तोड़ कर रख देने वाले संघर्ष और उसके साथ उनके उन्मुक्त ठहाकों के लिए भी हुई | हिंदी के उस गुरु का नाम आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी है जो बलिया के ओझवलिया के थे | गरीबी इतनी कि पढ़ने के समय धन की आपूर्ति के लिए कथावाचन भी उन्होंने किया और जिज्ञासा इतनी की सभ्यता के आरंभिक बिंदु को भी छू कर दिखा दिया और हिंदी साहित्य में दूसरी परम्परा का प्रवर्तक आलोचक उन्हें बताया गया | कबीर को आलोचकीय स्थापना देने का भी श्रेय उन्हें जाता है | लेकिन क्या कोई सोच सकता है कि ऐसे व्यक्ति का स्वभाव जीवन से संघर्ष करते हुए भी सहज और विनोदी हो सकता है | कम से कम शायद आज के समय में तो नहीं !

हजारीप्रसाद जी ने आलोचना और इतिहास लिखते हुए जो उपन्यास लिखे हैं उनके बारे में बोलते हुए उन्होंने स्वयं ही यह खुलासा किया है | हिंदी के साक्षात्कारों के लिए एक नाम बहुत प्रसिद्ध रहा है डॉ. रणवीर रांग्रा जी का | संयोग से यह उनका शताब्दी वर्ष है यानी आज होते तो सौ साल के हो गए होते| उन्होंने ही आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी का एक साक्षात्कार लिया है जो इसलिए बहुत रोचक है क्योंकि उसमें उन्होंने अपने उपन्यासों के बारे में कुछ रोचक बातें कहीं हैं | इससे से उनके रचनात्मक मन के विनोदी स्वभाव का भी पता चलता है | रांग्रा जी ने जब उनसे यह पूछा कि एक ख्यातिलब्ध समालोचक होने के बाद उन्होंने जरुर किसी मानसिक मजबूरी के कारण उपन्यास की रचना की होगी तो हजारीप्रसाद जी ने बताया है कि अनेक कारणों से उन्हें स्कॉलर बनना पड़ा पर उनके मन में विद्रोह रहता  था | शोध में वे बंधन महसूस करते थे और हर बात में प्रमाण देना जरुरी था जिससे कई बार ‘गैप’ को भरा नहीं जा सकता था, जिससे बेचैनी होती थी | वे मानते हैं कि भगवान ने उन्हें स्वभाव से गप्पी बनाया है | इसे व्यक्त करते हुए वे स्वयं ही अपने उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ के संदर्भ में एक निराली बात बताते हुए कहते हैं “इस बीच राहुल सांकृत्यायन जी की ’वोल्गा से गंगा’ नामक पुस्तक मिली | उसमें बाणभट्ट के संबंध में कुछ ऐसी भी बातें थीं कि वह लड़कियाँ भगाया करता था | तो इससे मेरे मन में एक प्रतिक्रिया हुई |एक ऊब थी और उसको मिटाने के लिए मैंने एक गप्प बनाया ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’| वस्तुतः वह गप्प था| ऐतिहासिक उपन्यास का नाम देकर ऐतिहासिक उपन्यास की कसौटी पर कसें तो वह मेरे साथ अन्याय होगा |मन में यह था कि यह चीज़ किसी को पसंद नहीं आएगी |एकाध जगह आलोचना भी हुई| लोगों ने पसंद किया तो लगा कि यह तो अच्छी चीज़ बन गई| जो लोग पसंद करें वह अच्छी चीज़, जो पसंद न करें वह खराब चीज़|”

अपनी रचना के बारे में यह बातें कहने के लिए बहुत साहस चाहिए कि वह एक गप्प है, विशेष कर  जिससे लेखक की पहचान बनती है | लेकिन यह हजारीप्रसाद जी का व्यक्तित्व है जो इस सच का खुलासा भी एक साक्षात्कार में बहुत सहज ढंग से और बहुत ही सहज भाषा में कर देता है | यदि राहुल जी ने ‘वोल्गा से गंगा’ में बाणभट्ट के बारे में ऐसी बात नहीं की होती तो हजारीप्रसाद जी ने वह उपन्यास नहीं लिखा होता | यह बात उनके मन में जरुर बैठ गई थी और वे हिंदी के बहुत बड़े आलोचक थे | लेकिन यह देखना रोचक है कि उन्होंने कोई ‘जवाब’ नहीं दिया बल्कि रचनात्मकता से एक ऐसे गप्प की रचना कर दी जो न केवल उनकी रचनात्मक पहचान बनाती है बल्कि आज उसकी उपस्थिति विश्वविद्यालयों में हिंदी के पाठ्यक्रमों में कथा साहित्य के पेपर में अनिवार्य है |

इस कथन में वे स्वयं ही कह रहे हैं ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ को यदि ऐतिहासिक उपन्यास की कसौटी पर समझा जाएगा तो यह उनके प्रति ही बहुत बड़ा अन्याय होगा | यह बहुत कम देखने को मिलता है कि एक रचनाकार को अपनी रचना के बारे में ही अलग से कुछ कहना पड़ा हो | याद रखना चाहिए कि हजारीप्रसाद जी सिर्फ उपन्यासकार ही नहीं बल्कि आलोचक भी थे और विश्वविद्यालय के ख्यातिलब्ध आचार्य भी ! इसके बावजूद वे यह कह रहे हैं कि इस रचना को केवल साहित्य ही माना जाए न कि इतिहास की या उससे प्रमाणित हुई अंतर्वस्तु | यह एक अनन्य रचनाशीलता है जिसकी परम्परा में अधिक नाम नहीं लिए जा सकते | साहित्य इतिहास से पात्र उठा सकता है और उसके माध्यम से रस या संवेदना का आस्वादन और बोध करा सकता है, यह उसकी अद्भुत शक्ति है | सपष्ट है कि यह राहुल जी की रचनात्मकता के बरक्स एक प्रति रचनात्मकता है | निश्चय ही यह साहित्य का एक दुर्लभ प्रसंग है| उक्त कथन में द्विवेदी जी एक अन्य संकेत देते हैं | वह यह है कि साहित्य की सार्थकता अंततः लोगों की पसंद पर ही टिकती है | सर्वविदित है कि हजारीप्रसाद जी लोक बनाम शास्त्र के द्वंद्व में लोक को सर्वोपरि मानते हैं | अपनी रचना की प्रतिष्ठा में भी वे लोगों या पाठकों को ही सबसे बड़ा कारक मानते हैं | यह भी स्वीकार करना उनके ईमानदार और फक्कड़ मन का ही परिचायक है और इसलिए वे हिंदी के इतिहास में सदैव एक आलोचक, उपन्यासकार ,निबंधकार और योग्य गुरु के रूप में याद किये जाते हैं और आगे भी याद किए जाएंगे | वे जिस भी भूमिका में रहे उसे उन्होंने एक क्रांतिकारी रूप दिया है जिसमें उनके सहज स्वभाव और गप्पी मन का बहुत बड़ा हाथ है |

लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *